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________________ ७०२ संक्षिप्त प्राकृत-हिन्दी कोष वंसिअ-वग्ग वंसिअ वि [वांशिक] वंश-वाद्य बजानेवाला। | वक्किद (शौ) देखो वंकिअ। वंसिअ वि [व्यंसित] छलित । वक्ख देखो वच्छ = वृक्ष । वंसी स्त्री [वांशी] सुरा-विशेष । बाँस की वक्ख देखो वच्छ = वक्षस् । जाली । °कलंका स्त्री [°कलङ्का) बाँस की °वक्ख देखो पक्ख। जाली की बनी हुई बाड़ । पत्तिया स्त्री वक्खमाण वय = वच् का वकृ. । [°पत्रिका] वंशजाली के पत्र के आकार की वक्खल वि [दे] आच्छादित । योनि । वक्खा सक [व्या+ख्या] विवरण करना । वंसी स्त्री [वंशीमुरली । °णहिया स्त्री | कहना। [°नखिका] वनस्पति-विशेष । °मुह पुं| वक्खा । स्त्री [व्याख्या] विवरण, विशद [°मुख] द्वीन्द्रिय जीव-विशेष । वक्खाण रूप से अर्थ-प्ररूपण । न वंसी स्त्री [वंश बाँस । °मूल न. बाँस की व्याख्यान] । वक्खाण सक [व्याख्यानम्] विवरण करना । वंसी स्त्री [दे] मस्तक पर स्थित माला । कहना। वक्क न [वाक्य] पद-समुदाय । वक्खाय वि [व्याख्यात] वर्णित । पुं. मोक्ष । वक्क न [वल्क] त्वचा, छाल । °बंध पुं वक्खार पुंदे] बखार । गोदाम । [°बन्ध] वल्क-बन्धन । वक्खार पुं [वक्षार, वक्षस्कार] गज-दन्त के वक्क देखो वंक = वंक । आकार का पर्वत । भू-भाग । वक्क न [वक्त्र] मुख । वक्खारय न [दे] रति-गृह । अन्तःपुर । वक्खाव सक [व्या+ख्यापय] व्याख्यान वक्क न [दे] पिसान, आटा । कराना। वक्कंत पुन [वक्रान्त] प्रथम नरक-भूमि का दसर्वां नरकेन्द्रक-नरकावास-विशेष । वक्खित्त वि व्याक्षिप्त] व्यग्र । किसी कार्य वक्त वि [अवक्रान्त] उत्पन्न । में व्याप्त । वक्कंति स्त्री [अवक्रान्ति] उत्पत्ति । वक्खेव पुं [व्याक्षेप] व्यग्रता । कार्यबाहुल्य । वक्कड न [दे] दुर्दिन । निरन्तर वृष्टि । वक्खेव पुं [अवक्षेप] प्रतिषेध । वक्कडबंध न [दे] कर्णाभरण । वक्खो देखो वच्छ = वक्षस् । रुह पुं. वक्कम अक [अव+क्रम्] उत्पन्न होना । स्तन । वक्कर (अप) देखो वक्क = वंक । वक्नु (शौ) देखो वंक = वङ्क । वक्कल न [वल्कल] वृक्ष की छाल । चीरि वखाण (अप) देखो वक्खाण बखाण । पुं["चीरिन्] एक महर्षि, राजा प्रसन्नचन्द्र के वगडा स्त्री [दे] बाड़, परिक्षेप । छोटे भाई। वग्ग अक [वल्ग] जाना, गति करना। वक्कलि । वि [वल्कलिन्] वृक्ष की छाल कूदना । बहु-भाषण करना । अभिमान-सूचक वक्कलिण ) पहननेवाला (तापस)। शब्द करना। वक्कल्लय वि [दे] पुरस्कृत । वग्ग पुं [वर्ग] सजातीय समूह । दो समान वक्कस न [दे] पुराना धान का चावल । संख्या का परस्पर गुणन । अध्ययन, सर्ग । पुरातन सक्तु-पिण्ड । बहुत दिनों का बासी | "मूल न.गणित-विशेष, जैसे १६ का वर्गमूल गोरस । गेहूँ का मांड। ४। वग्ग पुं[°वर्ग] गणित-विशेष, वर्ग से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016020
Book TitlePrakrit Hindi kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages910
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size19 MB
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