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________________ सुख ४३१ २. अलौकिक सुख निर्देश न. च. वृ./३६८...... अनुभवनं भवत्यात्मार्थम् ॥३६८१ = आत्मार्थ मुख आत्मानुभव रूप है । ( स्या, म./८/८६/१)। त. सा./८/४६ कर्मक्लेशविमोक्षाच मोक्षे सखमनुत्तमम् । कर्म जन्य क्लेशोंसे छूट जानेके कारण मोक्ष अवस्थामै जो सुख होता है, वह अनुपम सुख है। यो, सा, यो./१७ बज्जिय सयल-वियप्पई परम-समाहि लहति । जं विदहि साणंदु क वि सो सिव-सुक्ख भणति ।१७) = जो समस्त विकल्पोंसे रहित होकर परम समाधिको प्राप्त करते हैं, वे आनन्द का अनुभव करते हैं, वह मोक्ष सुख कहा जाता है ।। ज्ञा./२०/२४ अपास्य करणं ग्रामं यदारमन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिभिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिक मतम् ।२४। जो इन्द्रियों के विषयों के बिना ही अपने आत्मामें आत्मासे ही सेवन करने में आता है उसको ही योगीश्वरों ने आध्यात्मिक सुख कहा है ।२४। २. अव्याबाध सुखका लक्षण द्र, सं./टो./१४/४३/५ सहजशुद्धस्वरूपानुभवसमुत्पन्नरागादिविभाव रहितसुखामृतस्य यदेकदेशसंवेदनं कृतं पूर्व तस्यैव फलभूतमव्यामाघसुख भण्यते। स्वाभाविक शुद्ध आत्म स्वरूपके अनुभवसे उत्पन्न तथा रागादि विभावोसे रहित सुखरूपी अमृतका जो एक देश अनुभव पहले किया था, उसीके फलस्वरूप अव्यायाध अनन्तसुख गुण सिद्धों में कहा गया है। जीवोंके, कोढ़ी मनुष्योंके और मरने तथा मारने की इच्छा रखने बाले जीवोंके विष क्रमसे हित, सुख और प्रिय भावका कारण देखा जाता है। इसो प्रकार पत्थरे, घास, ईधन, अग्नि और सुधा आदिमें जहाँ जिस प्रकार पेज्ज भाव घटित हो वहाँ उस प्रकारसे पेज्ज भावका कथन कर लेना चाहिए । ...परमाणुको विशेष रूपसे जानने वाले पुरुषों के परमाणु हर्ष का उत्पादक है। दे. राग/२/५ मोहके कारण हो पदार्थ इष्ट अनिष्ट है । पं, ध./पू./५५३ सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् । सति बहिरर्थेऽपि यतः किल के चिदमुखादिहेतुत्वाव।५८३ =यहाँ पर यह संसारी सुख केवल वैषयिक है, तो भी पर विषयमें सापेक्ष नहीं है, क्योंकि निश्चयसे बाह्य पदार्थों के होते हुए भी किन्हींको वे असुखादिके कारण होते हैं ।५८३। ७. मुक्त जीवोंको लौकिक सुख-दु:ख नहीं होते प्र. सा./मू./२० सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स गरिथ देहगदं। जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु त णेयं ।२०। केवलज्ञानीके शरीर सम्बन्धी सुख या दुःख नहीं है, क्योंकि अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है, इसलिए ऐसा जानना चाहिए ।२०।। ध.१/१,१,३३/गा.१४०/२४८ ण वि इंदिय-करण-जुदा अवगहादीहि गाहया अत्थे । णेव य इंदिय-सोक्खा अणि दियाणतणाण-सुहा ।१४०। - वे सिद्ध जीव इन्द्रियों के व्यापारसे युक्त नहीं हैं, और अवग्रहादि क्षायोपशामिक ज्ञानके द्वारा पदाथोंका ग्रहण नहीं करते; उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है। क्योंकि उनका अनन्त ज्ञान व मुख अनिन्द्रिय है ।१४०। (गो, जी./भू./१७४) । स्या. म./८/६/३ मोक्षावस्थायाम, सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति । -मोक्ष अवस्थामें वैषयिक सुख भी नहीं है। ८. लौकिक सुख बतानेका प्रयोजन द्र. सं./टी./६/२३/१० अत्र यस्यैव स्वाभाविकसुखामृतस्य भोजनाभावादिन्द्रियसुखं भुञ्जानः सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातीन्द्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्रायः। यहाँ पर जिस स्वाभाविक सुखामृतके भोजनके अभावसे आत्मा इन्द्रियों के सुखोंको भोगता हुआ संसारमें भ्रमण करता है, वही अतीन्द्रिय सुख सब प्रकारसे ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है। ९. सुख व दुःखमें कथंचित् क्रम व अक्रम प.