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________________ हिसा ५३२ २. निश्चय हिंसाकी प्रधानता १. हिंसाके भेद व लक्षण सर्वत्र सद्भावात ।१८७। हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ११०८ हिंसा १. हिंसा सामान्यके भेद पर्यायत्वात्सिद्धा हिंसान्तरङ्गसड्गेषु । बहिरड्गेषु तु नियत' प्रयातु १. निश्चय मूछ हिंसात्वम् ।११। रात्रौ भुजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा। हिंसा विरतै स्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ।१२६ -१, क. पा. १/१,१/१८३/ गा. ४२/१०२ तेसिं ( रागादोण) चे उप्पत्ती क्योंकि इस सम्पूर्ण असत्य वचनमें एक प्रमाद योग ही कारण है हिंसेति जिणेहि णिहिट्ठा ।४। -रामादिककी उत्पत्ति ही हिंसा है, इसलिए असत्य वचन बोलने वालेमें अवश्य ही हिंसा होती है, ऐसा जिनदेव ने कहा है । (स, सि./७/२२/३६३ पर उद्धृत) (भ. आ/ क्योंकि हिंसाका कारण एक प्रमाद ही है । (अन. ध./४/३६ ) २. वि./८०१-८०२) (पु. सि. उ./४४); (बन, ./४/२६/३०८) प्रमादके योगसे बिना दिये हुए स्वर्ण वस्त्रादिक परिग्रहका ग्रहण प्र. सा./त. प्र./२१६,२१७ अशुद्धोपयोगो हि छेदः...स एव च हिंसा करना चोरी कहते हैं वही चोरी हिंसा है, क्योंकि वह प्राणघातका ।२१६। अशुद्धोपयोगो अन्तरङ्गछेदः।२१७। वास्तव में अशुद्धोपयोग छेद कारण है ।१०२। ये जितने भी स्वर्ण आदि पदार्थ है वे सब पुरुषके है और वही हिंसा है ।२१६। अशुद्धोपयोग अन्तरंग छेद है। बाह्य प्राण हैं। इसलिए जो जिसके इन पदार्थों का हरण करता है वह प. प्र./टी./२/१२५ रागाद्य त्पत्तिस्तु निश्चयो हिंसा । -रागादिकी उसके प्राणोंको हो हरता है ।१०३। ( ज्ञा./१०/३ ) ( अन, ध./४/४६); उत्पत्ति वह निश्चय हिंसा है। ३. स्त्री पुरुष आदि वेद भावके परिणमन रूप रागसे सहित योगको अन. ध/४/२६ परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् । हिंसा रागाद्य त्प- मैथुन कहते हैं। वही अवह्म है। तिस विषै हिंसा अवतार धरै है, त्तिरहिंसा तइनुद्भवः।२६। -जिनागमके इस परमोत्कृष्ट रहस्यको ही क्योंकि कुशील करने तथा करानेवालेके सर्व हिंसाका सद्भाव है ।१०७॥ हृदयमें धारण करो कि रागादि परिणामोंका प्रादुर्भाव होना हिंसा जैसे तिलोसे भरी हुई नली में तपे हुए लोहेकी सलाई डालनेपर है...२६ उस नलीके समस्त तिल जल जाते हैं। इसी प्रकार स्त्री अंगमें पुरुषके पं.ध./उ./७५५ अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो वतच्युतिः १७५४॥ अंगसे मैथुन करनेपर योनिगत समस्त जीव तत्काल मर जाते हैं ।१०८। = रागादिका नाम ही हिंसा, अधर्म और अवत है ।...) ४. अन्तरंग चौदह प्रकार परिग्रहके सभी भेद हिंसाके पर्यायवाची होनेके कारण हिसा रूप ही सिद्ध है। और बहिरंग परिग्रहविषै २. व्यवहार मूळ या ममत्व भाव ही निश्चयसे हिंसापनेको प्राप्त होता है ।११।। त. सू./७/१३ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।१३। -प्रमाद योगसे १. रात्रिमें भोजन करनेवालोंको क्योंकि अनिवारित रूपसे हिंसा किसी जीवके प्राणोंका व्यपरोपण करना अर्थात् पीड़ा देना हिंसा है। होती है, इसलिए अहिंसा व्रतधारी जनोंको रात्रि भोजन त्याग प्र. सा./त. प्र./३/१७ प्राणव्यपरोपो हि बहिरङ्गच्छेदः। -प्राणोंका अवश्य करना चाहिए ।