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________________ श्रुतज्ञान 1 श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश नहीं देखे गये सजातीय और विजातीय अनेक अर्थोंका विचार करना रूप स्वभावोंसे सहितपने करके प्रसिद्धि हो रही है। गो.जी./जी. प्र./३१५/६७३/१६ तत्र जीवोऽस्तीपयुक्त जीवोऽस्तीति शब्दज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियप्रभवं मतिज्ञानं भवति ज्ञानेन जीवोऽस्तीति शब्दवाच्यरूपे आत्मास्तित्वे वाच्यवाचकसंबन्धसंकेतसंकलनपूर्वक यत ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मकं श्र तज्ञानं भवति, अक्षरामक शब्दसमुत्पन्नत्वेन कार्य कारणोपचारात । वातशीतस्पर्शज्ञानेन वातप्रकृतिकस्य तस्परों अमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकं लिङगजं श्रुतज्ञानं भवति, शब्दपूर्वकत्वाभावात् । -'जीवः अस्ति' ऐसा शब्द कहनेपर कर्ण इन्द्रिय रूप मतिज्ञानके द्वारा 'जीवः अस्ति' यह शब्द ग्रहण किया। इस शब्दसे जो 'जीव नाम पदार्थ है। ऐसा ज्ञान हुआ सो श्रतज्ञान है। शब्द और अर्थ के ऐसा वाच्य वाचक सम्बन्ध है । सो यहाँ 'जीवः अस्ति' ऐसे शब्दका जानना तो मतिज्ञान है, और उसके निमित्तसे जीव नामक पदार्थ का जानना सो श्रतज्ञान है । ऐसे ही सर्व अक्षरात्मक श्रुतज्ञानका स्वरूप जानन।। अक्षरात्मक शब्दसे समुत्पन्न ज्ञान, उसको भी अक्षरात्मक कहा। यहाँपर कार्य में कारणका उपचार किया है, परमार्थसे ज्ञान कोई अक्षर रूप नहीं है। जैसे-शीतल पवनका स्पर्श होनेपर 'तहाँ शीतल पवनका जानना तो मतिज्ञान है, और उस ज्ञानसे वायुकी प्रकृतिवालेको यह पवन अनिष्ट हैं' ऐसा जानना श्रतज्ञान है, सो यह अनक्षरात्मक भूतज्ञान है, क्योंकि यह अक्षरके निमित्तसे उत्पन्न नहीं हुआ है। श्रोताका ज्ञान भो शब्द प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान में निमित्त होता है न कि अर्थ ज्ञान में, अतः श्रुत में मनोनिमित्तता असिद्ध है। रा.वा./१/२०/५/७१/११ नायमेकान्तोऽस्ति-कारणसदृशमेव कार्यम् इति । कुतः । तत्रापि सप्तभङ्गीसंभवात । कथम् । घटवत् । यथा घटः कारणेन मृत्पिण्डेन स्यात्सदृशः स्यान्न सदृश इत्यादि ।... तथा श्रुतं सामान्यादेशात स्यात्कारणसदृशं यतो मतिरपि ज्ञान श्रुतमपि । अहिताभिमुखग्रहगनानाप्रकारार्थप्ररूपणसामादिपर्यायादेशात स्यान्न कारणसदृशम् । =यह कोई नियम नहीं है कि कारण के सदृश ही कार्य होना चाहिए। क्योंकि यहाँपर भी सप्तभंगी की योजना करनी चाहिए। घड़ेकी भाँति जैसे पुदगल द्रव्यकी दृष्टिसे मिट्टी रूप कारणके समान घड़ा होता है। पर पिण्ड और घट पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं ।...उसी तरह चैतन्य द्रव्यकी मति और श्रुत दोनों एक हैं, क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है। किन्तु तत्तत् ज्ञान पर्यायोंको हष्टसे दोनों ज्ञान जुदाजुदा हैं। श्लो. वा./३/९/8/३०/२४/२२ न मतिस्तस्यास्तर्कात्मिकायाः स्वार्थानुमानात्मिकायाश्च तथा भावरहितस्वात् । न हि यथा श्रुतमनन्तव्यञ्जनपर्यायसमाक्रान्तानि सर्व द्रव्याणि गृह्णाति न तथा मतिः । -तकस्वरूप अथवा स्वार्थानुमानस्वरूप भी उस मतिज्ञानमें श्रुतज्ञानके समान सर्व तत्त्वोका ग्राहकपना नहीं है, जिस प्रकार अनन्त व्यंजन पर्यायोंसे चारों ओर धिरे हुए सम्पूर्ण द्रव्यों को श्रुतज्ञान ग्रहण करता है, तिस प्रकार मतिज्ञान नहीं जानता। ३. श्रीतज मतिज्ञान व श्रुतज्ञानमें अन्तर रा, वा./२/६/३०/४६/४ श्रुत्वा यदवधारयति तत् श्रुतमिति केचिन्मन्यन्ते; तन्न युक्तमः कुतः । मतिज्ञानप्रसनत। तदपि शब्द श्रुत्वा 'गोशब्दोऽयम्' इति प्रतिपाद्यते। ...