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________________ प्रनाभोगनिर्वतित कोप] ५६, जैन-लक्षणावली [अनालब्ध दोष अनाभोगनिर्वतित कोप-यदा त्वेवमेव तथाविध- अनायतन (अणाययण)-१. सम्यक्त्वादिगुणामुहूर्त्तवशाद् गुण-दोषविचारणाशून्यः परवशीभूय नामायतनं गृहमावास प्राश्रय पाधारकरणं निमित्तकोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिर्वतितः। (प्रज्ञा- मायतनं भण्यते, तद्विपक्षभूतमनायतनम् । (बृ. द्रव्यप. मलय. वृ. १४-१६६) । सं. टी. गा. ४१)। २. मिथ्याग्ज्ञानवृत्तानि त्रीणि उस प्रकारके महर्त के वश भले-बरे का विचार त्रीस्तद्वतस्तथा। पडनायतनान्याहस्तत्सेवां दङमलं किये बिना ही परवशता से क्रोध करने को प्रना- त्यजेत् ॥ (अन. प. २-८४)। ३. कुदेव-लिङ्गिभोगनिर्वतित कोप कहते हैं। शास्त्राणां तच्छितां च भयादितः । षण्णां समाश्रयो अनाभोगनिर्वर्तिताहार-तद्विपरीतो (अाभोग- यत्स्यात् तान्यनायतनानि षट् । (धर्मसं. श्रा. ४, निर्वतिताहारविपरीतो) अनाभोगनिर्वर्तितः, आहार- ४४)। ४. सावज्जमणाययणं असोहिठाणं कुशीलसंयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण यो निष्पाद्यते प्रावृट- सम्गि । एगट्ठा होति पया एए विवरीय आययणा ॥ काले प्रचुरतरमूत्राद्यभिव्यङ्गयशीतपुद्गलाहारवत् (अभि. रा. १, पृ. ३१०)। सोऽनाभोगनिर्वर्तितः। (प्रज्ञाप. मलय. व. २८, १ सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्राश्रय या प्राधार को ३०४)। आयतन कहते हैं। और इनसे विपरीत स्वरूप आहार की विशिष्ट इच्छा के बिना ही जिस किसी वाले मिथ्यादर्शनादि के प्राश्रय या प्राधार को अनाप्रकारके आहार के बनाने को अनाभोगनिर्वतित यतन कहते हैं। आहार (नारकियों का प्राहार) कहते हैं। जैसे अनार्य-१. ये सिंहला बर्बरका किराता गान्धारवर्षा काल में बहुत अधिक मूत्र प्रादि से व्यक्त काश्मीर-पुलिन्दकाश्च । काम्बोज-वाहीक-खसौद्रक होने वाला उष्ण पुद्गलों का पाहार। द्यास्तेऽनार्यवर्गे निपतन्ति सर्वे ॥xxx त्वनार्या अनाभोग बकुश-१. सहसाकारी अनाभोगबकुशः। विपरीतवृत्ताः ॥(वरांग.८, ३-४)। २. अनार्याः क्षेत्र(त. भा. सि. व. 8-४६)। २. शरीरोपकरण- भाषा-कर्मभिर्बहिष्कृताःXxयदि वा अविपरीतविभूषणयोः सहसाकारी अनाभोगबकुशः। (प्रव. दर्शनाः साम्प्रतक्षिणो दीर्घदर्श निनो न भवन्त्यनार्याः। सारो. टी. गा. ७२४) । ३. द्विविधविभूषणस्य (सूत्रकृ. शी. व. २, ६, १८)। ३. सग-जवण-सबरच सहसाकारी अनाभोगबकुशः । (धर्मसं. मान. बब्बर-काय मुरुंडोड गोण पक्कणया। अरबाग होण स्वो. टी. ३-५६, पृ. १५२) । रोमय पारस खस खासिया चेव ।। दंबिलय लउस सहसा बिना सोचे-बिचारे शरीर और उपकरण बोक्कस-भिल्लंध पुलिंद कुंच भमररुपा। कोवाय आदि के विभूषित करने वाले साधु को प्रनाभोग चीण चंचुय मालव दमिला कुलग्घा या ॥ केक्कय बकुश कहते हैं। किराय हयमुह खरमुह गय-तुरग-मिंढयमुहा य । अनाभोगिक-अनाभोगिकं विचारशून्यस्यैकेन्द्रिया- हयकन्ना गयकन्ना अन्नेऽवि अणारिया बहवे ।। (प्रव. देर्वा विशेषविज्ञानविकलस्य भवति । (योगशा. स्वो. सारो. १५८३-८५) । ४. पाराद् दूरेण हेयधर्मेम्यो विव. २-३)। याताः प्राप्ताः उपादेयधमरित्यार्याः, xxx विचारशन्य व्यक्ति के अथवा विशेष ज्ञान से रहित तद्विपरीता अनार्याः, शिष्टासम्मतनिखिलव्यवहारा एकेन्द्रियादि के जो विपरीत श्रद्धान होता है उसका इत्यर्थः । (प्रव. सारो. वृ. १५८५)। नाम अनाभोगिक मिथ्यात्व है। १ जिनका प्राचरण विपरीत है-निन्द्य है-वे अनाभोगित दोष-- अनालोक्याप्रमार्जनं कृत्वा अनार्य कहलाते हैं । वे कुछ ये हैं-सिंहल, बर्बरक, आदानं निक्षेपो वेति द्वितीयो भङ्गः। (भ. प्रा. किरात, गान्धार, काश्मीर, पुलिन्द, काम्बोज, विजयो. टी. ११९८)। २. अनालोक्याप्रमार्जनं बाहीक, खस और प्रौद्रक (पादि)। कृत्वा पुस्तकादेरादानं निक्षेपं वा कुर्वतोऽनाभोगिता- अनालब्ध दोष-१. उपकरणादिकं लप्स्येऽहमिति ख्यो द्वितीयो दोषः । (भ. प्रा. मूला. टी. ११९८)। बुद्धया यः करोति वन्दनादिकं तस्यानालब्धदोषः । बिना देखे और बिना शोधे पुस्तकादि को रखना। (मूला. वृ. ७-१०६) । २. क्रिया XXXअनालब्धं या उठाना, यह अनाभोगित नाम का दोष है। तदाशया। (अन. ध.८-१०६)। ३. अनालब्धं नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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