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________________ श्रद्धान ४४ २. अन्ध श्रद्धान निर्देश उस विषयमें उसका मन लीन हो जाता है।६५। जिस विषयमें दत्तावधान बुद्धि नहीं होती उससे रुचि हट जाती है। जिससे रुचि हट जाती है उस विषयमें लीनता कैसे हो सकती है। ३.चारित्रकी शक्ति न हो तो श्रद्धान तो करना चाहिए नि. सा./मू./१५४ जदि सक्कदि काटु' जे पडिकमणादि करेज्ज झाणमय।। सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेत्र कायव्यं १५४। यदि किया जा सके तो अहो ? ध्यानमय, प्रतिक्रमणादि कर; यदि तू शक्ति विहीन हो तो तबतक श्रद्धान ही कर्तव्य है। द. पा./मू./२२ ज सकइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केव लिजिणे हि भणियं सद्दहमाणस्स संमत्तं ।२२। जो करनेको (त्याग करनेको) समर्थ हो तो करिये, परन्तु यदि करनेको समर्थ नहीं तो श्रद्धान तो कीजिए, क्योंकि श्रद्धान करनेवालो के केवली भगवान्ने सम्यक्त्व कहा है ।२२। नि, सा./ता. बृ./१५४/क. २६४ कलिविलसिते पापबहूले। ...अतोsध्यात्म ध्यानं कमिह भवेन्निर्मलधियां । निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् । पापसे बहुल कलिकालका विलास होनेपर... इस काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है। इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्म श्रद्धाको अंगीकार करते हैं। १. यथार्थ श्रद्धान न करे तो अमव्य है प्र. सा./मू-/६२ णो सद्दहति सोक्वं सुहेसु परमं ति विगदधादीणं । सुणिदूण ते अभव्या भव्वा वा तं पडिच्छ ति ६२१ =जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका सुख ( सर्व ) सुखों में उत्कृष्ट है, यह सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते वे अभव्य हैं और भव्य उसे स्वीकार करते हैंउसकी श्रद्धा करते हैं। ५. अन्य सम्बन्धित विषय १. श्रद्धानमें सम्यक्त्रकी प्रधानता। -दे, सभ्यग्दर्शन/II/२.३ । २. श्रद्धानमें अनुभवकी प्रधानता । -दे, अनुभव/३ । ३. श्रद्धान व सम्यग्दर्शनमें कथंचित् भेदाभेद । -दे. सम्यग्दर्शना/१। ४. दर्शनका अर्थ श्रद्धान। -दे. सम्यग्दर्शन/|१| ५. श्रद्धानमें भी कथंचित् ज्ञानपना। -दे, सम्यग्दर्शन/I/४ । ६. श्रद्धान व शानमें पूर्वोत्तरवर्तीपना। -दे. ज्ञान/III/३. ७. ज्ञान व श्रद्धानमें अन्तर । -दे. सम्यग्दर्शन/४। वालों को किस प्रकार स्तवन करने योग्य है। इससे सर्वकी सत्ता सिद्ध हो, यहीं कर्म का मूल है । ऐसी जिनकी आम्नाय है। भद्रबाहु चरित्र/प्र.६ पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्बचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । न तो मुझे वीर भगवान का कोई पक्ष है और न कपिलादिकोंसे द्वेष है जिसका भी वचन युक्ति सहित है, उस ही से मुझे काम है। English Tatwarth Sutra/Page 15- Right Belief is not identical with blind faith, Its authority is neither External nor autocratic - सम्यग्दर्शन अन्ध श्रद्धानकी भाँति नहीं है। इसका अधिकार न तो बाह्य है और न रूढ़ि रूप ही है। २. अन्धश्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षण वाला होता है दे० आगम/३/आगमकी विरोधी दो बातोंका संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि नहीं होता, क्योंकि संग्रह करने वालेके यह 'सूत्रकथित है' इस प्रकारका श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसे सन्देह नहीं हो सकता। गो. जी./जी.