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________________ सामायिक परिपूर्ण करनेका कारण है. इसलिए उसे प्रतिदिन ही आलस्यरहित और एकाग्रचित्त से यथानियम करना चाहिए । दे. सामायिक / ३/४ - [ सामायिक व्रतसे मुनि की शिक्षाका अभ्यास होता है । ] ७. सामायिक व्रतका महत्व ज्ञा./२४/रतो. साम्यभाषितभावानां स्यारसुखं यन्मनीषिणाम्। तन्मन्ये ज्ञानसाम्राज्यसमत्वमवलम्बते | १४ | शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैराः परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः | २०| क्षुभ्यन्ति ग्रहयक्ष किन्नरनरास्तुष्यन्ति नाकेश्वराः, मुञ्चन्ति द्विपदेश्य सिंहशरभव्यालादयः क्रूरताम् । रुग्वैरप्रतिबन्धविभ्रमभयभ्रष्टं जगज्जायते, स्याद्योगीन्द्रसमत्व साध्यमथवा किं किं न सद्यो भुवि | २४| -साम्यभारसे पदार्थोंका विचार करने वाले बुद्धिमाद पुरुषों के जो सुख होता है सो मैं ऐसा मानता हूँ कि वह ज्ञानसाम्राज्य ( केवलज्ञान ) की समताको अवलम्बन करता है अर्थात् उसके समान है | १४ | इस साम्यके प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनिके निकट परस्पर वैर करनेवाले क्रूर जीव भी साम्यभावको प्राप्त हो जाते हैं | २०| समभावयुक्त योगीश्वरों के प्रभावसे ग्रह यक्ष किन्नर मनुष्य ये सब क्षोभको प्राप्त नहीं होते हैं और इन्द्रगण हर्षित होते हैं । शत्रु, देश्य, सिंह, अष्टापद सर्प इत्यादि क्रूर प्राणी अपनी क्रूरताको छोड़ देते हैं, और यह जगत रोग, बेर, प्रतिबन्ध विग, भय आदिकसे रहित हो जाता है। इस पृथिवोमें ऐसा कौन-सा कार्य है, जो योगीश्वरोंके समभावों से साध्य न हो |२४| दे, सामाजिक/३/४ [ सामायिक होता है । ] दे, सामायिक / ४ / ३ [ एक सामायिकमें सकल व्रत गर्भित हैं । ] ८. सामायिक व्रतके अतिचार कासमें गृहस्थ भी साधु तुभ्य त. सू. /७/३३ योगदुष्प्रणिवानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । ३३॥ = काययोगदुष्ट विधान वचनयोगप्रणिधान मनोयोगप्रविधान अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान मे सामायिक अटके पाँच अतिचार हैं | ३३ | ( र. क. श्रा./१०५); (चा. सा./२० / ३ ); (सा. घ./५/३१) । ४. सामायिक चारित्र निर्देश १. सामायिक चारित्रका लक्षण १. रागद्वेषादि से निवृत्ति व समता यो. सा. / यो / ६६ - १०० सत्वे जीवा णाणमया जो समभाव मुणेइ । सो सामाइय जाणि फुडु जिगवर एम भणेइ || रायरोस वि परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ । सो सामाइय जाणि फुडु केवलि एक भणेइ | १०० = समस्त जीवराशिको ज्ञानमयी जानते हुए उसमें समता भाव रखना ( अर्थात् सबको सिद्ध समान शुद्ध जानना - दे, सामावि/१/१) अथवा रागद्वेषको छोड़कर जो समभाव होता है, वह निश्चयसे सामायिक है । ६६-१००१ (द्र.सं./टी./३५/१४७/४) द्र.सं./टी./३५/१४७/७ स्त्रशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्त रौद्रपरित्यागरूपं वा समस्तमुखदुःखादि मध्यस्थरूपं वा स्व शुद्धात्माकी अनुभूतिके बलसे आर्त रौद्रके परित्यागरूप अथवा समस्त सुख दुःख आदिमें मध्यस्थभाव रखनेरूप है । २. रत्नत्रयमें एकाग्रता स. सा. // १५४ सम्यग्दर्शनज्ञानचा स्विभाव परमार्थ भूतज्ञानभवनमात्रे का क्षण समयसारभूतं सामायिक प्रतिज्ञायाचि] [...]