SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ८१ प्रकृत अपरिगृहीतागमन प्रतिचार के विषय में सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक श्रादि के कर्ताओं ने अपरिगृहीता शब्द से सामान्यतः पर पुरुष से सम्बन्ध रखनेवाली वेश्या या स्वामी से रहित अन्य दुराचारिणी स्त्री को ग्रहण किया है । परन्तु हरिभद्र सूरि आदि ने उसमें एक विशेषण और जोड़कर जिसने किसी दूसरे में प्रासक्त होकर उसका भाड़ा ले लिया है ऐसी वेश्या अथवा श्रनाथ - स्वामिविहीन - कुलांगना को ग्रहण किया है। इसका यह अभिप्राय हुआ कि यदि कोई ब्रह्मचर्याणुव्रती किसी वेश्या अथवा स्वामिरहित अन्य किसी स्त्री के साथ समागम करता है तो सर्वार्थसिद्धि आदि के मत से यह उसके व्रत को दूषित करनेवाला प्रतिचार होगा । किन्तु हरिभद्र सूरि प्रादि के मत से वह अतिचार नहीं होगा, वह अतिचार उनके मत से तभी होगा जब कि उसने किसी दूसरे का भाड़ा ले लिया हो । प्रतिपाती (अवधि) तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपाती और अप्रतिपाती के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो देशावधि विद्युत्प्रकाश के समान विनष्ट होनेवाला है उसे प्रतिपाती और इसके विपरीत को जो विद्युत्प्रकाश के समान नष्ट होनेवाला न हो - प्रप्रतिपाती कहा जाता है । धवला में इसे कुछ और विशद करते हुए कहा गया है कि जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर नष्ट होता है, उसके पूर्व में नष्ट नहीं होता; उसका नाम श्रप्रतिपाती है । देवेन्द्रसूरि द्वारा विरचित कर्मविपाक की स्वोपज्ञ वृत्ति में उसका स्वरूप कुछ भिन्न इस प्रकार कहा गया है - जो प्रतिपतित न होकर अलोक के एक प्रदेश को भी जानता है वह श्रप्रतिपाती कहलाता है । लोकप्रकाश में भी उसका यही लक्षण कहा गया है । श्राचार्य मलयगिरि ने उसके लक्षण का निर्देश करते हुए प्रज्ञापना की वृत्ति में कहा है कि जो केवलज्ञान अथवा मरण के पूर्व नष्ट नहीं होता उसे श्रप्रतिपाती कहा जाता है । अव्यक्त दोष- यह दस आलोचनादोषों में नौवाँ है | भगवती श्राराधना ( ५६८- ६०० ) में इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो ज्ञानबाल और चारित्रबाल के पास श्रालोचना करता हुआ यह समझता है कि मैंने सबकी आलोचना कर ली है उसकी यह प्रालोचना अव्यक्त नामक नौवें श्रालोचनादोष से दूषित होती है । कारण यह है कि वैसी आलोचना परिणाम में हानिप्रद है । जिस प्रकार कोई अज्ञानी सुवर्ण जैसे दिखनेवाले किसी पदार्थ को यथार्थ सुवर्ण समझकर ग्रहण करता है, पर उसका उपयोग अभीष्ट वस्तु के ग्रहण में नहीं होता है, तथा दुष्ट के साथ की गई मित्रता जि प्रकार परिणाम में अहितकर होती है, उसी प्रकार अल्पज्ञ के समक्ष कारण न होकर अनर्थकारक ही होती I की जानेवाली श्रालोचना शुद्धि का अनुमानित दोष के प्रसंग में यह पूर्व में कहा जा चुका है कि तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्त श्लोक - वार्तिक में इन दोषों के नामों का निर्देश नहीं किया गया, उनके लिए केवल सख्या शब्दों - प्रथम व द्वितीय आदि शब्दों का ही निर्देश किया गया है । प्रकृत (अव्यक्त) दोष वहां नौवां विवक्षित रहा है या दसवां, यह निश्चय नहीं किया जा सका। वहां नौवें और दसवें दोषों के लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं— ६ किसी प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर जो साधु अपने ही समान है उसके पास प्रमाद से किये गये अपने प्रसदाचरण का निवेदन करके यदि गुरुतर भी प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है तो भी वह निष्फल होता है, यह नौवां आलोचना दोष है । १० इसके अपराध से मेरा अपराध समान है, उसे यही जानता है; श्रत: इसे जो प्रायश्चित्त दिया गया है वही मेरे लिये भी शीघ्रता से कर लेना चाहिये, ऐसा विचार करते हुए प्रायश्चित्त लेना; यह दसवां दोष है । चारित्रसार में अनेक विषयों का विवेचन केवल तत्त्वार्थवार्तिक के प्राधार से ही नहीं, बल्कि कहीं कहीं तो उसी के शब्दों व वाक्यों में किया गया है । प्रकृत अव्यक्त दोष का लक्षण यहां तत्त्वार्थवार्तिककार के शब्दों में ही व्यक्त किया गया है । यहाँ इतना विशेष है कि 'नवम' शब्द के साथ उसका अव्यक्त नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy