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________________ अमृतस्रावी] १२२, जैन-लक्षणावली [अयन (धव. पु. १२, पृ. २)। गच्छतः स्थितस्य वा । केन ? अमेध्येनाशभेन पूरीषाअवगाहन प्रादि को अमूर्त अचित्त द्रव्यभाव कहा दिद्रव्येण । (अन. ध. स्वो. टी. ५-४४)। जाता है। अपवित्र मल-मूत्रादि से साधु के पैर आदि के लिप्त अमृतस्रावी (अमडसवी)-१. येषां पाणिपुट- हो जाने पर अमेध्य नामका भोजन-अन्तराय प्राप्त भोजनं यत् किंचिदमृततामास्कन्दति, येषां वा होता है। व्याहृतानि प्राणिनाममृतवदनुग्राहकाणि भवन्ति ते अम्बधात्री दोष--स्वयं स्वापयति स्वापननिमित्तं ऽमृतस्राविणः । (त. वा. ३-३६, पृ. २०४)। विधानं चोपदिशति यस्मै दात्रे स दाता दानाय २. जेसि हत्थपत्ताहारो अमडसादसरूवेण परिणमइ प्रवर्तते, तद्दानं यदि गृह्णाति तदा तस्याम्बधात्री ते अमडसविणो जिणा । (धव. पु. ६, पृ. १०१)। नामोत्पादनदोषः । (मूला. वृ. ६-२८) । ३. अमृतस्राविणो येषां पात्रपतितं कदन्नमप्यमृतरस- यदि साधु दाता के बच्चों को स्वयं सुलाता है और बीर्यविपाकं जायते, वचनं वा शारीर-मानसःख- उनके सुलाने का उपदेश भी देता है तो चंकि इससे प्राप्तानां देहिनां अमृतवत्सन्तर्पकं भवति ते ऽमृत- दाता दान में प्रवृत्त होता है। अतएव उस दाता के स्राविणः । (योगशा. स्वो. विव. १-८) । ४. येषां द्वारा दिये जाने वाले दान को यदि साधु ग्रहण करता पाणिपात्रगतमन्नं वचनं चामृतवद् भवति ते ऽमृता- है तो वह अम्बधात्री नामक उत्पादनदोष का भागी स्राविणः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) । होता है। १ जिनके हाथ में रखा हुआ नीरस भी आहार अम्ल-१. पाश्रवणक्लेदनकृदम्लः । (अनुयो. समान सरस बन जाय, तथा जिनके वचन हरि. वृ. पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३)। अमृत के समान प्राणियों का अनग्रह करने वाले हों, २. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गला अंबिलरउन्हें अमृतस्रावी कहते हैं। सेण परिणमंति तं अंबिलं णामकम्म । (धव. पु. ६, अमृतास्रवी ऋद्धि (अमियासवी रिद्धी)-मुणि- पृ. ७५) । ३. अग्निदीपनादिकृद् अम्लीकाद्याश्रितो पाणि-संठियाणि रुक्खाहाराऽऽदियाणि जीय खणे। अम्ल: । यदभ्यदायि-अम्लोऽग्निदीप्तिकृतस्निग्धः पावंति अमियभावं एसा अमियासवी रिद्धी । अहवा शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो मूढवादु:खादीणं महेसिवयणस्स सवणकालम्मि । णासंति तानुलोमकः ॥ यदुदयाज्जीवशरीरमम्लीकादिवद् जीए सिग्घं सा रिद्धी अमियपासवी णाम ॥ (ति.प. अम्लं भवति तदम्लनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. व. ४, १०८४-८५)। ४०, पृ.५१)। जिसके प्रभाव से साधु के हाथ में दिया गया रूक्ष १ पाश्रवण और क्लेदन को करने वाला रस अम्ल भी पाहार अमृत के समान स्वादिष्ट हो जाय; कहलाता है। २ जिस कर्म के उदय से शरीर के अथवा जिसके प्रभाव से मुख से निकले हुए वचन पुद्गल अम्ल रस से परिणत होते हैं, उसे अम्ल प्राणियों को अमृत के समान हितकारी होते हैं, वह नामकर्म कहते है। अमृतानवी ऋद्धि कही जाती है। अयन-१.xxx उडुत्तिदयं । अयणंxxx॥ प्रमेचक-परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः। (ति. प. ४-२८६)। २. तिण्णि उऊ अयणं । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥ (नाटक (अनुयो. १३७; जम्बूद्वी. सू. १८) । ३. तिन्नि य स. क. १-१८)। रियवो अयणमेगं ।। (जीवस. ११०) । ४. ते प्रात्मा चूंकि ज्ञातृत्वरूप ज्योति से एक होता हुआ (ऋतवः) त्रयोऽयनम् । (त. भा. ४-१५)। अन्य सब भावों से रहित स्वभाव वाला है, प्रतएव उसे अमेचक-एक ज्ञायकस्वभाव-कहा जाता है। ६.xxx येषां त्रयं स्यादयनं तथैकम् । (वरांग. अमेव्य--लेपोऽमेध्येन पादादेरमेध्यंxxx(अन. २७-६) । ७. ती उडहिं अयणं । (धव. पु. १३, ध. ५-४४); अमेध्यं नामान्तरायो भोजनत्यागकरणं पृ. ३००); दिणयरस्स दक्खिणुत्तरगमणमयणं । स्यात । यः किम ? यो लेपः उपदेहः । कस्य ? पादा- (धव. पु. १४, पृ. ३६)। ८. ऋतुत्रयमयनम् । देश्चरण-जना-जान्वादेः । कस्य ? साधोः स्थानान्तरं (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५;पंचा. का. जय. व. २५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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