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________________ स्याद्वादसिद्धि ५०३. स्वनिमित्त स्याद्वादसिद्धि-आ. वादीभसिंह ( ई०११०३ ) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ है। -दे. वादीभसिंह । स्याद्वादोपनिषद्-आ. सोमदेव (ई. १४३-६६८) कृत स्याद्वाद न्यायका प्ररूपक संस्कृत भाषामें रचित ग्रन्थ । -दे.सोमदेव । स्व क्षेत्र-दे.क्षेत्र/१। स्वगणानुस्थापनप्रायश्चित्त-दे. परिहार । स्वगुरु वापि किया-दे. संस्कार/२ । स्वचतुष्टय-दे. चतुष्टय। स्वचारित्र-दे. चारित्र १ । हुआ और स्वेच्छ। कल्पित पदार्थोंका स्वरूप कहते हैं उनको यथाछन्द मुनि कहते हैं । वर्षाकाल में जो पानी गिरता है उसको धारण करना वह असंयम है। उस्तरा और कैंचीसे केश निकालना ही योग्य है। केशलोंच करनेसे आत्म-विराधना होती है। सचित्त तृषापुंजपर बैठनेसे भी भूमि शय्या मूल गुण पाला जाता है। तृणपर बैठने से भी जीवोंको बाधा नहीं पहुँचती। उद्देशादि दोष सहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है। आहारके लिए सब ग्राम में घूमनेसे जीवोंकी विराधना होती है । घरमें (वसतिका) में ही भोजन करना अच्छा है। हाथमें आहार लेकर भोजन करनेसे जीवोंको बाधा पहुँचती है। ऐसा वे उत्सुत्र कहते हैं। इस काल में यथोक्त आचरण करनेवाले मुनि कोई नहीं हैं। ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकारसे विरुद्ध भाषण करनेवाले मुनियोंको यथाछन्द अर्थात स्वच्छन्दमुनि कहते हैं। चा. सा./१४४/२ त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्द विहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र: स्वच्छन्द इति वा । जो अकेले ही स्वच्छन्द रीतिसे विहार करते हैं और जिनेन्द्र देवके वचनोंको दूषित करनेवाले हैं उनको मृगचारित्र अथवा स्वच्छन्द कहते है। (भा. पा./ टी./१४/१३७/२२)। स्वच्छेद-१.स्वच्छंद परिग्रह ग्रहण का निराकरण-दे, अपवाद/४; २. स्वच्छन्द आहार ग्रहणका निराकरण-दे. आहार/nI/२/७ । स्वच्छंद साधु स्वच्छत्वशक्ति-स.सा./आ/परि./शक्ति ११ नीरूपात्मप्रदेशप्रकाशमानलोकालोकाकारमेचकोपयोगलक्षणा स्वच्छत्वशक्तिः । - अमूर्तिक आत्मप्रदेशों में प्रकाशमान लोकालोकके आकारोंसे मेचक ( अर्थात् अनेक--आकाररूप) ऐसा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसा स्वच्छत्व शक्ति। (जैसे दर्पण की स्वच्छत्व शक्तिसे उसकी पर्यायमें घट पटादि प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार आत्माकी स्वच्छत्व शक्तिसे उपयोगमें लोकालोकके आकार प्रकाशित होते हैं। स्वच्छाहार-भ.आ./वि./७००/८८२/६ स्वच्छम् एकं पानक उष्णो दकं सौवीरकम् । स्वच्छ यह एक पानकका प्रकार है। गरम पानी, वगैरहको स्वच्छ कहते हैं। १. स्वच्छन्द साधुका लक्षण भ. आ./मू.१३०८-१३१२ सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि केइ इंदियकसायचो रेहिं । पबिलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिवीति ।१३०८। तो ते सीलदरिदा दुखमणतं सदा वि पार्वति ।...१३०६। सो होदि साधुसत्यादु णिग्गदो जो भवे जधा/दो। उस्सुत्तमणुव दिट्ट च जधिज्छार विकापतो ।