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________________ प्रभिन्नाक्षरदशपूर्व ] श्राकर विद्यानुवाद नामक दसवें पूर्व के पढ़ते समय प्राज्ञा देने के लिए प्रार्थना करते हैं, फिर भी जो उन्हें स्वीकार नहीं करते ऐसे साधुनों को श्रभिन्नदशपूर्वी कहते हैं । प्रभिन्नाक्षरदशपूर्व - पुलाक-बकुश - प्रतिसेवनाकुशीलेषु उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदशपूर्वाणि श्रुतं भवति । कोऽर्थः ? अभिन्नाक्षराणि एकेनाप्यक्षरेण प्रत्यूनानि दशपूर्वाणि भवन्तीत्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४७)। जो उत्पादपूर्वादि दस पूर्व एक अक्षर से भी कम न हों, ऐसे परिपूर्ण दस पूर्वो को प्रभिन्नाक्षरदशपूर्व कहा जाता है । प्रभिन्नाचार- १. जात्योपजीवनादि परिहरत द्यभिन्नाचारः । ( ब्यव. भा. मलय. वू. ३-१६४, पृ. ३५) । २. न भिन्नो न केनचिदप्यतिचारविशेपेण खण्डित श्राचारों ज्ञान चारित्रादिको यस्यासावभिन्नाचारः । ( अभि. रा १, पृ. ७२५ ) । २ जिसका श्राचार किसी प्रतिचारविशेष के द्वारा खण्डित नहीं होता है उसे प्रभिन्नाचार कहा जाता है । ग्रभिमान १. मानकषायादुत्पन्नोऽहङ्कारोऽभि - मान: । ( स. सि. ४ - २१) । २. मानकषायोदयापादितोऽभिमानः । (त. वा. ४, २१, ४ त. सुखबो. वृ. ४-२१; त. वृत्ति श्रुत. ४ - २१) । १ मान कषाय के उदय से जो ग्रन्तःकरण में ग्रहकारभाव उदित होता है उसका नाम अभिमान है । भिखार्थको अभिमुहत्थो ? इंदिय-गोइंदिया गणपायोग्गो । ( धव. पु. १३, पृ. २०६ ) । श्रभिमुख और नियमित अर्थ के ग्राहक ज्ञान का नाम श्राभिनिबोधिक । इस लक्षण में प्रविष्ट 'अभिमुख अर्थ' का स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है जो पदार्थ इन्द्रिय और मन के द्वारा ग्रहण के योग्य होता है उसे प्रकृत में अभिमुखार्थ जानना चाहिए । अभिरूढ - १. ग्रभिरूढस्तु पर्याय: X X ×॥ ( लघी. ५-४४ ) । २. × × × ग्रभिरूढोऽस्तु नयोऽभिरूढिबिषयः पर्यायशब्दार्थभित् । ( सिद्धिवि. ११-३१, पृ. ७३६) । जो पर्यायवाची शब्दों की अपेक्षा श्रर्थ में भेद करे उसे अभिष्ट (समभिरूढ ) कहते हैं । जैसे --एक ही इन्द्र व्यक्ति को इन्दन क्रिया की अपेक्षा इन्द्र व Jain Education International [ अभिवद्धित संवत्सरं शकन क्रिया से शक भी कहा जाता है । अभिलाप - ग्रभिलप्यते येन यो वा प्रसी अभिलापः शब्दसामान्यम् ग्रर्थसामान्यम् च । (सिद्धिवि. टी. १-८, पृ. ३८, पं. ५-६ । जिस (शब्द) के द्वारा कहा जाता है वह शब्द तथा जो कुछ (अर्थ) कहा जाता है वह भी श्रभिलाप कहलाता है ( बौद्धमतानुसार ) । श्रभिवद्धितमास - १. श्रभिवड्ढि इक्कतीसा चउari भागस्यं च तिगहीणं । भावे मूलाहजुप्रो पगयं पुण कम्ममासेणं !! ( बृहत्क. ११३०) । २. अभिवो य मासो एकत्तीस भवे ग्रहोरता । भागसयमेगवीसं चउवीस-सएण छेएणं ॥ ( ज्योतिष्क. २- ३९ ) । ३. एकत्रिंशद् दिनानि एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तरशत भागानाम् (३११३४) अभिवद्धितमास: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४ - १५ ) । ४. ग्रभिद्वितो नाम मुख्यतः त्रयोदश चन्द्रमासप्रमाणः संव त्सरः परं तद्द्वादशभागप्रमाणो मासोऽप्यवयवे समुदयोपचाराद् श्रभिवद्धितः । स चैकत्रिंशदहोरात्राणि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागीकृतस्य चाहोरात्रस्य त्रिकहीन चतुर्विंशं शतं भागानां भवति । ( बृहत्क. बृ. गा. ११३० ) । ५. तथा हि- श्रभिवर्धितमासस्य दिनपरिमाणमेकत्रिंशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं भागानाम् ग्रहोरात्राश्च XX X 1 ( व्यव. भा. मलय. वृ. २- १८, पृ. ७) । २ इकतीस दिन-रात और एक दिन के एक सौ चौबीस भागों में से एक सौ इक्कीस भाग प्रमाण ( ३११२४) कालको श्रभिवर्धित मास कहते हैं । अभिवर्द्धत संवत्सर - १. अभिवधितो मुख्यतः त्रयोदश- चन्द्र मासप्रमाणः संवत्सरः । (बृहत्क. वृ. ११३० ) । २. तेरस य चंदमासा एसो अभिवढियो उ नायव्वो । ( ज्योतिष्क २ - ३६) । ३· नाम इच्च-तेय तविया खण-लव दिवसा 'उऊ' परिण मंति। पूरेइ णिण्णथलए तमाहु अभिवड्ढियं जाण ( णाम ) | ( सूर्य प्र. ५८ ) । ४. अभिवर्धितसंवत्सरे च एकैकस्मिन् ग्रहोरात्राणां त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा ग्रहोरात्रस्य । (सूर्यप्र. बृ. १०, २०, ५६); तिन्नि ग्रहोरतसया तसीई चेव होइ अभिवड्ढी । चोयालीस भागा बावट्टकरण एण । ( सूर्यप्र. वृ. १०, २०, ५७ उ.); त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि ११५, जैम-लक्षणावलो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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