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________________ साधु ४०३ १. साधु सामान्य निर्देश पुलाक व पार्श्वस्यादि साधु पुलाकादि व पावस्थादिका नाम निर्देश -दे, साधु/१/४/३। पुलाकादि व पावस्थादिके लक्षण-दे. वह वह नाम । पुलाकादिमें संयम श्रुतादिकी प्ररूपणा । पुलकादिमें संयम लब्धिस्थान । पुलाकादि पाँचों निर्ग्रन्थ हैं। पुलाकादिके निर्ग्रन्थ होने सम्बन्धी शंकाएँ। ५ । निर्ग्रन्थ होते हुए भी इनमें कृष्णलेश्या क्यों । पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं। पाँचोंके भ्रष्टाचारको प्ररूपणा । | पावस्यादिको संगतिका निषेध । प्र. सा./त.प्र./२०३ विरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात श्रमणम् । __-विरतिकी प्रवृत्तिके समान ऐसे श्रामण्यपनेके कारण श्रमण हैं। पं.ध./उ./६७१ वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभः। दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः।६७१४-वैराग्यकी पराकाष्ठाको प्राप्त होकर प्रभावशाली दिगम्बर यथाजात रूपको धारण करनेवाले तथा दयापरायण ऐसे साधु होते हैं। २. साधुके अनेकों सामान्य गुण ध.१/१.१.१/गा. ३३/५१ सोह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरूवहिमंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परम-पय-विमरगया साहू ॥३३॥ - सिंहके समान पराक्रमी, गजके समान स्वाभिमानी या उन्नत, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृगके समान सरल, पशुके समान निरीह गोचरी वृत्ति करनेवाले, पवनके समान नि:संग या सब जगह बे-रोकटोक विचरनेवाले, सूर्यके समान तेजस्वी या सकल तत्त्वोंके प्रकाशक, सागरके समान गम्भीर, मेरु सम अकम्प व अडोल, चन्द्रमाके समान शान्तिदायक, मणिके समान प्रभाजयुक्त, क्षितिके समान सर्व प्रकारकी बाधाओंको सहनेवाले, सर्प के समान अनियत वसतिकामें रहनेवाले, आकाशके समान निरालम्बी व निलेप और सदाकाल परमपदका अन्वेषण करनेवाले साधु होते हैं ।३३।। दे. तपस्वी- [विषयोंकी आशासे अतीत, निरारम्भ, अपरिग्रही तथा ज्ञान-ध्यानमें रत रहनेवाले ही प्रशस्त तपस्वी हैं । वही सच्चे गुरु हैं। (और भी दे. साधु/३/१)। ३. साधुके अपर नाम दे. अनगार-[श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त व यति उसके नाम हैं। दे, श्रमण-श्रमणको यति मुनि वे अनगार भी कहते हैं। आचार्य उपाध्याय व साधु | आचार्य, उपाध्याय, साधुके लक्षण-दे. बह वह नाम । चारित्रादिकी अपेक्षा तीनों एक हैं। | चत्तारिदण्डक में 'साधु' शब्दसे तीनोंका ग्रहण -दे, मन्त्र/२। | तीनों एक ही आत्माकी पर्याय हैं। ३ तीनोंमें कथंचित् भेद । | श्रेणी आदि आरोहणके समय इन आधियोंका त्याग ।। १. साधु सामान्य निर्देश १. साधु सामान्यका लक्षण मू. आ./५१२ णिबाणसाधर जोगे सदा जुजति साधवो। समा सम्बेसु भूदेसु तम्हा ते सवसाधको १५१२। मोक्षको प्राप्ति करानेवाले मूलगुणादिक तपश्चरणोंको जो साधु सर्वकाल अपने आत्मासे जोड़े और सर्व जीवों में समभावको प्राप्त हो इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं ।५१२॥ स. सि./६/२४/४४२/१० चिरप्रवजितः साधुः।-[तपस्वी शैक्षादिमें भेद दरशाते हुए] जो चिरकालसे प्रवजित होता है उसे साधु कहते हैं। (रा. वा./६/२४/११/६२३/२४); (चा. सा./१५१/४)। द्र. सं./मू./५४/२२१ दसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं । साधयदि णिच्चसुद्ध साहू स मुणो णमो तस्स ।५४ =जो दर्शन और ज्ञानसे पूर्ण मोक्षके मार्गभूत सदाशुद्ध चारित्रको प्रकटरूपसे साधते हैं वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं। उनको मेरा नमस्कार हो।४। (पं.ध। उ./६६७)। क्रियाकलाप/सामायिक दण्डककी टी./३/१/१/१४३ ये व्याख्यायन्ति न शास्त्रं न ददाति दोक्षादिकं च शिष्याणाम्। कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेऽत्र साधवी ज्ञेयाः ।जो न शास्त्रों की व्याख्या करते हैं और न शिष्योंको दीक्षादि देते हैं। कर्मों के उन्मूलन करनेको समर्थ ऐसे ध्यानमें जो रत रहते हैं वे साधु जानने चाहिए। (पं.ध./उ./६७०)। ४. साधुके अनेकों भेद १. यथार्थ व अयथार्थ दो भेद दे. श्रमण-[ श्रमण सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी।] २. यथार्थ साधुके भेद प्र. सा./मू./२४५ समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुता य होंति समयम्हि । तेसु वि सुदधुबजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ।२५४।-शास्त्रों में ऐसा कहा है कि श्रमण शुद्धोपयोगी भी होते हैं और शुभोपयोगी भी। उनमें शुद्धोपयोगी (वोतराग) निरास्त्रव हैं और शुभोपयोगी ( सराग) सास्रव हैं । (दे, श्रमण ) म. आ./१४८ गिहिदत्थेय विहारो विदिओऽगिहिदत्थसं सिदो चेव । एत्तो तदियविहारो णाण्णुण्णादो जिणवरेहि १४८- जिसने जीवादि तत्त्व अच्छी तरह जान लिये हैं ऐसा एकलविहारी और दूसरा अगृहीतार्थ अर्थात जिसने तत्त्वों को अच्छी तरह ग्रहण नहीं किया है. इन दोके अतिरिक्त तीसरा विहार जिनेन्द्रदेव ने नहीं कहा है। इनमें से एकलविहारी देशान्तरमें जाकर चारित्रका अनुष्ठान करता है और अगृहीतार्थ साधुओं के संघमें रहकर साधन करता है। चा, सा.४६/४ भिक्षवो जिनरूपधारिणस्ते बहुधा भवन्ति अनगारा यतव्यो मुनय ऋषयश्चेति । = जिन रूप धारी भिक्षु, अनगार, यति, मुनि, ऋषि आदिके भेदसे बहुत प्रकारके हैं । (ओर भी दे. साधु/१/३); (प्र.सा./ता.वृ./२४६/११); (और भी दे. संघ)। दे. सल्लेखना/३/१ [ जिनकल्पविधिधारी क्षपकका निर्देश किया गया है। ] दे. छेदोपस्थापना/६ [भगवान् वीरके तीर्थ से पहले जिनकल्पी साधु भी सम्भव थे पर अब पंचमकाल में केवल स्थविरकल्पी ही होते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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