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________________ शुक्लध्यान ३६ ३. शुक्लध्यानों का स्वामित्व व फल आश्रय लेने वाले प्रथम शुक्ल ध्यानसे भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओंको विषय करते हैं अतः इनसे भी यह दूसरा शुक्ल ध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है। इस ध्यान का स्वामित्व क्षीण कषायवाला मुनि है पहले ध्यानका स्वामित्व उपशान्त कषायवाला मुनि है और तीसरे तथा चौथे शुक्लध्यानका स्वामित्व सयोग केवली तथा अयोग केवली मुनि है । अतः स्वामित्वकी अपेक्षासे दूसरा शुक्लध्यान इन ध्यानोंसे भिन्न है। (भ. आ./ वि./१८८२/१६८५/४)। ५. शुक्ल ध्यानमें सम्मव भाव व लेश्या चा. सा./२०५/५ तत्र शुक्लतरलेश्यावलाधानमन्तर्मुहर्तकाल परिवर्तन क्षायोपशमिकभावम् । यह ध्यान शुक्लतर लेश्याके बलसे होता है और अन्तर्मुहूर्त कालके बाद बदल जाता है ! यह क्षायोपशमिक भाव है। ३. शुक्लध्यानोंका स्वामित्व व फल 1. पृथक्त्व वितर्कवीचारका स्वामित्व भ. आ./न.१८८१ जम्हा सुदं वितक्क जम्हा पुनगद अत्थ कुसलो य । ज्झायदि ज्माण एद' सवितक्कं तेण तंभाणं १८८११-इस ध्यानका स्वामी १४ पूर्वोके ज्ञाता मुनि होते हैं। (त. सू./६/३७) (म. पु/ २१/१७४)। स. सि./8/४१/४४४/११ उभयेऽपि परिप्राप्तश्रुतज्ञानमिष्ठेनारम्ये ते इत्यर्थः । जिसने सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं। (रा. वा./६/४१/२/६३३/ २०); (ज्ञा./४२/२२)। ध, १३/५.४,०६/७८/७ उवसंतकसायवोयरायछमत्थो चोद्दस-दस-णबपुबहरो पसत्थति विहसंघडणो कसाय-कलं कत्तिण्णो तिसु जोगेसु एकजोगम्हि वट्टमाणो। ध. १३/५,४,२६/८१/८ ण च वीणकसायाए सम्वत्थ एयत्तविदकाबीचारज्माणमेव...। १. चौदह, दस, नौ पूर्वोका धारी, प्रशस्त तीन संहननवाला, कषाय कलं कसे पारको प्राप्त हुआ और तीनों योगों में किसी एकमें विद्यमान ऐसा उपशान्त कषाय वीतरागछमस्थ जीव । २. क्षीणकषायगुणस्थान के काल में सर्वत्र एकत्व वितर्क अविचार ध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। ( अर्थात् वहाँ पृथक्त्व वितर्क ध्यान भी होता है । दे. शुक्लध्यान/३/३ ॥ चा. सा./२०६/१ चतुर्दशदशनवपूर्वधरयतिवृषम निषेव्यमुपशान्तक्षीणकषायभेदात् । - चौदह पूर्व, दशपूर्व अथवा नौ पूर्व को धारण करनेवाले उत्तम सुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है और उपशान्त कषाय तथा क्षीण कषायके भेदसे...1 द्र. सं./टो./२०४/१ तच्चोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमकानिवृत्युपशम कसूक्ष्मसाम्परायोपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । क्षपकश्रेण्या पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्परायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथम शुक्लध्यानं व्याख्यातं । यह प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणिकी विवक्षामें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्परायउपशमक तथा उपशान्तकषाय इन चार गुणस्थानों में होता है। क्षपक श्रेणिकी विवक्षामें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायक्षपक इन तीन गुणस्थानों में होता है। २. एकत्ववितर्क अवीचार ध्यानका स्वामित्व भ, आ,/मू./२०६६/१८१२ तो सो वीणकसाओ जायदि स्त्रीणामु लोभ- किट्ठी । एप्रत्त वितकावीचार तो झादि सो काणं == जब संज्वलन लोभकी सूक्ष्मकृष्टि हो जाती है, और क्षीणकषाय गुणस्थान प्राप्त होता है तब मुनिराज एकत्व वितर्क ध्यानको ध्याते हैं। (ज्ञा./४२/२५) । दे. शुक्लध्यान/३/१ में. स. सि. पूर्वोके ज्ञाताको ही यह