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________________ अप्रसेनिकाकुशील] १०६, जैन-लक्षणावली [अबुद्धजागरिका एसा अप्पसत्थोवसामणा त्ति भण्णदे। (जयध.-क. सव्वेसिमजोगिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया । पा. पु. ७०८ का टिप्पण २)। (घव. पु. ७, पृ. ८)। किन्हीं कर्म-परमाणोंका बाझ और अन्तरंग कारणों जो सिद्ध जीव बन्ध के कारणों से रहित होकर के वश तथा किन्हीं का उदीरणा के वश उदय में न मोक्ष के कारणों से संयुक्त हैं वे, तथा मिथ्यात्वादि पाना, इसका नाम अप्रशस्तोपशामना है। इसी को सभी बन्धकारणों से रहित अयोगी जिन भी दूसरे नाम से प्रगुणोपशामना भी कहा जाता है। प्रबन्धक हैं। प्रप्रसेनिकाकुशील - कश्चिदप्रसेनिकाकुशीलः अबला-अबल त्ति हादि जं से ण दढं हिदयम्मि विद्याभिमंत्रौषधप्रयोगैर्वा ऽसंयतचिकित्सां करोति, धिदिबलं अस्थि । (भ. प्रा. ९८०)। सोऽप्रसेनिकाकुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. टी. जिसके हृदय में दृढ़ धैर्यबल न हो उसे अबला १९५०)। कहते हैं। जो साधु विद्या, मंत्र और औषधि के द्वारा असंयमी प्रबहश्रुत-बहुश्रुतो नाम येनाऽऽचारप्रकल्पाध्यजनों की चिकित्सा करता है उसे अप्रसेनिका-कुशील यनं नाधीतम, अधीतं वा विस्मारितम्। (बहत्क. कहते हैं। वृत्ति ७०३)। अप्रामाण्य -- xxx अर्थान्यथात्वपरिच्छेदसा- जिसने प्राचारकल्प का अध्ययन नहीं किया, अथवा मर्थ्यलक्षणाप्रामाण्यस्य (अप्रामाण्यस्य लक्षणं ह्या- पढ़ करके भी उसे भुला दिया है, ऐसे व्यक्ति को न्यथात्वपरिच्छेदसामर्थ्यम्)XXX। (प्र. क. मा. अबहुश्रुत कहते हैं। पृ. १६३ पं. १३)। अबाधा, अबाधाकाल-देखो आबाधा । १. होई अर्थ के अन्यथापन के-जैसा कि वह है नहीं वैसा अबाहकालो जो किर कम्मस्स अणउदयकालो। -जानने के सामर्थ्य का नाम अप्रामाण्य है। शतक. भा. ४२, पृ. ६७)। २. ततश्च सप्ततिः तात्पर्य यह कि पदार्थ के जानने में जो यथार्थता सागरोपमानां कोटीकोटयो मोहनीयस्योत्कृष्टा का प्रभाव होता है उसे अप्रामाण्य समझना स्थितिर्भवति । अत्र च सप्तवर्षसहस्राणि कर्मणोचाहिए। ऽनुदयलक्षणाऽबाधा द्रष्टव्या । बद्धमपीत्थमेतत् कर्म अप्रिय वचन-१. अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैर- सप्तर्षसहस्राणि यावद्विपाकोदयलक्षणां बाधां न शोक-कलहकरम् । यदपरमपि तापकर परस्य तत्सर्व करोतीत्यर्थः । (शतक. मल. हेम. व. ५१, पृ. ६५)। मप्रियं ज्ञेयम् ।। (पु. सि. १८) । २. कर्कश-निष्ठुर- बंधने के पश्चात् भी कर्म जितने समय तक बाधा भेदन-विरोधनादिबहभेदसंयुक्तम् । अप्रियवचनं नहीं पहुंचाता-उदय में नहीं पाता है-उतना प्रोक्तं प्रियवाक्यप्रवणवाणीकैः ।। (अमित. श्रा. समय उसका अबाधाकाल कहलाता है। ६-५४)। अबाधितविषयत्व- साध्यविपरीतनिश्चायकप्रब२ कर्कश, निष्ठर, दूसरे प्राणियों का छेदन भेदन लप्रमाणरहितत्वमबाधितविषयत्वम् । (न्या. दी. पृ. करने वाले और विरोध को उत्पन्न करने वाले ८५)। वचनों को अप्रिय वचन कहते हैं। साध्य से विपरीत के निश्चायक प्रबल प्रमाण के अबद्धश्रुत-बद्धमबद्धं तु सुग्रं बद्धं तु दुवालसंग प्रभाव को अबाधितविषयत्व कहते हैं । निद्दिट्ट। तव्विवरीयमबद्धंxxx॥ (प्राव. नि. प्रबद्धजागरिका-जे इमे अणगारा भगवंतो इरि. १०२०)। यासमिया भासासमिया जाव गुत्तबंभयारी, एए णं द्वादशांग रूप बद्ध श्रुत से भिन्न श्रुत को प्रबद्धश्रुत अबुद्धा अबुद्धजागरिया जागरति । (भगवती सू. १२, कहते हैं। १, ११ पृ. २५५)। प्रबन्ध (प्रबन्धक)-१. सिद्धा प्रबंधा ॥७॥ ईर्यासमिति और भाषासमिति से युक्त गुप्त ब्रह्मबंधकारणबदिरित्तमोक्खकारणेहिं संजुत्तत्तादो । चारी-नौ ब्रह्मगुप्तियों (शीलवाढों) से संरक्षित (षट्वं. २, १, ७-धव. पु. ७, पृ. ८-६)। ब्रह्मचर्य के परिपालक---तक साधु प्रबुद्धजागरिका २. मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाण जागृत होते हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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