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________________ II अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश श्रुतज्ञान २. अर्थलिंगज निर्देश १. लब्ध्यक्षर ज्ञानका प्रमाण ध. १३/५,५,४८२६२/७ किमेदस्स पमाणं केवलणाणस्स अणं तिमभागो। -प्रश्न- इसका ( लब्ध्यक्षर अ तज्ञानका) प्रमाण क्या है। उत्तरइसका प्रमाण केवल-ज्ञानका अनन्तवाँ भाग है। पर्यायसमास नामका भूतज्ञान कहलाने लगता है, यह श्रुतज्ञान आवरणसे सहित है।१६। यह पर्याय-समास-ज्ञान अनन्तभागवृद्धि, असंख्यभाग वृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनन्तभाग हानि, असंख्यात भागहानि, एवं संख्यात भाग-हानिसे सहित हैं। पर्यायज्ञानके उपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुण वृद्धिके क्रमसे वृद्धि होते-होते जबतक अक्षर ज्ञान पूर्णता होती है तब तकका ज्ञान पर्याय समास ज्ञान कहलाता है। उसके बाद अक्षरसमासज्ञान प्रारम्भ होता है उसके ऊपर पद ज्ञान तक एक-एक अक्षर की वृद्धि होती है। इस वृद्धि प्राप्त ज्ञानको अक्षर-समास ज्ञान कहते हैं । अक्षर समासके बाद पदज्ञान होता है। १२०-२१ अर्थपद, प्रमाणपद, और मध्यम पदके भेदसे पद तीन प्रकारका है ।२२। इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह व सात अक्षर तकका पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षर रूप प्रमाण पद होता है और मध्यम पदमें सोलह सौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी अक्षर होते हैं, और अंग तथा पूर्वोके पदकी संख्या इसी मध्यम पदसे होती है ।२३-२४। एक अक्षरकी वृद्धिकर पद समास लेकर पूर्व-मास पर्यन्त समस्त द्वादशांग श्रुत स्थित है ।२६। (ध.१३/१,५,४८/२६२-२७१); (ध.६/१,६-१,१४/२१२५०); (गो.जी./म्./३२२-३४६) । २. लब्ध्यक्षर ज्ञान सदा निराकरण होता है ध. १३/५.१,४८/२६२७ एवं णिरावरण, 'असवरस्साणं तिमभागो णिच्चुग्धाडिओ' ति वयणादो एदम्मि आवरिदे जीवाभावप्पसंगादो वा। एदम्हि लद्धि अक्वरे सबजीवरासिणा भागे हिदे सम्बजीवरासीदो अणंतगुणणाणाविभागपडिच्छेदा आगच्छति । -यह (लन्यक्षर) ज्ञान निराकरण है, क्योंकि अक्षरका अनन्तवाँ भाग नित्य उद्घाटित (प्रगट ) रहला है। ऐसा आगम वचन है। अथवा इसके आवृत होनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशिका भाग देनेपर सब जीव राशिसे अनन्तगुणे ज्ञानाविभागप्रतिच्छेद होते हैं (१३/४,२,१४,४/४७६/५), (और भी दे. श्रु तज्ञान/II/१/३)। गो. जी./मू./३१६-३२० सुहमणिगोदअपज्जत्तस्स जादस्स पढमसम यम्हि । हवदि हु सबजहष्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ।३१६। सुहमणिगोद अपज्जत्तगेसु सगसंभवेतु भमिऊण । चरिमापुण्णतिवक्काणादिमकट्ठियेव हवे।३२० -सूक्ष्म निगोदिया लन्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसीको प्रायः लन्ध्यक्षर ज्ञान कहते हैं । इतना ज्ञान हमेशा निवारण तथा प्रकाशमान रहता है ।३१। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके अपने अपने जितने भव (६०१२ ) सम्भव हैं उनमें भ्रमण करके अन्तके अपर्याप्त शरीरको तीन मोड़ाओं के द्वारा ग्रहण करनेवाले जीवके प्रथम मोड़ा के समग्रमे सर्वजघन्य ज्ञान होता है। ४. उपरोक्त ज्ञानोंकी वह संज्ञाएँ क्यों ३. पर्याय आदि ज्ञानोंमें वृद्धि क्रम ध.६/५.६-१,१४/२७/७ कधमेदस्स अक्खरववएसो। ण, दबदपडि. म यक्वरुप्पण्णस्स उबयारेण अक्खरववएसादो। - प्रश्न-उक्त प्रकारके इस श्र तज्ञानकी 'अक्षर' ऐसी संज्ञा कैसे हुई । उत्तर-नहीं, क्योंकि, द्रव्य श्रुत प्रतिबद्ध एक अक्षरसे उत्पन्न श्र तज्ञानकी उपचार से 'अक्षर' ऐसी संज्ञा है। ध.