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________________ (८) हो रही है, और जिससे विद्वान सजन स्वयं परिचिन भी हैं । व्यासजी ने महाभारत के श्रादि में ठीक कहा है "विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिप्यति"। उपरोक्त से यह प्रत्यक्ष ही है कि कोष की अनुपलब्धि के कारण प्राचीन भारत का गौरवयुक्त इतिहास प्रायः सर्व साधारण के लिये भवतक प्रकाशित नहीं हुआ है और इसके बिना भारत की प्राचीन सभ्यता का दिग्दर्शन होना असंभवसा ही है । __ अर्ध-मागधी का महत्व प्रायः जैन साहित्य में भरा पड़ा है । इन्हीं परम उपयोगी सद्ग्रन्थों के अध्ययन करते समय मेरे पूज्य पिताजी तथा उनके एक मित्र की दृष्टि पाश्चिमात्य विद्वानों के जैन सूत्रों के अंग्रेजी अनुवाद पर पड़ी और उनको यह प्रतीत हुश्रा कि इन परिश्रमशील कुशाग्र-बुद्धि विद्वानों ने भी साम्प्रदायिक शब्दों के अर्थ से नितान्त अनभिज्ञ होने के कारण विपरीत अर्थ लिख डाले हैं । उदाहरणार्थ-पाश्चास्य प्रखर विद्वान और प्रख्यात पण्डित प्रसिद्ध जर्मन डॉ. हरमन जेकोबी जो जैन साहित्य के प्रौढ पण्डित होने के कारण अाज भारतवर्ष में "जैनरत्नदिवाकर" नाम से प्रख्यात है, प्राचारांग श्रादि सूत्रों का जो अंग्रेजी अनुवाद कुछ वर्ष पूर्व किया था उसमें कितने ही शब्दों का जैन सिद्धान्त से विपरीत और भ्रमात्मक अर्थ कर डाला, जिससे जैन समाज में एक प्रकार का क्षोभ उत्पन्न हो गया और जिसकी दुःखमय स्मृति अभी तक लोगों के हृदय पटल से नहीं हटी है । इस प्रकार साम्प्रदायिक शब्दों को जानने के साधनों के प्रभाव के कारण साहित्य सम्बन्धी और धार्मिक बहुत कुछ हानि हो चुकी है और हो रही है । ऐसी घटनामों को देखकर ऐसा त्रुटियों के संशोधन के हेतु, यथार्थ भाव प्रकट करने के लिये कोष के समान अनुपम साधन की अतीव अावश्यकता प्रतीत होने लगी और उसके सम्पादन की उत्कट इच्छा दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी । इस दशा में मेरे पूज्य पिताजी ने सन १६१० ईसवी में जैन सूत्रों से शब्द संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया और स्वल्प समय में ही लगभग १४००० शब्दों का संग्रह भी कर लिया। इसी समय इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. स्वाली ने इसी प्रकार का एक कोष निर्माण करने की इच्छा श्री श्वेताम्बर जैन कॉन्फरन्स को प्रकट की। जब यह बात मेरे पूज्य पिताजी केसरीचन्दजी भंडारी को ज्ञात हुई तब उन्होंने यह विचार करके कि ये माननीय विद्वान स्वाली महोदय इस महत्वपूर्ण कार्य को अधिक सुयोग्यता और दपता से सम्पादन कर सकेंगे, अपनी सग्रह की हुई शउदावली उक्त कॉन्फरन्स को डॉ० स्वाली महोदय की सेवा में भेजने के लिये समर्पण कर दी। समय के फेर से यूरोप में भीषण महायुद्ध प्रारम्भ हो गया तथा अनेक ऐसे कारण उपस्थित हो गये जिससे यह कोष उक्त महोदय द्वारा सम्पादित न हो सका । मेरे पिताजी के अनुरोध से श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फरन्स ने इस कार्य में अभिरुचि प्रकट की तथा व्यय श्रादि की मंजूरी देकर पूर्ण सहायता एवं सहानुभूति प्रकट की। तथापि विद्वानों की सहायता तथा अन्य साधनों की अनुपस्थिति के कारण कोष का महान् कार्य यथेष्ट रूप से उमति न कर सका । पिताजी कोष को सुव्यवस्थित रीति से और शीघ्रतासे सम्पादन करने की उग्र चिन्ता में ही थे कि इतने में उन्हें कार्यवश बंबई जाना पड़ा और वहां शतावधानी पण्डित मुनिवर श्री रत्नचन्द्रजी स्वामी के शुभ दर्शनों का सुअवसर प्राप्त हुआ । मुनिजी की प्रख्यात विद्वत्ता और सामयिक दर्शन का उपयोग पूज्य पिताजी ने पूर्ण रूप से किया और श्री स्वामी जी महाराज से कोष सम्पादन कार्य के वास्ते विनीत विनय किया, जिसको स्वनामधन्य रत्नचन्द्रजी महाराज ने कृपाकर स्वीकार कर लिया, और बहुत ही अल्प समय में सुचारु रूप से सम्पादन कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016013
Book TitleArdhamagadhi kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Maharaj
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1988
Total Pages591
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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