-]] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वभावमाता परमार्थभूत जो ज्ञान, उसकी Jain Education International ४. सामायिक चारित्र निर्देश भवनमात्र अर्थात् परिणमन होनेमात्र जो एकाग्रता, वह ही जिसका लक्षण है, ऐसी समय-सारस्वरूप सामायिककी प्रतिज्ञा लेकरके भी... ३. सर्व साय निवृत्ति रूप सकल संयम पं.सं./प्रा./१/१२६ संगहिय-सयल संजममेयजमणुत्तरं दुरवगमं । जीवो समुपतो सामान्य जदो हो । १९२६ - जिसमें सकल संयम संगहोत हैं, ऐसे सर्व सावद्य के त्यागरूप एकमात्र अनुत्तर एवं दुःखगम्य अभेद संयमको धारण करना, सो सामायिकसंयम है और उसे धारण करनेवाला सामायिक संयत कहलाता है। . १/१. १. १२३ / गो १८७/३७२ ) ; ( रा. वा./६/१८/२/६१६/२८ ) ३६६ / २ ) ; ( गो. जी./मू./४७०/८०६) । स.सि./६/१८/४३६/५ सामाविमुक्तक्य 'दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक' - इत्यत्र -सामायिक चारित्रका कथन पहिले दिग्देश आदि व्रतोंके अन्तर्गत सामायिक व्रतके नामसे कर दिया गया है कि [सर्व सामय योगकी निवृत्ति सामायिक है- ( दे. सामायिक/ 9/8)] 1 ( ध १/१, १, १२३ / २. नियत व अनियतकाल सामायिक निर्देश स.सि./१/१८/४३६/२ तह द्विविधं नियतकालमनियतकाले च स्वाध्या यपद नियतकालम् । ईर्यापथाद्यनियतकालम् । १- वह सामायिक चारित्र दो प्रकारका है-नियतकाल में अनियतकाल (व. सा./ ६/४५ ) ; ( चा. सा./११/२) । २ - स्वाध्याय आदि [ कृतिकर्म पूर्वक आसन आदि लगाकर पंच परमेष्ठी आदिके स्वरूपका या निजामाका चिन्तन करना (दे, सामाजिक / २)] नियतकाल सामायिक है और ईर्याय आदि अनियतकाल सामायिक है। रा.वा./१/१८/२/६१६/२८ सर्वस्य सावद्ययोगस्याभेदेन प्रत्याख्यानमवसमय प्रवृत्तमयभूतकालं वा सामायिकमित्याख्यायते । - सर्व सावद्य योगों का अभेदरूपसे सार्वकालिक त्याग करना अनियत काल सामायिक है और नियत समयतक त्याग करना सो नियतकाल सामायिक है। नोट - [ यद्यपि चा, सा. में व्रतके प्रकरण में सामायिकके ये दो भेद किये हैं. पर यहाँ लक्षण निकाल सामायिकका ही दिया है, अनियत काल सामाविकका नहीं। इसलिए दो भेद सामायिक चारित्र के ही है, सामायिके नहीं, क्योंकि अभ्यस्त दशा में रहनेके कारण गृहस्थ या अणुवती श्रावक सार्वकालिक समता या सर्व सावध से निवृत्ति करने को समर्थ नहीं है । ] ३. सामायिक चारित्रमें संयमके सम्पूर्ण अंग समा जाते हैं घ. १ / १,१.१२३/३६६/५ आक्षिप्ताशेषरूपमिदं सामान्यमिति कुतोऽवसीयत इति चेत्सर्ववयोगोपादानात नोकस्मित सर्वशब्दः विरोधास्वाविशेषसंयमवि कथमः सामायिकशुद्धिसंधन इति यावत्तानामेकत्वमापाद्य एकमो पादाना व्याधियः । प्रश्न- यह सामान्य संयम अपने सम्पूर्ण भेदोंका संग्रह करनेवाला है, यह कैसे जाना जाता है ! उत्तर- 'सर्वसाधयोग' पदके ग्रहण करनेसे ही, यहाँपर अपने सम्पूर्ण भेदों ग्रह कर लिया गया है, यह बात जानी जाती है । यदि यहाँपर सयमके किसी एक भेदकी ही मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि, ऐसे स्थल पर 'सई' शब्द प्रयोग करनेमें विरोध जाता है। इस कथनसे यह के सिद्ध हुआ कि जिसने सम्पूर्ण संयम के भेदों (यत समिति गुठि बादिको अपने अन्तर्गत कर लिया है ऐसे अनेदरूपसे एक यमको धारण करनेवाला जीव सामायिक शुद्धि-संयत कहलाता है। उसी में दो तीन आदि भेद डालना छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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