प्र./५६१/१००६/१३ तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिविना आप्तवचनाश्रयेण ईषनिर्णयलक्षणया...] = बिना प्रमाण नय आदिके द्वारा विशेष जाने, जैसा भगवान्ने कहा वैसे ही है, ऐसे आप्त बचनोंके द्वारा सामान्य निर्णय है लक्षण जिसका ऐसी आज्ञाके द्वारा श्रद्धान होता है। ३. सूक्ष्म दूरस्थादि पदार्थों के विषयमें अन्ध श्रद्धान करनेका आदेश २. अन्ध श्रद्धान निर्देश * श्रद्धानमें परीक्षाकी प्रधानता-दे. न्याय/२/१। . ..परीक्षा रहित अन्ध श्वद्धान अकिंचित्कर क. पा. १/७/३ जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित विशेहादो। =शिष्य युक्तिकी अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु वचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता भ, आ./मू./३६/१२८ धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्य जीवे य। आणाए सद्दहन्तो समत्ताराहओ भणिदो।३६।- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल काल व जीव इन छह द्रव्योंको जिनेश्वरकी आज्ञासे श्रद्धान करने वाला आत्मा सम्यक्त्वका आराधक होता है ।३६॥ द्र, सं./टी./४८/२०२ पर उद्धृत स्वयं मन्दबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपा ध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थाना सूक्ष्मत्वेऽपि सति सूक्ष्म जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ...। =स्वयं अल्पबुद्धि हो विशेष ज्ञानी गुरुकी प्राप्ति न हो जब शुद्ध जीवादि पदार्थोकी सूक्ष्मता होने पर-श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्मतत्त्व है, वह हेतुओंसे रखण्डित नहीं हो सकता, अतः जो सूक्ष्मतत्त्व है उसे जिनेन्द्रकी आज्ञाके अनुसार ग्रहण करना चाहिए। ( द. पा./टी./१२/१२/२८/पर उद्धृत)। पं. वि./१/१२८ निश्चेतव्यो जिनेन्द्रस्तदतुलवचा गोचरेऽर्थे परोक्षे। कार्यः सोऽपि प्रमाण वदत किमपरेणालं कोलाहलेन । सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा। भो भो भव्या यतध्वं दृगबगमनिधावात्मनि प्रीतिभाजः ॥१२८ -हे भव्य जीवो! आपको जिनेन्द्रदेवके विषयमें व उनकी वाणीके विषयभूत परोक्ष पदार्थोके विषयमें उसीको प्रमाण मानना चाहिए, दूसरे व्यर्थ के कोलाहलसे क्या प्रयोजन है। अतएव छद्मस्थ अवस्थाके रहने पर सिद्धान्त मार्गसे आये हुए आत्मानुभवसे प्रबोधको प्राप्त होकर आप सम्यदर्शन व ज्ञानकी निधि स्वरूप आत्माके विषयमें प्रीतियुक्त होकर आराधना कीजिए ।१२८० अन. ध./२/२५ धर्मादीनधिगम्य सच्छू तनयन्यासानुयोगैः सुधीः, श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरात् ।२५। -विशिष्ट ज्ञानके धारकोंको समीचीन, प्रमाण-नय-निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा धर्मादिक द्रव्यों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। किन्तु मन्द ज्ञानियों को केवल आज्ञाके अनुसार ही उनका ज्ञान व द्वान करना चाहिए। मो. मा. प्र./७/३१६/७ जो निर्णय करने को विचार करते ही सम्यक्त्वको दोष लागै, तो अष्टसहस्रीमें आज्ञाप्रधानतें परीक्षा प्रधानको उत्तम क्यों कहा? मो. मा. प्र./१८/३८१/१३ जो मैं जिन वचन अनुसारि मानौ हो तो भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय । सत्ता स्वरूप/पृ. १०२ ( जिसकी सत्ताका निश्चय नहीं हुआ वह परीक्षा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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