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________________ अर्थ (अभिलषनीय)] १२७, जैन-लक्षणावलो [अर्थचर निष्प्रत्यूहमर्थस्योपार्जनादुपाजितस्य च रक्षणादरक्षि- जिसके द्वारा द्रम्मों-सोना व चांदी प्रादि के तस्य च वर्द्धनाद यथाभाग्यं ग्रामसुवर्णादिसम्पत्तिः। सिक्कों-प्रादि का उत्पादन होता है, अथवा धना(सा. ध. स्वो. टी. २-५६)। र्जन के लिए जो कुछ किया जाता है उसे अर्थकरण १ समस्त प्रयोजन के साधनभूत धन का नाम कहते हैं। अथवा विविध उपायों से अर्थ-उपार्जन करने को अर्थकरण कहते हैं। अर्थ (अभिलषनीय)-१. अर्थ्यतेऽभिलष्यते प्रयोज- अर्थक -तेसिमणेयाणं बीजपदाणं दबालसंगनार्थिभिरित्यर्थो हेय उपादेयश्च । (प्र. क. मा. पृ. प्पयाणमटारस-सत्तसय-भास-कुभासरूवाणं परूवो ४, पं. २२-२३)। २. अर्थः व्यवहारिणा हेयत्वेन अत्थकत्तारो णाम । (धव. पु. १, पृ. १२७)। उपादेयत्वेन वा प्रार्थ्यमानो भावः । (न्यायकु. १-५, अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा रूप द्वादशांगपृ. ११६)। स्वरूप अनेक बीजपदों की प्ररूपणा करने वाला १ प्रयोजनार्थी के लिए जो वस्तु अभीष्ट होती है अर्थकर्ता कहलाता है। उसे अर्थ कहा जाता है। अर्थकल्पिक-अत्थस्स कप्पितो खल आवासगमादि अर्थ (सम्यक्त्वभेद)-१. संजातार्थात् कुतश्चित् जाव सूयगडं । मोत्तुणं छेयसुयं जं जेणहियं तदट्ठस्स। प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि: । (श्रात्मानु. १४)। (बृहत्क. ४०८)। २. प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः (उपासका. पृ. जिसने आवश्यक सूत्र से लगाकर सूत्रकृतांग तक के ११४; अन. ध. स्वो. टी. २-६२)। सूत्रों के अर्थ का अध्ययन किया है, तथा सूत्रकृतांग १ आगमवचनों के बिना किसी अर्थविशेष के प्राश्रय सूत्र से ऊपर भी छेदसूत्र को छोड़ कर समस्त सूत्रों से जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे अर्थ सम्यक्त्व के अर्थों को पढ़ा है, ऐसे साधु को अर्थकल्पिक कहते हैं। कहते हैं। अर्थकथा-१. विज्जा-सिप्पमूवानो अणिवेग्रो संचयो अर्थक्रिया-१. तत्र विलक्षणाभावतः अवस्तुनि य दवखत्तं । सामं दण्डो भेो उवप्पयाणं च अत्थ परिच्छेदलक्षणार्थक्रियाभावात् । (धव. पु. ६, पु. कहा ॥ (दशवै. नि. १८६, पृ. १०६)। २. अत्थकहा नाम जा अत्थनिमित्तं कहा कहिज्जइ सा अत्थ १४२)। २. अर्थक्रिया-अर्थस्य ज्ञानस्य अन्यस्य वा क्रिया करणम्। (न्यायकु. २-८, प. ३७२) । ३. अर्थकहा । (दशवै. चू. पृ. १०२)। ३. विद्यादिरर्थस्तत्प्र क्रिया-अर्थस्य कार्यस्य क्रिया करणं निष्पत्तिः । धाना कथाऽर्थकथा । (दशवै. हरि. व. पु. १०७) । (लघीय. अभय. व. २-१, पृ. २२)। ४. तत्रार्थक्रिया ४. अर्थस्य कथा अर्थार्जनोपायकथनप्रबन्धाः सेवया वाणिज्येन लेखवृत्त्या कृषिकर्मणा समुद्रप्रवेशेन धातु ऽर्थदण्डरूपा । (गु. गु. षट्, स्वो. वृ. १५, पृ. ४१)। १ वस्तु का ज्ञान का विषय होना, यही उसकी वादेन मंत्रतंत्रप्रयोगेण वा इत्येवमाद्यर्थार्जननिमित्त अर्थक्रिया है। ३ अथवा अर्थ शब्द का अर्थ कार्य है, वचनान्यर्थकथाः । (मला. व. ६-८६)। ५. सामा उस कार्य का करना, यह वस्तु की अर्थक्रिया है। दि-धातुवादादि-कृष्यादिप्रतिपादिका । अर्थोपादान ४ प्रयोजनसिद्धि के लिए जो प्राणिपीडनात्मक परमा कथार्थस्य प्रकीर्तिता ॥ (गु. गु. ष. स्वो. वृ. क्रिया की जाती है वह अर्थकिया कही जाती है। ४ सेवा, कृषि व वाणिज्य प्रादि के द्वारा धन के अर्थक्रियाकारिता--पूर्वाकारपरिहारोत्तराकारस्वी कारावस्थानस्वरूपलक्षणपरिणामेन वस्तूनामर्थक्रियाकथा कहते हैं। कारिता । (स्या. रह. पृ. ६)। अर्थकरण - अर्थाभिनिवर्तकमधिकरण्यादि येन पूर्व प्राकार के परित्याग (व्यय), उत्तर प्राकार के द्रम्मादि निष्पाद्यते, अर्थार्थ वा करणमर्थकरणं यत्र ग्रहण (उत्पाद) और अवस्थान (ध्रौव्य) स्वरूप यत्र राज्ञोऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, अर्थ एव वा तस्तैरुपायैः परिणाम से वस्तुओं के अर्थक्रियाकारिता हुमा क्रियत इत्यर्थकरणम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ४, करती है। १८४, पृ. १६५)। अर्थचर-अर्थेषु चरन्ति पर्यटन्ति अर्थचराः कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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