१३/५४५,४८/पृ./पं. कधं तस्स अक्खरसण्णा। खरणेण विणा एग सरूवेण अवठाणादो। केवलणाणमक्खर, तत्थ पड्ढि-हाणीणमभावादो । दम्वठियणए सुहमणिगोदणाणं तं चेवे ति व अक्खरं । (२६२१५) को पज्जओ णाम । णाणाविभागपडिच्छेदपवखेवो पज्जो णाम । तस्स समासो जेसु णाणाणेसु अत्थि तेसिं जाणठ्ठाणाणं पज्जयसमासो त्ति सम्णा (२६४२)।-प्रश्न-इसकी (सूक्ष्म निगोदियाके ज्ञानकी) अक्षर संज्ञा किस कारणसे है ! उत्तरक्योंकि यह ज्ञान नाशके बिना एक स्वरूपसे अवस्थित रहता है। अथवा केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्याधिक नयकी अपेक्षा चूकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान भी वही है, इसलिए भी इस ज्ञानको अक्षर कहते हैं। प्रश्न = पर्याय किसका नाम है। उत्तर-ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदोंके प्रक्षेपका नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानस्थानों में होता है उन ज्ञानस्थानों में पर्याय समास संज्ञा है। परन्तु जहाँ एक ही प्रक्षेप होता है उस ज्ञानकी पर्याय संज्ञा है, क्योंकि, एक पर्यायमें उनका समास नहीं बन सकता। दे. पदा६ एक पदके १६३४८३०७८८८ अक्षरोंसे होनेके कारण ज्ञानको उपचारसे पद ज्ञान कह देते हैं। ध.६/१,६-१,१४/२१/११ तस्स (केवलणाणस्स) अणं तिमभागो पजाओणाम मदिणाणं । तं च केवलणाणं व णिराबरणमक्खरं च । एदम्हादो सुहमणिगोदलद्धि अक्वरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्च दि....तदो अणंतभागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी संखेजभागवड्ढी, संखेज्जगुणवड्ढी असंखेज्जगुणवड्ढी. अणंतगुणवढी त्ति एसा एक्का छवड्ढी। एरिसाओ असंखेज्जलोगमेत्तीओ छवटीओ गंतूण पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमो वियप्पो होदि। तमण तेहि रूवेहि गुणिदे अक्खरं णाम सुदणाणं होदि।...एदस्सुवरि अक्खरवड्ढी चेब होदि, अबराओ बढीओ णस्थि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसादो। केहं पुणं आइरिया अक्रवरसुदणाणं पिछब्बिहाए बड्ढीए वददि ति भणं ति, णेदं घडदे, सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागादो अक्खरणाणादो उवरि छवड्ढोणं संभवाभावा। - केवलज्ञान अक्षर कहलाता है उसका अनन्तवाँ भाग पर्याय नामका मतिज्ञान है, वह पर्याय नामका मतिज्ञान केवलज्ञानके समान निरावरण है और अविनाशी है। इस सूक्ष्म निगोद लब्धि अक्षरसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह पर्याय ज्ञान है, इस पर्याय श्रुतज्ञानसे जो अनन्त भागसे अधिक श्रुतज्ञान होता है वह पर्याय समास कहलाता है। अनन्त भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, असंख्यात, भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, और अनन्तगुण वृद्धि होती है इस प्रकार की असंख्यात लोक प्रमाण षड् वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्याय समास नामक श्रुतज्ञान का अन्तिम विकल्प होता है। उस ५. अक्षर ज्ञानमें कौन सा अक्षर इष्ट है ध. १३/५.१,४८/२६/५ एदेसु तिम् अक्रवरेनु केणेत्थ अक्वरेण पयदं । लद्धि अक्रवरेण, ण सेसे हि, जडत्तादो। प्रश्न-इन तीन अक्षरों में से (लम्हयक्षर, मिव त्यक्षर, और संस्थानाक्षरमेंसे) प्रकृतमें कौनसे अक्षरसे प्रयोजन है। उत्तर-नन्धि अक्षरसे प्रयोजन है,शेष अक्षरोंसे नहीं। क्योंकि वे जड़ स्वरूप हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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