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________________ श्रुतज्ञान III शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष III शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष १. भेद व लक्षण १. लोकोत्तर शब्द लिंगजके सामान्य भेद त. सु./१/२० श्रुतं...चनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ स. सि./१/२०/१२३/२ अङ्गबाह्य मङ्गप्रविष्टमिति ।१. श्रुतज्ञानके दो भेद-अंग बाह्य व अंग प्रविष्ट ये दो भेद हैं। (रा.वा./१/२०/११/ ७२/२३); (क. पा. १/१-१/९१७/२/१); (ध. १/१,१,२/६६/६); (ध.१/१,१,१११/३५७/८); (ध.१/४,१,४५/१८४/१२). २. अथवा अनेक भेद और बारह भेद हैं। ३. अंग सामान्य व विशेषके लक्षण १. अंग सामान्यकी व्युत्पत्ति ध.६/४,१,४५/१६३/६ अंगसुदमिदि गुणणामं, अङ्गति गच्छति व्याप्नोति त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायमित्यङ्गशब्द निष्पत्ते । अंगश्रुत यह गुणनाम है, क्योंकि, जो तीनों कालकी समस्त द्रव्य वा पर्यायौंको 'अङ्गति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है, इस प्रकार अंग शब्द सिद्ध हुआ है। गो. जी./जी, प्र./३५०/७४७/१७ अङ्ग्यते मध्यमपदैलक्ष्यते इत्यङ्ग ।। अथवा आचारादिद्वादशशास्त्रसमूहरूपश्रुतस्कन्धस्य अगं अवयव एकदेश आचाराद्य कैकशास्त्रमित्यर्थः।-'अङ्ग्यते' अर्थात् मध्यम पदोंके द्वारा जो लिखा जाता है वह अंग कहलाता है। अथवा समस्त श्रुतके एक एक आचारादि रूप अवयवको अंग कहते हैं। ऐसे अंग शब्दकी निरुक्ति है। २. अंग बाह्य व अंग प्रविष्ट रा.पा./१/२०/१२-१३/पृ./पंक्ति आचारादि द्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते (७२/२५) यद्गणधरशिष्यप्रशिष्यैरारातोयैरधिगतश्रुतार्थतत्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचन विन्यासं तदङ्गाबाह्यम् । (७/३)= आचारसंग आदि १२ प्रकारका ज्ञान अंगप्रविष्ट कहलाता है। (७२/२५) गणधर देवके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धि बलवाले प्राणियों के अनुग्रहके लिए अंगोंके आधारसे रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य हैं। दे. श्रुतज्ञान/II/९/३ पूर्व ज्ञानका लक्षण ! दे, अग्रायणी/अमायणीके लक्षणका भावार्थ । ३, अंग प्रविष्ट व अंग बाह्य के भेद १. अंगप्रविष्टके भेद स. सि./१/२०/१२३/३ अङ्गप्रविष्टं द्वादश विधम् । तद्यथा, आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायः व्याख्याप्रज्ञप्तिः ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययन, अन्तकृतदर्श अनुत्तरोपपादिकदशं प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिप्रवाद इति ।- अंगप्रविष्टके बारह भेद है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्यापाप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्न व्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । (रा. वा /१/२०/१२/७२/२६); (ध. १/१.१.२/88/१); (ध.४/१,४४/१९२६) (ध.६/४,१,४५/१९७१)(के. पा. १/१-२/ १८/२६/२); (गो.जी./मू-/३६६-३५७/७६०)। २. दृष्टिवादके पॉच भेद स.सि./१/२०/१२३/५ दृष्टिवादः पञ्चविधः-परिकर्म सुत्र प्रथमानुयोगः पूर्वगतं चूलिका चेति ।-दृष्टिवादके पाँच भेद हैं. परिकम, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । (रा. वा./१/२०/१३/७४/१०); (ह. पु./१०/६१); (घ, १/१,१,२/१०६/४); (ध. १/४,१,४०/२०४/ ११); (क. पा. १/१-१/१६/२६/५); (गो. जो./मू./३६१.३६२/ ७७२ )। ३. पूर्वगतके १४ भेद स. सि./१/२०/१२३/६ तत्र पूर्वगतं चतुर्दशविधम् - उत्पादपूर्व . आग्राय णीयं, वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवाई सत्यप्रवाद आरमप्रवादं कर्मप्रवाद प्रत्याख्याननामधेयं विद्या नुप्रवाद कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशाल लोकबिन्दुसारमिति ।- पूर्वगतके चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनारित प्रयाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल, और लोकबिन्दुसार। (रा. वा./१/२०/१२/७४/११); (ध. १/१,१,२/११४/8); (ध.१/४,१,४५//२१२/५); (क.पा.१/१-१/६२०/२६/७); (गो. जो./म् /३४५-३४६/७४१)। ४. चूलिकाके पाँच भेद ह.पु./१०/१२३ जलस्थलगताकाशरूपमायागता पुनः । चूलिका पञ्चधान्व र्थसंज्ञा भेदवती स्थिता ।१२३-चूलिका पाँच भेदवाली है-जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागता। ये समस्त भेद सार्थक भेदवाले हैं ।१२३। (ध. १/१,१,२/११६/१); (घ, १/४,१,४५॥ २०६/१०)। ५. अग्रायणी पूर्वके भेद ध, १/१,१,२/१२३/२ तस्स अग्गेणियस्स पंचविहो उवक्कमो, आणुपुवी णाम पमाणं वत्तबदा अत्थाहिचारो चेदि । अग्रायणीय पूर्वके पाँच उपक्रम हैं-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार । (ध.६/४,१,४५/२२६/६) । ६. अंग बाह्यके भेद रा. वा./१/२०/१४७८/६ तदङ्गबाह्यमनेकविधम्-कालिक मुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम् । अनियतकालमुत्कालिकम् । तदभेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेक विधाः । = कालिक, उत्कालिकके भेदसे अंग बाह्य अनेक प्रकारके हैं। स्वाध्याय काल में जिनके पठन-पाठनका नियम है उन्हे कालिक कहते हैं, तथा जिनके पठन पाठनका कोई नियत समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ अंगबाह्य अनेक प्रकार हैं। (स. सि./१/२०/१२३/२)। ध.१/१,१,१/१६/६ तत्थ अगबाहिरस्स चोद्दस अत्थाहियारा। तं जहा. सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणा पडिक्कमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरायणं कप्पव्यवहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीपं णिसि हियं चेदि । - अंगबाह्यके चौदह अर्थाधिकार हैं। वे इस प्रकार हैं - सामायिक, चतुर्विशतिःतव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वै नयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कलपव्यवहार, कलप्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धका । (ध.६/४.१,४/१८७/१२), (क. पा./१/१-१/६१७१२६/१), (गो. जी./मू./३६७-३६८/७८६) । ४. अंग प्रविष्टके भेदोंके लक्षण १. १२ अंगोंके लक्षण रा,वा./१/२०/१२/-७२/२८ से ७४/8 तक-आचारे चर्या विधान शुद्धयटकपञ्च समितित्रिगुप्तिविकल्प कथ्यते । सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना कतप्याकलप्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधमक्रियाः प्ररूप्यन्ते । स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते । समवाये सर्व पदार्थानां जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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