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________________ क्रमण ८. गुण श्रेणी निर्देश व्यतीत होते' उपरितन स्थितिका एक समय मिलाय गुणश्रेणि आयामका प्रमाण समय व्यतीत होते भी जेताका तैता रहै। तात अवस्थित कहिये तातें याका नाम उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है। ल.सा./वचनिका/२२/७ अवस्थित गुणश्रेणि आयामका प्रारम्भ करनेका प्रथम समय द्वितोयादि समयनिविर्षे गुणश्रेणि आयाम जैताका तेता रहै। ज्यू ज्यू एक एक समय व्यतीत होइ न्यू ल्यू गुणश्रेणि आयामके अनन्तरिवर्ती ऐसा उपरितन स्थितिका एक एक निषेक गुणश्रेणि आयाम विषै मिलता जाइ तहां अवस्थित गुणश्रेणि आयाम कहिये है। ९. गुणश्रेणी आयामोंका यन्त्र कम लिये अपस्थितादि आयाममें दिया जाता है उसका नाम गुणश्रेणी है। ४. गुणश्रेणी निर्जराका लक्षण गो. जी./भाषा/६७/१७४/११ उदयावलि काल के पीछे अन्तर्मुहूर्त मात्र जो गुणश्रेणिका आयाम कहिए काल प्रमाण ताविषं दिया हुआ द्रव्य सो तिस कालका प्रथमादि समयविर्षे जे पूर्व निषेक थे, तिनकी साथि क्रम” असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होइ निर्जरै है सो गुणश्रेणी निर्जरा ( है।) ५. गुणश्रेणी शीर्षका लक्षण ध.६/१,६-८,१२/२६९/११ सम्मत्तस्स चरिमदिखंडगे पढमसमय आगाइदे ओवट्टियमाणसु टिदिसु जं पदेसग्गसमुदए दिज्जदि तं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं । ताव असखेज्जगुणं जाब ट्ठिदिखंडयस्स जहणियाए वि दिदीए चरिमसमयं अपत्त' त्ति । सा चेव हिदी गुण से डी सीसयं जादा। -सम्यक्त्व प्रकृतिके अन्तिम स्थिति काण्डकके प्रथम समयमें ग्रहण करनेपर अवर्तन की गयी स्थितियोंमें-से जो प्रदेशाग्र उदयमें दिया जाता है, वह अल्प है, अनन्तर समयमें असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रौंको देता है। इस क्रमसे तब तक असंख्यात गुणित प्रदेशानोंको देता है जब तक कि स्थितिकाण्डककी जघन्य भी स्थितिका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है। यह स्थिति ही गुणश्रेणिशीर्ष कहलाती है। ल. सा./भाषा/१३५/१८६/५ गुणश्रेणि आयामका अन्तका निषेक ताको इहाँ गुणश्रेणि शीर्ष कहते हैं। उपरितन स्थिति पहला गुणश्रेणि आयाम अबका गुणश्रेणि आयाम उदयावलि सम्यक्त्व मोहनीयकी स्थिति अण्ट वर्षमात्रकरने कासमय ६. गुणश्रेणी आयामका लक्षण क्ष. सा./३६८/भाषा उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष रूप जो यह गुणश्रेणि आयाम है ता विषै अपकर्ष किया द्रव्यका निक्षेपण हो है। ७. गलितावशेष गुणश्रेणी आयामका लक्षण ल, सा./भाषा/१४३/१६८/२--उदयादि वर्तमान समय से लगाय यहाँ गुणश्रेणी आयाम पाइये तातै उदयादि कहिये, अर एक एक समय व्यतीत होते एक एक समय गुणश्रेणि आयाम विर्षे घटता जाय (उपरितन स्थितिका समय गुणश्रेणी आयाममें न मिले) तातै गलितावशेष कहा है। ऐसे गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम