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________________ हिंसा बाता अन्तरंग प्रागव्यपरोपण अर्थात् स्वहिंसा वहाँ भी (प्रमतयोगमें भी है हो। कहा भी है- 'प्रमादसे युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है, इसके बाद दूसरेका घात होवे अथवा न होवे ।' ऐसा माननेपर यह दोष भी नहीं आता है कि- 'जल में, थलमें, आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं। इस जन्तुमय जगत् में भिक्षुक अहिंसक कैसे रह सकता है ? क्योंकि ज्ञान ध्यान परायण अप्रमत भिक्षुकको मात्र प्राणि वियोग हिंसा नहीं होती। ध.१४/५,६,६३/१ तदभावे (बहिरङ्ग हिंसाभावेऽपि ) वि अंतरंग हिंसादो चैत्र सित्यमच्छस्स बंधुवलंभादो । जेण विणा जंग होदि चेव त तस्स कारणं । तम्हा अंतरंगहिसा चैव सुद्धणरण हिसा ण बहिरंगा चि सिद्धस्। क्योंकि महिरंग हिंसाका अभाव होनेपर भी केवल अन्तरंग हिंसा से सिक्थ मत्स्यके बन्धकी उपलब्धि होती हैं। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्धनयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है, महिरंग नहीं यह बात सिद्ध होती है। ये हिंसा/२/२-३ चैतन्य परिणामोंकी घातक होनेसे अन्तरंग हिंसा हो हिंसा है। २. निश्चय हिंसाको हिंसा कहनेका प्रयोजन प्र.सा./ता.वृ./२९८/२१३/१३ शुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः जीवलोके विचरनपि यद्यपि महरद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि निश्चयहिसा नास्ति ततः कारणाद्वपरमात्मभावनागतेन निश्चयहिंसेच सर्व तात्पर्येण परिहर्तव्येति शुद्धोपयोग रूप परिणत जीवको इस जीवों से भरे हुए लोक में विचरण करते हुए यद्यपि बहिरंग हिंसा मात्र होती है। अंतरंग नहीं इस कारण से शुद्ध परमात्म भावनाके बल द्वारा निश्चय हिंसा ही सर्व प्रकार त्यागने योग्य है । D ३. बहिरंग हिंसाको हिंसा कहनेका प्रयोजन अ./ /४/२८ हिंसा यद्यपि पुंसः स्यान्न स्वल्पाप्यन्यवस्तुतः । तथापि हिंसायतनारिमेजाब २०० मद्यपि पर वस्तु सम्बंध प्रमत्त परिणामोंके बिना केवल बाह्य द्रव्य के ही निमित्तसे जीवको जरा भी हिंसाका दोष नहीं लगता, तो भी भावविशुद्धिके लिए भावहिंसा के निमित्त माह्य पदार्थ से मुमुखको विरत होना चाहिए |२ ४. जीवसे प्राण भिन्न हैं, उनके वियोगसे हिंसा क्यों हो ? Jain Education International ५३६ ४. निश्चय व्यवहार हिंसा समन्वय प. प्र./टी./२/१२० प्राणा जीवादभिन्ना भिन्ना या यवभिनः सहि जीवत्प्राणानां विनाशो नास्ति, अथ भिम्न्नास्तर्हि प्राणबधेऽपि जीवस्य बचो नास्त्यनेन प्रकारेण जीवहिंसे नास्ति कथं जीवयये पापबन्धो भविष्यतीति । परिहारमाह । कथंचिद्भदाभेदः । तथाहि स्वकीयप्राणे हृते सति दुःखोश्पत्तिदर्शनाद्व्यवहारेणाभेदः सैव दुःखोत्पत्तिस्तु हिंसा भण्यते ततश्च पापबन्धः । प्रश्न- प्राण जीवसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो जीवकी भाँति प्राणोंका भी विनाश नहीं हो सकता । यदि भिन्न है तो प्राण वध होनेपर भी जीववध नहीं हो सकता और इस प्रकार जीव हिंसा ही नहीं होती फिर जीव वधसे पापका बन्ध कैसे हो सकेगा 1 उत्तर- ऐसा न कहो क्योंकि जीव और प्राणोंमें कथंचित् भेदाभेद है । वह इस प्रकार कि अपने प्राणोंके हरण होनेपर दुःख की उत्पत्ति देखी जाती है, इस कारण व्यवहारसे इनमें अभेद है । वह दुःखोत्पत्ति ही वास्तव में हिंसा कहलाती है और उससे पाप बन्ध होता है। .