१२६। व्यपरोपण बहिर ग छेद है। ५. एक समयमें छह कायकी हिंसा सम्भव है पु.सि.उ./४३ यत्रवलु योगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।४३ = कषाय रूप परिणमा जो गो.क./भाषा/७६४/६६५४४ छह कायकी हिंसा विषै एक जीवकै एकै मन वचन काय योग तिसके हेतु है द्रव्य भाव स्वरूप दो प्रकार प्राणो- काल एक कायकी हिंसा होय, वा दो कायकी हिंसा होय, वा तीनकी का पोड़ना या घात करना, निश्चय करि वही हिंसा है। वा चारकी, वा पाँचको वा छहकी हिंसा होय । २. पारितापिकी आदि हिंसा निर्देश ६. हिंसा अत्यन्त निन्द्य है भ. आ./मू./८०७ पादोसिय अधिकरणीय कायिय परिदावणादिवादाए। ज्ञा/८/१६.५८ हिंसैव दुर्गतेद्वार हिंसैव दुरितार्णवः। हिंसैब नरक एदे पंचोगा किरियाओ होंति हिंसाओ। = द्वेषिकी, कायिकी, घोर हिंसैव गहनं तमः ॥१६॥ यत्किचित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकप्राणघातिकी, पारितापकी, क्रियाधिकरणी ऐसे पाँच प्रकारकी भयबीजम् । दीर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसासंभवं ज्ञेयम् ।५८ -हिंसा क्रियाओं को हिंसा क्रिया कहते हैं 1८०७) ही दुर्गतिका द्वार है, पापका समुद्र है, तथा हिंसा ही घोर नरक ३. संकल्पी आदि हिंसा निर्देश और महान्धकार है ।१६। संसारमें जीवोंके जो कुछ दुःख-शोक व भयका बीज रूप कम है तथा दौर्भाग्यादिक हैं वे समस्त एकमात्र नोट:-[ हिंसा चार प्रकारकी होती है -संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी हिंसासे उत्पन्न हुए जानो।५८ व विरोधी। बिना किसी उद्देश्यके संकल्प प्रमादसे की जानेवाली हिंसा संकल्पी है । भोजन आदि बनाने में, घरकी सफाई आदि करने ७. हिंसकके तपादिक सब निरर्थक हैं रूप धरेलू कार्यों में होनेवाली हिंसा आरम्भी है। अर्थ कमाने रूप व्यापार धन्धे में होनेवाली हिंसा उद्योगी है। तथा अपनी, अपने ज्ञा./८/२० निःस्पृहत्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तपः। कायवलेशश्च आश्रितोंकी अथवा अपने देशकी रक्षाके लिए युद्धादिमे की जानेवाली दानं च हिंसकानामपार्थ कम् ।२०1 = जो हिंसक पुरुष हैं उनकी हिंसा विरोधी हैं। निस्पृहता, महत्ता, आशारहितता, दुष्कर तप करना, कायक्लेश और दान करना आदि समस्त धर्म कार्य व्यर्थ हैं अर्थात निष्फल हैं ।२०) ४. असत्यादि सर्व अविरति भाव हिंसा रूप हैं पु. सि. उ./श्लोक सं. सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथन यत् । २.निश्चय । प्रधानता अनृतवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवतरति ।। अवतीर्णस्य । ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यद । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा १. स्वहिंसा ही हिंसा है वधस्य हेतुत्वात् ।१०२१ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः भ, आ./मू. ८०३, १३६३ अत्ता चेत्र अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छी साम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।१०३। समये। जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो ८०३। तध यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य रोसेण सयं पुत्वमेव उज्झदि हु कलकलेणेव । अण्णस्स पुणो दुरस्त्रं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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