१३१० जो होदि जधाछंदी हु तस्स धणिदं पि संजमितस्स । णस्थि. दुचरणं चरणं खु होदि सम्यत्तसहचारी ११३११। इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणे दि जिणुत्ते अत्थे सच्छ ददो चेव ११३१२। मोक्ष मगरके समीप जाकर भी कितनेक मुनि इन्द्रिय और कषाय रूपी चोरों से जिनका चारित्र रूपी भांडबल लूटा गया है तथा संयमका अभिमान जिनका नष्ट हुआ है ऐसे होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं ।१३०८। बे शील दरिद्री मुनि हमेशा तीव दुःखको प्राप्त होते हैं ।१३०६। जो मुनि साधु सार्थको छोड़कर स्वतन्त्र हुआ है। जो स्वेच्छाचारी बनकर आगम विरुद्र और पूर्वाचार्य अकथित आचारोंकी कल्पना करता है वह स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए ।१३१०॥ यथेष्ट प्रवृत्ति करनेवाले उस भ्रष्ट मुनिने यद्यपि घोर संयम किया होगा तथापि सम्यक्त्व न होनेसे उसका संयम चारित्र नहीं कहा जाता है ।१३११॥ इन्द्रिय और कषायों में आधीन होनेसे यह भ्रष्टमुनि जिनप्रणीत सिद्धान्तको प्रमाण नहीं मानता है और स्वच्छन्दाचारी बनकर सिद्धान्तका स्वरूप अन्यथा समझता है तथा अन्यथा विचार में लाता है ।१३१२। भ. आ./वि./१९५०/१७२३/१ स्वच्छन्दसंपत्स्वियमपि स्वच्छन्दवृत्तिः। यथाच्छन्दो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पित यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाच्छन्द इति । तद्यथा वर्षे पतत जलधारणमसंयमः । क्षुर कतरिकादिभिः केशापनयनप्रशंसनम आत्मविराधनान्यथा भवतीति । भूमिशय्यातृणपुजे वसतः अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके भोजनेऽदोषः ग्राम सकल पर्यटतो महती जीवनिकाय विराधनेति, गृहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापराः स्वच्छन्दा इत्युच्यन्ते। '-स्वच्छन्द मुनिके संसर्गसे मुनि स्वच्छन्द बनते हैं। यथाच्छन्द मुनिका वर्णन करते हैं--जो मुनि आगमके विरुद्ध आगममें न कहा स्वजातिउपचार-दे, उपचार/१। ' स्वतन्त्रता-१ द्रव्यकी स्वतन्त्रता-दे. द्रव्य/५। २. गुणोंकी स्वतन्त्रता-दे. गुण/२/७; ३. पर्यायकी स्वतन्त्रता--दे. पर्याय/२/४: ४. आत्मद्रव्य अनीश्वर नयसे स्वतन्त्रता भोगने वाला है। हिरणको स्वतन्त्रता पूर्वक पकड़कर खा जानेवाले सिंहकी भाँति-दे. नय/11 स्वधर्म व्यापकत्व शक्ति-स.सा./आ./परिशक्ति/२५ । स्वशरीरैकस्वरूपारिमका स्वधर्मव्यापकत्वशक्तिः ॥२५॥ - सर्व शरीरों में एक स्वरूपात्मक ऐसी स्वधर्मव्यापकत्व शक्ति ( शरीरके धर्मरूप न होकर अपने-अपने धर्मो में व्यापने रूप शक्ति ) सो स्वधर्म व्यापकत्व शक्ति है। स्वदारसन्तोषव्रत-दे. ब्रह्मचर्य/१/३ । स्वद्रव्य-मो.पा./मू./१८ दुद्रुकम्मरहियं अणोयम जाणविरगहणिच्च । सुधं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवइ सहब्ब १८ - दुष्ट कर्मोंसे रहित हैं, तथा अनुपम ज्ञान ही है शरीर जिसके ऐसी अविनाशी, बिकार रहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान्ने कही है सो स्व द्रव्य है। स्वनिमित्त-दे. निमित्त/१/५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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