ध्यान होता है । ध. १/५,४,२६/७६/१२ खीण कसाओ सुक्कले स्सिओ ओघबलो ओघसरो वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणो अण्णदरसंठाणो चोहसपुव्वधरो दसपुवहरो णव पुत्रहरी बा खड्यसम्माइछी खविदासेसकसाय वग्गो । ध. १३/३,४,२६१८१/७ उवसंतकसायम्मि एयत्त विदक्काविचारं । १. जिसके शुक्ल लेश्या है, जो निसर्गसे बलशाली है, निसर्ग से सूर है, वज्रऋषभनाराच संहननका धारी है, किसी एक संस्थानाला है, चौदह पूर्वधारी है, दश पूर्वधारी है या नौ पूर्वधारी है, क्षायिक सम्यग्दृष्टि है और जिसने समस्त कषाय बर्गका क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही समस्त कषायोंकाक्ष्य करता है । २, उपशान्त कषाय गुणस्थानमें एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान होता है। चा, सा./२०६ पूर्वोक्तक्षीणकषायावशिष्ट कालभूमिकम...। - पहिले कहे हुए क्षीण कषायके समयसे बाकी बचे हुए समयमें यह दूसरा शुक्लध्यान होता है। द्र. सं.टी/४८/२०४/७ क्षीण कषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं । -दूसरा शुक्लध्यान क्षीणकषाय गुणस्थानमें ही सम्भव है। ३. उपशान्त कषायमें एकत्ववितर्क कैसे ध. १३/५,४,२६/८१/७ उवसंतकसायम्मि ऐयत्तविदकवीचारसंते 'उपसंतो दु पुधत्तं' इच्चेदेण विरोहो होदि त्ति णासंकणिज्ज, तस्थ पुधत्तमेवे त्ति णियमाभावादो। ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदकावीचारज्माणमेव, जोगपराबत्तीए एगसमयपरूवणण्णहाणुववत्तिबलेण तदबादीए पुत्तिविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो। -प्रश्न-यदि उपशान्त कषाय गुणस्थानमें एकत्व वितर्क वीचार ध्यान होता है तो 'उब संतो दु प्रधत्तं' इत्यादि गाथा वचनके साथ विरोध आता है 1 उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उपशान्त कषाय गुणस्थान में केवल पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। और क्षीणकषाय गुणस्थान कालमें सर्वत्र एकत्व अवितर्क ध्यान ही होता है, ऐसी भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ योग परावत्तिका कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। इससे क्षीणकषाय काल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका अस्तित्व भी सिद्ध होता है। ४. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती व समुच्छिन्न क्रिया निवृत्तिका स्वामित्व त. सू./६/३८, ४० परे केवलिनः ॥३८.. योगायोगानाम् ॥४०॥ स. सि./६/४०/४५४/७ काययोगस्य सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति । - काययोगबाले केवलिके सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है और अयोगी केवलीके व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यान होता है । ( स. सि. ६/३/४५३/६ ); (रा. वा./६/३८,४०/१,२/८,२१) ! दे. शुक्लध्यान/१/७,८ सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त कालमें जब भगवान स्थूल योगोंका निरोध करके सूक्ष्म काययोगमें प्रवेश करते हैं तब उनको सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है। और अयोग केवली गुणस्थान में योगीका पूर्ण निरोध हो जानेपर समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्ल ध्यान होता है। ५. स्त्री को शुक्लध्यान सम्भव नहीं सू. पा./मू./२६ चित्तासोहि ण तेसिं दिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसि इत्थीसुण संकया भाणा ।२६।-स्त्रीके चित्तकी शुद्धि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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