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________________ असंक्षेपाद्धा] १५७, जैन-लक्षणावली [असंज्ञी भा. मलय. वृ. ३-१६४, पृ. ३५)। नोइन्द्रियावरण के लर्वघाति स्पर्धकों के उदय से संक्लेश आदि दोष रहित व्यक्ति को असंक्लिष्ट जो जीव की अवस्था-मन के बिना शिक्षा उपकहते हैं। देशादि के न ग्रहण कर सकने योग्य प्राप्त होती है प्रसंक्षेपाद्धा-१. जहण्णग्रो पाउनबंधकालो जह- उसे असंज्ञित्व कहते हैं। ण्णविस्समणकालपुरस्सरो असंखपाद्धा णाम । (धव. असंज्ञिश्रुत-जस्स णं नत्थि ईहा अवोहो मग्गणा प्र. ६, प.१६७ टि.१)। २. न विद्यते अस्मादन्यः गवसणा चिंता वीमंसा से णं प्रसन्नीति लब्भइ । संक्षेपः, स चासौ अद्धा च असंक्षेपाद्धा, आवल्यसं- से तं कालिग्रोवएसेणं । XXX जस्स णं नस्थि ख्येयभागमात्रत्वात् । (गो. क. जी. प्र. टी. १५८)। अभिसंधारणपुध्विया करणसत्ती से णं असण्णीत्ति जिससे संक्षिप्त प्रायुबन्धकाल और न हो ऐसे प्राव- लब्भइ। से तं हेऊवएसेणं । XXX असण्णिलीके असंख्यातवें भाग मात्र काल को असंक्षेपाद्धा सुअस्स खोवसमेणं असण्णी लब्भइ। से तं दिदिकहते हैं। वाग्रोवएसेणं ।xxxसे तं असण्णिसुझं । (नन्दी. असंख्येय--१. संख्यामतीतोऽसंख्येयः । (स. सि. सू. ३६) । ५-८)। २. स (असंख्येयः काल:) च गणितविषया- कालिक्युपदेश से, हेतूपदेश से और दृष्टिवादोपदेश तीतत्वादुपमया कयाचिन्नियम्यते । (त. भा. सिद्ध. से असंज्ञो तीन प्रकार का है। जिसके ईहा, अपोह, ७.४-१५)। ३. संख्याविशेषातीतत्वादसंख्येयः। मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श नहीं होते (त. वा. ५, ८, १)। ४. जो रासी एगेगरूवे वह कालिक्युपदेश से असंज्ञी कहा जाता है। विद्यअवणिज्जमाणे णिदादि सो असंखेज्जो, जो पुण ण मान अर्थ के पर्यालोचन का नाम ईहा और निश्चय समप्पइ सो रासी अणंतो। (धव. पु. ३, पृ. का नाम अपोह है। अन्वय धर्म के अन्वेषण को २६७); Xxx तदो (संखेज्जादो) उवरि । मार्गणा और व्यतिरेक धर्म के स्वरूप के पर्यालोचन जमोहिणाणविसो तमसंखेज्जं णाम । (धव. पु. को गवेषणा कहा जाता है। यह कैसे हुआ, इस ३, पृ. २६८)। समय क्या करना चाहिए तथा भविष्य में यह कैसे १ जो राशि संख्या से रहित-गणनातीत--हो, होगा; इत्यादि विचार को चिन्ता और यथावस्थित वह असंख्येय या असंख्यात कही जाती है। वस्तु के स्वरूप के निर्णय को विमर्श कहते हैं। जो प्रसंगानुष्ठान- यत्वभ्यासातिशयात् सात्मीभूत- बुद्धिपूर्वक अपने शरीर के संरक्षणार्थ अभीष्ट पाहामिव चेष्टयते सद्भिः । तदसङ्गानुष्ठानं भवति त्वे- रादि में प्रवृत्त नहीं हो सकता है तथा अनिष्ट से तत् तदावेधात् ॥ (षोडशक १०-७)। निवृत्त भी नहीं हो सकता है वह हेतू के उपदेश जो अनुष्ठान पुनः पुनः सेवन रूप अभ्यास की अधि- की अपेक्षा असंज्ञी कहा जाता है। दृष्टिवाद के कता से किया जाता है उसे असंगानुष्ठान कहते हैं। उपदेशानुसार मिथ्यादृष्टि को असंज्ञी कहा जाता है। यह अनुष्ठान के प्रीत्यनुष्ठान आदि चार भेदों में इन तीन प्रकार के असंज्ञियों के श्रुत को असंजिअन्तिम है। श्रुत कहते हैं। असंघातित-असंघातितः एकफलकात्मकः । (व्यव. असंज्ञी-देखो असंज्ञिश्रुत । १. सम्यक् जानातीति सू. भा. मलय. व. ८-८)। संज्ञं मनः, तदस्यातीति संज्ञी।xxxतविवरीदो जो संस्तारक (विछाने का साधन) एक पटिये रूप असण्णी दु ।। (धव. पु. १, पृ. १५२); शिक्षा-क्रिहोता है उसे असंघातित एकांगिक अपरिशाटिसंस्ता- योपदेशालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी। (धव. पु. रक कहते हैं। ७, पृ. ७)। २. अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी प्रसंज्ञित्व-xxx भवत्वेवं यदि मनोऽनपेक्ष्य कथितो जिनः । (त. सा. २-९३) । ३.xxx ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबन्धनमिति । मणवज्जिय जे ते धुव असणि । सिवखालावाइंग (धव. १, पृ. ४०६); णोइंदियावरणस्स सव्व- लेति पाव, अण्णाण गूढ दढ मूढभाव । असु णव जि घादिफद्दयाणमुदएण असिण्णत्तस्य सणादो। (धव. समत्ति उ पंच ताहं, वज्जरइ जिणिदु असण्णियाहं ।। पु. ७, पृ. ११२)। (म. पु. पुष्प. १२, पृ. १७५-७६)। ४. xxx Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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