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________________ स्थिति ४५८ ४. उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम ४. उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी नियम गो. क./जी.प्र./000/898/- ऐतेषु षट्सु सत्सु जीवो ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भूयो बध्नाति-प्रचुरवृत्त्या स्थित्त्यनुभागौ बध्नातीत्यर्थः । इन छह (प्रत्यनीक आदि ) कार्योंके होते जीव ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मको अधिक बाँधता है अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मकी स्थिति व अनुभागको प्रचुरता लिये बाँधे हैं। पं.ध./उ ||३७ स्वार्थ क्रियासमर्थोऽत्र बन्धः स्याद रससंज्ञिकः। शेषबन्धत्रि को ऽप्येष न कार्यकरणक्षमः ॥६३७१ =केवल अनुभाग नामक बन्ध ही बाँधने रूप अपनी क्रियामें समर्थ है। तथा शेषके तीनों बन्ध आरमाको बाँधने रूप कार्य करने में समर्थ नहीं हैं। १. मरण समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं ध. १२/४.२,१३.६/३७८/१२ चरिमसमये उक्कस्सद्विदिबंधाभावादो। =(नारक जीवके) अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अभाव है। ३. निषेक रचना १. निषेक रचना ही कर्मोकी स्थिति है ध,६/१,६-७,४३/२००/१० ठिदिबंधे णिसेयविरयणा परूबिदा। ण सा पदेसेहि विणा संभव दि, पिरोहादो। तदो तत्तो चेव पदेसबंधो वि सिद्धो।-स्थिति अन्धमें निषेकोंकी रचना प्ररूपण की गयी है। वह निषेक रचना प्रदेशों के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि, प्रदेशोंके बिना निषेक रचना माननेमें विरोध अाता है। इसलिए निषेक रचनासे प्रदेश बन्ध भी सिद्ध होता है। २. स्थितिबन्धमें संक्लेश विशुद्ध परिणामोंका स्थान पं.स./प्रा./४/४२५ सम्बढ़िदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंविलेसेण । बिबरीओ दु जहण्णो आउगतिगं बज्ज सेसाणं ॥४२॥-आयुत्रिकको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंकी स्थितियोंका उत्कृष्ट बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है और उनका जघन्य स्थितिबन्ध विपरीत अर्थात सक्लेशके कम होनेसे होता है। यहाँपर आयुत्रिकसे अभिप्राय नरकायुके मिना शेष तीन आयुसे है। (गो. क /मू./१३४/१३२); (६. सं./सं./४/२३६); (ल. सा./भाषा/१०/३). गो.क./जी.प्र./१३४४१३२/१७ तत्त्रयस्य तु उत्कृष्टं उत्कृष्ट विशुद्धपरिणामैन जघन्यं तद्विपरीतेन भवति। -तीन आसु (तिर्यग्, मनुष्य व देवायु) का उत्कृष्ट स्थितिमम्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थितिबन्ध उससे विपरीत अर्थात कम संपलेश परिणामसे होता है। २. स्थिति बन्धमें निषेकोंका त्रिकोण रचना सम्बन्धी नियम ३. मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्धक कौन क.पा.३/३-२२/६२२/१६/५ तत्थ ओघेण उपकस्सटिदी कस्स । अण्णदरस्स. जो चउट्ठाणिय जबमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिं बंधतो अच्छियो उपकस्ससंकिलेस गदो। तदो उपकस्सहिदी पबद्धा तस्त उक्कस्सयं होदि। -जो च सुस्थानीय यबमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिको बाधता हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है, ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। गो. क./मू./१२०-१२१/११०४ ओबाह बोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु । तत्तो विसैसहीणं विदियस्सादिमणिसेऔत्ति ।।२०। बिदिये विदियाणसेगे हाणी पुषितहाणि अर्धा तु । एवं गुणहाणि पडि हाणी अदचर्य होदि २१-कमौकी स्थितिमें आयाधा कालके पीछे पहले समय प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेक में महूत द्रव्य दिया जाता है। उसके ऊपर दूसरी गुणहानिका प्रथम निषेक पर्यत एक-एक चय घटता-घटता द्रव्य दिया जाता है ।२०। दूसरी गुणहानिके दूसरे निषेकउस हीके पहले निषेकसे एक चय घटता द्रव्य जानना। जो पहिली गुणहानिमें निषेक-निषेक प्रति हानि रूपचय था, तिसते दूसरी गुणहानिमें हानि रूप चयका प्रमाण आधा जानना । इस प्रकार ऊपर ऊपर गुणहानि प्रति हानिरूप चयका प्रमाण आधा-आधा जानना। गो, क./मु./१४०/११३६ उक्कास छिदिबधे सयजावाहा छ सब ठिदिरयणा। तकाले दीसदि तो धोधो बंधद्विदीर्ण च। -विवक्षित प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होनेपर उसी काल में उत्कृष्ट स्थितिकी आबाधा और सब स्थितिकी रचना भी देखी जाती है। इस कारण उस स्थितिके अन्तके निषेकसे नीचे-नीचे प्रथम निषेक पर्यंत स्थिति बन्ध रूप स्थितियोंकी एक-एक समय हीनता देखनी चाहिए। ४. उत्कृष्ट अनुमागके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी व्याप्ति ध. १२/४,२,१३,३१/३६०/१३ जदि उक्कस्सट्ठिदीए सह उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्स विसेसपच्चएण उक्करसाणुभागो परतो तो कालवेयणाए सह भावो वि उनकस्सो होदि। उक्कस्सविसेसपच्चयाभावे अणुक्कस्सामो चेव । यदि उत्कृष्ट स्थितिके साथ उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययरूप उत्कृष्ट संबलेशके द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग बाँधा गया है तो काल वेदना (स्थितिबग्य) के साथ भाव ( अनुभागी) भी उत्कृष्ट होता है । और (अगृभाग सम्बन्धी) उस्कृष्ट विदोष प्रत्ययके अभाव में भाव (अनुभाग) अनुत्कृष्ट ही होता है। (ध. १२/ ४,२,१३,४०/३६३/४)। ध, १२/४,२.१३.४०/३६३/६ उक्कस्स!णुभाग बंधमाणो णिच्छएण उक्कस्सियं चैव हिदि बंधदि, उक्कर ससंकिले सेण विणा उनकस्णुभागबंधाभावादो। = उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव निश्चयसे उत्कृष्ट स्थितिको ही बाँधता है, क्योंकि उस्कृष्ट संकिलेशके बिना उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध नहीं होता है। १. कर्म व नोकर्मकी निषेक रचना सम्बन्धी विशेष सूची १. चौदह जीवसमासोंमें मूल प्रकृतियोंकी अन्तरोपनिधा परम्परोपनिधाकी अपेक्षा पूर्णस्थितिमें निषेक रचना =म. बं. २/५-१६/६-१२) । २. उपरोक्त विषय उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा (म.बं. २/१६-२८/२२८-२२६) । ३. नोकर्मके निषकों की समुत्कीर्तना (ष,खं २/१६/सू./२४६-२४८/३३१)। ५. उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल क पा./१/३-२२/६५३८/३१६/३ कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिबंधुवलंभादौ । दोण्हमुहस्सट्ठिीणं विच्चालिमअणुकस्सट्ठिदिबंधकालो तासिमंतर' जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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