सा./ता, वृ/३३३-४४४/४२३ / २२ कश्चिदाह जीवाणाभिज्ञा अभिन्ना वा । यद्यभिन्नास्तदा यथा जीवस्य विनाशो नास्ति तथा प्राणानामपि विनाशो नास्ति कथं हिंसा अथ भिन्नस्तहि जीवस्य प्रणयातेऽपि किमयातम्। तत्रापि हिंसा नास्तीति तत्र. [ दे, काय २०३ ) =प्रश्न- कोई कहता है कि जीवसे प्राण भिन्न है कि अभिन्न ! यदि अभिन्न है तो जीवका विनाश ही नहीं हो सकता, तब प्राणोंका भी बिनादा नहीं हो सकता। फिर हिंसा कैसे हो सकती है। यदि प्राण जीवसे भिन्न है तो जीवका प्राण घात होना ही कैसे प्राप्त होता है ? इसलिए ऐसा माननेपर भी हिंसा सिद्ध नहीं होती ! उत्तर ऐसा नहीं है; कायादि प्राणोंके साथ कथंचित् जीवका भेद भी है और अमे भी यह कैसे सो बताते हैं [ सो पिण्ड जैसे अग्नि पृथक नहीं की जा सकती वैसे ही वर्तमानमें शरीर आदि जीवको पृथक नहीं किया जा सकता, इस कारण से व्यवहारसे दोनोंमें अभेद है । परन्तु निश्चयसे भेद है क्योंकि मरणकालमें शरीरादिक प्राण जीवके साथ नहीं जाते। वे प्राण/२/३] दे. विभान/५/५/१ यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार से भी हिंसा न हो तो जीवको भस्मवत् मलने से भी हिंसा न होगी। और इस प्रकार मोक्षमार्ग के ग्रहणका अभाव हो जानेसे मोक्षमार्ग का ही अभाव होगा। ५. हिंसा व्यवहार मानसे है निश्चयसे तो नहीं पु. सि. उ. / ५० निश्चयमबुद्धयमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स बहिःकरणालसो बालः । -जो जीव निश्चय के स्वरूपको न जानकर उसको ही निश्चयके श्रद्धानसे अंगीकार करता है, याने अन्तरंग हिसाको हो हिंसा मानता है वह मूर्ख बाह्य क्रियानें आलसी है और बाह्य क्रिया रूप आचरणको नष्ट करता है । = प. प्र./टी./ २ / १२७ ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता पापबन्धोऽपि न च निश्चयेन इति । सत्यमुक्तं स्वया, व्यवहारेण पापं तथैव नारकादिदुःखमपि व्यवहारेणेति तदिष्टं भवतां चेतहि हिसां कुरुत यूममिति । प्रश्न- फिर भी यह प्रागपात रूप हिंसाहारमात्र है और इसी प्रकार पापबन्ध भी निश्चयसे तो नहीं है ? उत्तर- तुम्हारी यह बात बिलकुल सत्य है, परन्तु जिस प्रकार पापबन्ध व्यवहारसे है, उसी प्रकार नरकादिके दुःख भी व्यमहारसे ही हैं, यदि मे दुःख तुम्हें अच्छे लगते हैं तो हिंसालू करो। ६. मिन्न प्राणोंके घातसे न दुःख है न हिंसा = रा.वा./७/१३/८-११/५४० / १३ अन्यत्वादधर्माभावः इति चेत्; न; तद्दुःखोत्पादकत्वात् । शरीरिणोऽन्यत्वात् दुःखाभाव इति चेतः नः पुत्रप्रादिभियोगे तापदर्शनात् । प्रत्येकाच्च ॥१०॥ यद्यपि शरीरिशरीरयोः लक्षणमेदाज्ञानात्वम् तथापि मधे प्रत्येकस्वाद तद्वियोगपूर्वक दुःखोपपत्तेरधर्माभाव इत्यनुपालम्भः । एकान्तवादिनां तदनुपपत्तिर्वन्धाभावात् | ११ | = प्रश्न- प्राण आत्मासे भिन्न हैं अतः उनके वियोगसे अधर्म नहीं हो सकता । उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राणों का वियोग होनेपर जीवको हो दुःख होता है। प्रश्न-झरीरी आत्मा प्राणों से भिन्न है अतः उनके वियोगसे उसे दुःख भी नहीं होना चाहिए। उत्तर नहीं, क्योंकि पुत्र कलादि सर्वथा भिन्न पदार्थोंके वियोग होनेपर भी ताप देखा जाता है। दूसरे, यद्यपि शरीर झरोरीमें लक्षण मेदसे नानाव है फिर भी अतः शरीर वियोग पूर्वक होने वाला दुःख आत्माको ही होता है । अतः हिंसा और अधर्मका अभाव हो ऐसा नहीं कहा जा सकता ११० बाराको नित्य शुद्ध माननेवाले एकान्तवादियों के मलगे तो ठीक है कि प्राण वियोगसे दुखोत्पत्ति नहीं होतो, क्योंकि वह आत्मा और शरीरका बन्ध स्वीकार नहीं करते। परन्तु अनेकान्तमत में ऐसा मान्य नहीं हो सकता। प्रति दोनों एक हैं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोठ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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