श्रुतं पुनस्तस्मिन्निन्द्रियानिन्द्रियगृहोतागृहोतपर्यायसमूहात्मनि शब्दे तदभिधेये च श्रोत्रेन्द्रियव्यापारमन्तरेण जीवादी नयादिभिरधिगमोपायैर्याथात्म्येनाऽवबोधः। रा, वा./१/२०/६/७१/२५ स्यादेतत-श्रोत्रमतिपूर्वस्यैव श्रुतत्व प्राप्नोति । कुतः। तदर्थ त्वात । श्रुत्वा अवधारणाद्धि श्रुतमित्युच्यते, तेन चक्षुरादिमतिपूर्वस्य श्रुतत्वं न प्राप्नोति; तन्न; 1क कारणम् । उक्तमेतत्त-श्रुतशब्दोऽयं रूढिशब्दः' इति । रूढिशब्दाश्च स्वोसत्तिनिमित्त क्रियानपेक्षाः प्रवर्तन्त इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतत्वसिद्धिभवति। -१. प्रश्न -सुनकर निश्चय करना श्रुत है 1 उत्तरऐसा कहना युक्त नहीं है। यह तो मतिज्ञानका लक्षण है, क्योंकि वह भी शब्दको सुनकर 'यह गो शब्द है' ऐसा निश्चय करता ही है। किन्तु श्रुतज्ञान मन और इन्द्रियके ज्ञान द्वारा गृहोत या अगृहीत पर्याय वाले शब्द या उसके वाच्यार्थका श्रात्रेन्द्रियके व्यापारके बिना ही नय आदि योजनाके द्वारा विभिन्न विशेषों के साथ जानता है। २. प्रश्न-श्रोत्रन्द्रिय जन्य मतिज्ञानसे जो उत्पन्न हो उसे ही श्रुत कहना चाहिए, क्योंकि सुनकर जा जाना जाता है वही श्रु त होता है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय आदिसे श्रु त नहीं हो सकेगा! उतर-श्रु त शब्द श्रुतज्ञान विशेष रूढ़ हानेके कारण सभी मतिज्ञान पूर्वक हानेवाले भू तज्ञानों में व्याप्त है। (भ. आ./ वि./१६४/४०६/२१)। श्लो. वा./२/१/६/३३/२७/३ केचिदाहुर्मतिश्रु तयारेकरवं श्रवण निमित्तस्वादिति, तेऽपि न युक्तिवादिनः । श्रुतस्य साक्षाच्छ्रवण निमित्तत्वासिद्धः तस्यानिन्द्रियवत्वादृष्टार्थसजातीयनानार्थपरामर्शनस्वभावतया प्रसिद्धत्वात् । -प्रश्न-कर्ण इन्द्रियको निमित्त पाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, इस कारण दोनों का एकपना है ? उत्तर-आप युक्तिवादी नहीं हैं, क्योंकि कर्ण इन्द्रियको साक्षात निमित्त मानकर तज्ञानका उत्पन्न होना असिद्ध है।... तज्ञान की अनिन्द्रियवानपना यानी मनको निमित्त मानकर और प्रत्यक्षसे ४. मनोमति ज्ञान व श्रतज्ञानमें अन्तर पं. का./ता. पू./४३/ प्रक्षेपक १.२/८/१९ तन्मतिज्ञानं तच्च पुन स्त्रिविध उपलब्धिविना तथोपयोगश्च...अर्थ ग्रहणशक्तिरूपमाघतिऽय पुनः पुनश्चितनं भावना नीलमिदं पीतमिदं इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोगः।। श्रुतज्ञान...ल धिरूपं च भावनारूपं चैव ।... उपयोगविकल्प नय विकल्पं च उपयोगशब्देनात्र वस्तुग्राहक प्रमाण भण्यते नयशब्देन तु वस्त्वेकदेशग्राहको ज्ञातुरभिप्रायो विकरूपः ।... यद्भावश्रुतं तदेवोपादेयं । मतिज्ञान तीन प्रकारका है-उपलब्धि भावना और उपयोग । अर्थ ग्रहण की शक्तिको लब्धि कहते हैं, जाने हुए अर्थका पुनः पुनः चिन्तवन करना भावना कहलाता है. और यह नीला है, यह पोला है इत्यादि रूपसे अर्थ ग्रहण के व्यापारको उपयोग कहते हैं ।...श्रुतज्ञान दो प्रकारका है-लब्धिरूपाऔरभावनारूप ही, तथा उपयोग बिकाप और नय विकल्प। उपयोग शब्दसे यहाँ वस्तु ग्राहक प्रमाण कहा जाता है। और नय शब्दसे तो वस्तुका एक देश ग्राहक ज्ञाताका अभिप्राय रूप विकल्प ग्रहण किया जाता है। यह भावश्रुत ही उपादेय है। ५. ईहादि मतिज्ञान श्रु तज्ञानमें अन्तर रा. बा./१/६/२८/४८/३१ स्यादेतत ईहादीनामपि श्रुतव्यपदेशः प्राप्तः, तेऽप्यनिद्रियानमित्ता इति तन; कि कारणम् । अवगृहीतमात्रविषयस्वति । इन्द्रियेणावगृहीतो योऽर्थस्तन्मात्रविश्या ईहादयः, श्रुतं पुनर्न तद्विषयम्। कि विषयं तहि श्रुतम् । अपूर्व विषयम् ।-प्रश्न-ईहा आदि ज्ञानका भी श्रुत व्यपदेश प्राप्त होता है, क्योंकि वे भी मनके निमित्त से उत्पन्न होते हैं। उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि वे मात्र अवगृह के द्वारा गृहीत हो पदार्थको जानते हैं, जबकि श्रुतज्ञान अपूर्व अर्थको विषय करता है। (क. पा./१/१-१५/६३०८/३४०/१) (ध. ६/१.६-१४/१७/४)। श्लो. वा./२/१/६/३२/२६/२२ नहि यादृशमतीन्द्रियनिमित्तत्व महीयास्तादृशं श्रुतस्यापि । यद्यपि ईहा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मनसे होते हैं, किन्तु जिस प्रकार ईहा ज्ञानका निमित्तपन मनको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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