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________________ अतिमात्र पाहारदोष] २६, जैन-लक्षणावली अतीतकाल न्याय्य भार से-जिसे वे स्वाभाविक रूप से ढो व्याप्तम्, यथा तस्यैव (गोरेव) पशुत्वम्। (न्यायसकें-अधिक लादने को अतिभारारोपण कहते हैं। दीपिका पृ. ७) ।। अतिमात्र-माहारदोष-१. अतिमात्र पाहार:-प्रश- २ लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिनस्य सव्यंजनस्य [द्वौ,] तृतीयभागमुदकस्योदरस्य यः व्याप्ति दोष कहते हैं । पूरयति, चतुर्थभागं चावशेषयति यस्तस्य प्रमाणभूत अतिशायिनीत्व- अत्रातिशायनीत्वमाश्रयभेदव्याआहारो भवति । अस्मादन्यथा यः कुर्यात्तस्याति- पारप्रयुक्ताल्पाल्पतर-बहु - बहुतरप्रतियोगिकत्वम् । मात्रो नामाहारदोषो भवति । (मूला. वृ. ६-५७)। (प्रष्टस. यशो. वृ. १-४, पृ. ६२)। २. सव्यञ्जनाशनेन द्वौपानेनैकमंशमुदरस्य । भृत्त्वा- प्राश्रय के भेद से होने वाले व्यापारविशेष की ऽभृतस्तृतीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमलः ।। (अन. अल्प से अल्पतर या बहु से बहुतर प्रतियोगिकता ध. ५-३८)। को अतिशायिनीत्व कहते हैं। १ साधु अपने उदर के दो भागों को व्यंजन (दाल अतिसंग्रह--इदं धान्यादिकमग्रे विशिष्टं लाभ पादि) सहित अन्न से और एक भाग को पानी से दास्यतीति लोभावेशादतिशयेन तत्संग्रहं करोति । भरे तथा चौथे भाग को खाली रखे। इससे अधिक (रत्नक. टी. ३-१६)। भोजन-पान करने पर अतिमात्र पाहार नामका यह धान्यादिक आगे विशिष्ट लाभ देगा, इस प्रकार दोष होता है। लोभ के आवेश से उनका अतिशय संग्रह करना; अतिलोभ-विशिष्टेऽर्थे लब्धेऽप्यधिकलाभाकाङ्- यह अतिसंग्रह नामका अतिचार है। क्षाऽतिलोभः । (रत्नक. टो. ३-१६)। प्रतिस्थापना (अइच्छावणा, प्रइट्ठावणा, अदित्थाविशेष अर्थ का लाभ होने पर भी और अधिक लाभ वणा)-१. तमोक्कडिय उदयादि जाव प्रावलियतिको आकांक्षा करना, यह परिग्रहपरिमाण अणुवत भागो ताव णिक्खिवदि । प्रावलिय-व-तिभागमेत्तका अतिलोभ नामका अतिचार है। मुवरिमभागे अइच्छावइ। तदो प्रावलियतिभामो प्रतिवाहन-लोभातिगृद्धिनिवृत्त्यर्थं परिग्रहपरि- णिक्खेवविसो, प्रावलिय-बे-तिभागा च अइच्छामाणे कृते पुनर्लोभावेशवशादतिवाहनं करोति. यावन्तं हि मार्ग बलीवदयः सुखेन गच्छन्ति ततो- द्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, Xxxतेनातिक्रम्यऽतिरेकेण वाहनमतिवाहनम् । (रत्नक. टी. ३-१६)। माणं स्थानं प्रतिस्थापनम् Xxx (ल. सा. टी. लोभ व अतिशय गद्धि के हटाने के लिये परिग्रह ५६)। का परिमाण कर लेने पर भी पुनः लोभ के वश से जिन निषेकों में अपकर्षण या उत्कर्षण किये गये बैल व घोड़े प्रादि को उनकी शक्ति से अधिक दूर द्रव्य का निक्षेप नहीं किया जाता है उनका नाम तक ले जाना, यह अतिवाहन नामका अतिचार है। प्रतिस्थापना है। ऐसे निषेक उदयावलि के दो प्रतिविस्मय-तत्-(संग्रह-) प्रतिपन्नलाभेन विक्रीते त्रिभाग मात्र होते हैं। तस्मिन् मूलतोऽप्यसंगृहीते वाऽधिकेऽर्थे तत्क्रयाणकेन अतिस्निग्धमधुरत्व-१. अतिस्निग्धमधुरत्वं अमृतलब्धे लोभावेशादतिविस्मयं विषादं करोति । गुडादिवत् सुखकारित्वम् । (समवा. अभय. वृ. ३५, (रत्नक. टी. ३-१६)। पृ. ६३)। २. अतिस्निग्ध-मधुरत्वं बुभुक्षितस्य घृतकिसी संगृहीत वस्तु को एक नियत लाभ लेकर गुडादिवत् परमसुखकारिता ॥(रायप. टी. पृ. १६)। बेच देने के पश्चात् उसका भाव बढ़ जाने पर २ भखे व्यक्ति को घी-गड़ आदि के समान प्रतिशय अधिक लाभ से वंचित रहने का विषाद करना, सुखकारी वचनादि की प्रवृत्ति का नाम अतिस्निग्धयह अतिविस्मय नामका परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का मधुरत्व है। अतिचार है। अतीत काल-१. णिप्फण्णो ववहारजोग्गो अदीदो प्रतिव्याप्ति दोष-१. अलक्ष्ये वर्तनां प्राहरति- णाम । (धव. पु. ३, पृ. २६)। २. यस्तु तमेव व्याप्तिं बुधाः यथा । गुण आत्मन्यरूपित्वमाकाशादिषु विवक्षितं वर्तमान समयमवधीकृत्य भूतवान् समयदृश्यते ।। (मोक्षपं. १५)। २. लक्ष्यालयवर्त्यति- राशिः सोऽतीतः । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. १-७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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