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________________ श्रावक १. भेद व लक्षण पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश संयतासंयत गुणस्थान -दे, संयतासंयत । नैष्ठिक श्रावकमें सम्यक्त्वका स्थान ।। सम्यग्दृष्टि श्रावक मिथ्यादृष्टि साधुसे ऊँचा है -दे. साधु४ि। * सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके व्यवहार धर्ममें अन्तर -दे, मिथ्यादृष्टि/४। | ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तम मध्यमादि विभाग। क्षुल्लका -दे. क्षुल्लक। | ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तरोत्तर व्रतोकी तरतमता। ४ पाक्षिक श्रावक सर्वथा अविरति नहीं। पाक्षिक श्रावककी दिनचर्या । पाँचौ व्रतोंके एक देश पालन करनेसे व्रती होता है। पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावको अन्तर। * श्रावकके योग्य लिंग -दे. लिंग/१। साधु व श्रावकके धर्ममें अन्तर -दे. धर्म/६ । साधु व श्रावकके ध्यान व अनुभवमें अन्तर -दे. अनुभव/५॥ आवश्यक क्रियाओंका महत्व। कुछ निषिद्ध क्रियाएँ। सब क्रियाओंमें संयम रक्षणीय है। श्रावकको भी समिति गुप्ति आदिका पालन करना चाहिए। -दे, व्रत/२/४ । श्रावकको स्थावर वध आदिकी भी अनुमति नहीं है -दे. व्रत/३॥ ४ | श्रावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश अष्ट मूल गुण अबश्य धारण करने चाहिए। अष्टमूल गुण निर्देशका समन्वय । अष्ट मूल गुण विशेष व उनके अतिचार - दे. वह वह नाम । ३ | अष्ट मूल गुण व सात व्यसनोंके त्यागके बिना नामसे भी श्रावक नहीं। श्रावकके १२ व्रत। -दे. व्रत/१। | अष्टमूल गुण व्रती व अव्रती दोनोंको होते हैं। मूलगुण साधुको पूर्ण व श्रावकको एक देश होते हैं। श्रावकके अनेकों उत्तरगुण १ श्रावकके दो कर्तव्य। २ श्रावकके ४ कर्तव्य । ३ श्रावकके ५ कर्तव्य। ४ श्रावकके ६ कर्तव्य। ५ श्रावकको ५३ क्रियाएँ। *श्रावककी २५ त्रियाएँ। -दे. क्रिया। * गर्भान्वय आदि १० या ५३ क्रियाएँ-दे. संस्कार/२।। श्रावकके अन्य कर्तव्य। श्रावककी स्नान विधि -दे,स्नान। दान देना ी गृहस्थका प्रधान धर्म है-दे. दान/३। वैयावृत्य करना गृहस्थका प्रधान धर्म है -दे, वैयावृत्य/ * | सावध होते भी पूजा व मन्दिर आदि निर्माणकी आशा -दे, धर्म/१/२। * | श्रावकोंको सल्लेखना धारने सम्बन्धी -दे.सल्लेखना/१ व ३॥ | अणव्रतोंमें भी कथंचित् महाव्रतत्व -दे. व्रत/३ । सामाोयकके समय श्रावक भी साधु-दे. सामायिक/३ । १. भेद व लक्षण १. श्रावक सामान्यके लक्षण स.सि./४/४५/४५८/८ स एव पुनश्चारित्रमोहकर्म विकल्पाप्रत्यारण्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगाव श्रावको"। - वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्मके एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्मके क्षयोपशम निमित्तक परिणामोंकी प्राप्तिके समय विशुद्धि का प्रकर्ष होनेसे श्रावक होता हुआ। सा.ध./१/१५-१६ मूलोत्तरगुण निष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो, ज्ञानसुधा श्रावकः पिपासुः स्यात् ।१५। रागादिक्षयतारतम्यविकसनाद्धारमसं विरसुख - स्वादात्मस्वबहिर्ष हिस्त्रसव धाद्य होव्यपोहात्मसु । सदग्दर्श निकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-स्वेक यः श्रयते यतिवतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।१६ =पंच परमेष्ठीका भक्त प्रधानतासे दान और पूजन करनेवाला भेद ज्ञान रूपी अमृतको पीनेका इच्छुक तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंको पालन करनेवाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है ।१५। अन्तरं गमें रागादिकके क्षयकी हीनाधिकताके अनुसार प्रगट होनेवाली आत्मानुभूतिसे उत्पन्न सुखका उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है स्वरूप जिन्होंका ऐसे और बहिरंगमें त्रस हिंसा आदिक पाँचों पापोंसे विधि पूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिन्होंका ऐसे ग्यारह देश विरत नामक पंचम गुणस्थानके दर्श निक आदि स्थानों-दरजोंमें मुनिव्रतका इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थानको धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावकको श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता हूँ। सा, ध/स्वोपज्ञ टीका/१/१९ शृणोति गुरिभ्यो धर्ममिति श्रावकः । -जो श्रद्धापूर्वक गुरु आदिसे धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है। द्र. सं./टी./१३/३४/५ स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति । -पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है । २. श्रावकके भेद १. पाक्षिकादि तीन भेद चा. सा./४१/३ साधकत्वमेवं पक्षादिभित्रिभिहिंसाद्य पचित पापम् अपगतं भवति । = इस प्रकार पक्ष चर्या और साधकत्व इन तीनोंसे गृहस्थीके हिंसा आदिके इकट्ठ किये हुए पाप सब नष्ट हो जाते हैं। सा.ध./१/२० पाक्षिकादिभि त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । ... नैष्ठिकः साधकः...।२० = पाक्षिक, नैष्ठिक और साधकके भेदसे श्रावक तीन प्रकारके होते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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