ध./उ./३३३-३३५ न चैकतः सुखव्यक्तिरेकतो दुःखमस्ति तत् । एकस्यैकपदे सिद्धमित्यनेकान्तवादिनाम ।३३३। अनेकान्तः प्रमाण स्थादर्थादेकत्र वस्तुनि। गुणपर्याययोद्वैताद गुणमुख्यव्यवस्थया ।३३४। अभिव्यक्तिस्तु पर्यायरूपा स्यात्सुखदुखयोः। तदात्वे तन्न तदद्वैतं द्वैत चेद् द्रव्यतः क्वचित् ।३३५॥ यह कहना ठीक नहीं कि एक आत्माके एक ही पदमें अनेकान्तवादियों के अंगीकृत किसी एक दृष्टिसे सुखकी व्यक्ति और किसी एक दृष्टिसे दुःख भी रहता है ।३३३। वास्तवमें एक वस्तुमें गौण और मुख्यकी व्यवस्थासे गुण पर्यायोंमें द्वैत होनेके कारण अनेकान्त प्रमाण है।३३४। परन्तु सुख और दुःखको अभिव्यक्ति पर्यायरूप होती है इसलिए उस सुख और दुःखको अवस्थामें वे दोनों युगपत् नहीं रह सकते। यदि उनमें युगपत द्वैत रहता है तो दो भिन्न द्रव्यों में रह सकता है पर्यायोंमें नहीं ॥३३॥ २. अलौकिक सुख निर्देश १. अलौकिक सुखका लक्षण म. पु./४२/११६...मनसो निवृति सौख्यम् उशन्तीह विचक्षणाः ॥११॥ - पण्डित जन मनकी निराकुलताको ही सुख कहते हैं । (प्र. सा/ त,प्र./५१) । ३. अतीन्द्रिय सुखसे क्या तात्पर्य स.सा./आ /४१५/५१०/७ हे भगवन् ! अतीन्द्रियसुख निरन्तर व्याख्यात भवद्भिस्तच्च जनैर्न ज्ञायते। भगवानाह-कोऽपि देवदत्तः स्त्रीसेवनाप्रभृतिपञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहितप्रस्तावे निव्र्याकुलचित्तः तिष्ठति, स केनापि पृष्टः भो देवदत्त ! सुखेन तिष्ठसि त्वमिति । तेनोक्त सुखमस्तीति तत्सुखमतीन्द्रियम् ।...यत्पुनः...समस्तविकल्पजालरहिताना समाधिस्थपरमयोगिना स्वसवेदनगम्यमतीन्द्रियसुख तद्विशेषेणेति। यच्च मुक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदनुमानगम्यमागमगम्यं च । -प्रश्न-हे भगवन ! आपने निरन्तर अतीन्द्रिय ऐसे मोक्ष सुखका वर्णन किया है, सो ये जगत्के प्राणी अतीन्द्रिय सुखको नहीं जानते हैं ! इन्द्रिय सुखको ही सुख मानते हैं। उत्तर --जैसे कोई एक देवदत्त नामक व्यक्ति, स्त्री सेवन आदि पंचेन्द्रिय व्यापारसे रहित, व्याकुल रहित चित्त अकेला स्थित है उस समय उससे किसीने पूछा कि हे देवदत्त, तुम मुखी हो, तब उसने कहा कि हाँ सुखसे हूँ। सो यह सुख अतीन्द्रिय है। (क्योंकि उस समय कोई भी इन्द्रिय विषय भोगा नहीं जा रहा है।) ...और जो समस्त विकल्प जालसे रहित परम समाधिमें स्थित परम योगियों के निर्विकल्प स्वसंवेदनगम्य वह अतीन्द्रिय सुख विशेषतासे होता है। और जो मुक्त आत्माके अतोन्द्रिय सुख होता है, वह अनुमानसे तथा आगमसे जाना जाता है। (प.प्र./टी./२/81 ४. सुख वहाँ है जहाँ दुःख न हो आ. अनु./४६ स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । ...४६ -धर्म वह है जिसके होने पर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दुःख न हो...। पं.ध./उ./२२४ नैवं यतः सुखं नैतत् तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छभं यत्र नाशुभम् ॥२४४-ऐहिक सुख नहीं है, क्योंकि वास्तवमें वही सुख है, जहाँ दुःख नहीं, वही धर्म है जहाँ अधर्म नहीं है, वही शुभ है जहाँ पर अशुभ नहीं है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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