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________________ अधःप्रवृत्तकरण] ३७, जैन-लक्षणावली [अधःप्रवृत्तसंक्रम ६. एतैः (प्रारम्भोपद्रव-विद्रावण-परितापनः) चतु- अंतोमुत्तमेत्तसमयपंतिमुड्ढायारेण ठएदूण टुविय भिर्दोषनिष्पन्नमन्नमतिनिन्दितमधःकर्म । (भ तेसिं समयाणं पायोग्गपरिणामपरूवणं कस्सामोटो.९६) पढमसमयपाप्रोग्गपरिणामा असंखेज्जा लोगा, अधा१ उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और प्रारम्भ पवत्तकरणविदियसमयपायोग्गा वि परिणामा असंइन कार्यों से उत्पन्न-उनके प्राश्रयभूत-प्रौदा- खेज्जा लोगा। एवं समयं पडि अधापवत्तपरिणारिक शरीर को अधःकर्म कहा जाता है। २ अध:- माणं पमाणपरूवणं कादव्वं जाव अधापवत्तकरणकर्म दो प्रकारका है-द्रव्य अधःकर्म और द्धाए चरिमसमग्रो त्ति । पढमसमयपरिणामेहितो भाव अधःकर्म। पानी आदि में छोड़ी गई वस्तु विदियसमयपापोग्गपरिणामा विसेसाहिया। विसेसो (पाषाण प्रावि) स्वभावत. अपने भार से नीचे पुण अंतोमुहत्तपडिभागियो। विदियसमयपरिणामेजाती है, अथवा नसैनी या रस्सी के सहारे जो हिंतो तदियसमयपरिणामा विसेसाहिया । एवं नीचे उतरते हैं; यह द्रव्य अधःकर्म है। असंख्यात णेयव्वं जाव अधापवत्तकरणद्धाए चरिमसमग्रो त्ति । संयमस्थानों के समुदाय रूप संयमकाण्डक, छह (धव. पु. ६, पृ. २१४-२१५) स्थानकों की संयमणि, लेश्या और सातावेदनीय प्रथम समय के योग्य अधःप्रवृत्त-परिणामों की प्रादि पुण्य प्रकृतियों सम्बन्धी स्थितिविशेष; इनसे । अपेक्षा द्वितीय समय के योग्य परिणाम अनन्तगुणे सम्बन्धित विशुद्ध व विशुद्धतर स्थानों में वर्तमान विशुद्ध होते हैं, इनकी अपेक्षा तृतीय समय के योग्य साधु चूंकि प्राधाकर्म का उपभोग करता हुआ परिणाम अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं, इस प्रकार अपने भाव को-अध्यवसाय को-नीचे करता है- अन्तर्मुहूर्त के समयों प्रमाण उन परिणामों में होन से हीनतर स्थानों में करता है, अतएव उस समयोत्तरक्रम से अनन्तगुणी विशुद्धि समझना प्राधाकर्म को प्रधःकर्म कहा जाता है। चाहिए। अधःप्रवृत्तकरण (अधापवत्तकरण)-१. एदासि । अधःप्रवृत्तसंक्रम (प्रहापवत्तसंकम)-१. बंधे विसोधीणमधापवत्तलक्खणाणमधापवत्तकरणमिदि अहापवित्तो परित्तियो वा प्रबंधे वि। (कर्मप्र. सण्णा । कुदो ? उवरिमपरिणामा अध हेद्रा हेट्रि- संक्रम. गा. ६६, प. १८४) । २. अहापवत्तसंकमो मपरिणामेसु पवत्तंति त्ति अधापवत्तसण्णा । (धव. णाम संसारत्थाणं जीवाणं बंधणजोग्गाणं कम्माणं पु. ६, २१७) । २. जम्हा हेट्रिमभावा उवरिम- बज्झमाणाणं अबज्झमाणाणं वा थोवातो थोत्रं बहुभावेहिं सरिसगा हुंति । तम्हा पढमं करणं अघाप- गाओ बहुगं बज्झमाणीसु य संकमणं । (कर्मप्र. चू. वत्तो ति णिट्॥ि (गो. जी. ४८; ल. सा. ३५)। संक्रम. गा. ६६, पृ. १०६) । ३. बंधपयडीणं सग३. अथ प्रागप्रवृत्ताः कदाचिदीदशाः करणा: परिणामा बंधसंभवविसए जो पदेससंकमो सो अधापवत्तसंकमो यत्र तदथाप्रवृत्तकरणम् । अधस्थैरुपरिस्थाः समानाः त्ति भण्णदे । (जयध. भा. ६, पृ. १७१)। ४. ध्रुवप्रवृत्ताः करणा यत्र तदधःप्रवृत्त करणमिति चान्वर्थ- बधिनीनां प्रकृतीनां बन्धे सति यथाप्रवत्तसंक्रमः संज्ञा ।। (पंचसं. अमित. १, पृ. ३८)। ४. अधःप्रध- प्रवर्तते । XXX इयमत्र भावना-सर्वेषामपि स्तनसमये वृत्ताः प्रवृत्ता इव करणाः उपरितनसमय- संसारस्थानामसुमतां ध्रुवबन्धिनीनां बन्धे, परावर्त. वतिविशुद्धिपरिणामा यस्मिन् सन्ति स अधःप्रवृत्त- प्रकृतीनां तु स्व-स्वभवबन्धयोग्यानां बन्धेऽबन्धे वा करणः । (गो. जी. म. प्र.टी. २४८)। यथाप्रवृत्तसंक्रमो भवति। (कर्मप्र. मलय.व. संक्रम. २ अधःप्रवृत्तकरण परिणाम वे कहलाते हैं जो अधस्तन ६६, पृ. १८४-८५) । ५. बन्धप्रकृतीनां स्वबन्धसमयवर्ती परिणाम उपरितन समयवर्ती परिणामों सम्भवविषये यः प्रदेशसंक्रमस्तदधःप्रवृत्तसंक्रमण के साथ कदाचित् समानता रखते हैं । उनका दूसरा नाम । (गो. क. जी. प्र. टी. ४१३) । नाम प्रथाप्रवृत्तकरण भी है। ये परिणाम अप्रमत्त- १, ४ संसारी जीवों के ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का संयत गुणस्थान में पाये जाते हैं। उनके बन्ध के होने पर, तथा स्व-स्व-भवबन्धयोग्य अधःप्रवृत्तकरणविशुद्धि-तत्थ अधापवत्तकरण- परावर्तमान प्रकृतियों का बन्ध या प्रबन्ध की दशा सण्णिदविसोहीणं लक्खणं उच्चदे। तं जधा- में भी जो प्रदेशसंक्रम-परप्रकृतिरूप परिणमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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