जानना। ल. सा./बच निका/२२/४ गलितावशेष गुणश्रेणीका प्रारम्भ करनेकौं प्रथम समय विर्षे जो गुण श्रेणि आयामका प्रमाण था, तामैं एकएक समय व्यतीत होते ताकै द्वितीयादि समयनिविर्षे गुण श्रेणि आयाम क्रमतें एक-एक निक घटता होइ अवशेष रहै ताका नाम गलितावशेष है । (ध. ६/१,६-८,६/२३० पर विशेषार्थ )। ८. अवस्थित गुणश्रेणि आयामका लक्षण ल. सा./जी. प्र./१३०/१७१/९ सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्ष स्थितिकरणसमयादूधर्वमपि न केवलमष्टवर्षमात्रस्थितिकरणसमय एवोदयाद्यवस्थितिगुणश्रेणिरित्यर्थः। -सम्यक्त्व मोहनीयकी अष्ट वर्ष स्थिति करनेके समयतें लगाय उपरि सर्व समयनिविर्षे उदयादि अवस्थिति गुण श्रेणि आयाम है। ल, सा./भाषा/१२८/१६६/१८...इहाँ नै पहिले (सम्यक्त्व मोहकी, क्षपणा विधानके द्वारा, अष्टवर्ष स्थिति अवशेष रखनेके समय ते पहिलै ) तो उदयावलि त बाह्य गुणश्रेणि आयाम था। अब इहाँ तै लगाइ उदयरूप वर्तमान समय से लगाइ ही गुणश्रेणि आयाम भया तात याको उदयादि कहिये । अर ( उदयादि गुण श्रेणी आयाम तै) पूर्वे तो समय व्यतीत होत गुणश्रेणि आयाम घटता होता जाता था, अब ( उदयाव लिमें-से) एक समय ( उदय विषै ) १०. अन्तरस्थिति व द्वितीय स्थितिका लक्षण क्ष. सा./भाषा/५८३/६६५/१६ ताके उपरिवर्ती (गुणश्रेणिके ऊपर) जिनि निषेकनिका पूर्वे अभाव किया था तिनका प्रमाण रूप अन्तरस्थिति है। ताकै उपरिवर्ती अवशेष सर्व स्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है। ११. गुणश्रेणि निक्षेपण विधान क्ष. सा./५८६/६६८-७०० का भावार्थ-प्रथम समय अपकर्षण किया द्रव्य ते द्वितीयादि समयनि विषै असंख्यात गुण द्रव्य लिये समय प्रतिसमय द्रव्यको अपकर्षण कर है और उदयावली विष, गुणश्रेणि आयाम विषै और उपरितन (द्वितीय) स्थिति विषै निक्षेपण करिये है। अन्तरायामके प्रथम स्थितिके प्रथम निषेक पर्यन्त गुणश्रेणि शीर्ष पर्यन्त तो असंख्यात गुणक्रम लिये द्रव्य दीजिये है, ताकै उपरि ( अन्तर स्थिति व द्वितीय स्थिति में ) संख्यातगुणा घटता द्रव्य दीजिये है। १२. गुणश्रेणी निर्जरा विधान ध. ६/१,६-८,५/२२४-२२७/५ उदयपयडीणमुदयावलियबाहिर टिठदद्विदीर्ण पदेसरगमोकडणभागहारेण खंडिदेयलंडं असंखेज्जलोगेण भाजिदेगभागं घेत्तूण उदए बहुगं देदि । विदियसमए विसेसहीणं देदि । एवं विमेसहीणं विसेसहीणं देदि जाव उदयावलियचरिमसमओ त्ति । "एस कमो उदयपयडीणं चैव, ण सेसाणं, तैसिमुदयावलियम्भतरे पडमाणपदेसग्गाभावा । उपल्लाणमणुदलाणं 'च पयडीणं पदेसग्गमुदयावलियमाहिरद्विदीसु द्विदमोकणभाराहारेण खंडिदेगरवंडं घेत्तूण उदयावलियबाहिरहिदिम्हि असंखेजसमयप्रबद्धे देदि। तदो उवरिमट्ठिदीए तत्तो असंखेज्जगुणे देदि । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ४-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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