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________________ शुक्ल ध्यान १. भेद व लक्षण शुक्ल व धर्मध्यानके फलमें अन्तर -दे. धर्मध्यान/३।५। * ध्यानकी महिमा --दे, ध्यान/२। * स्थितिरूपशुक्लध्यानम् । = ध्यान-ध्येय-ध्याता, ध्यानका फल आदिके विविध विकल्पोंसे विमुक्त, अन्तर्मुखाकार, समस्त इन्द्रिय समूहके अगोचर निरंजन निज परमतत्व में अविचल स्थितिरूप वह निश्चय शुक्लध्यान है। (नि. सा./ता../८१)। प्र. सा./ता. वृ./८/१२ रागादि विकल्परहितस्वस वेदनज्ञानमागमभाषया शुक्लध्यानम् । रागादि विकल्पसे रहित स्वसंवेदन ज्ञानको आगम भाषामें शुक्लध्यान कहा है। द्र. सं./टी./४८/२०५/३ स्वशुद्वात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्ल ध्यानम् । निज शुद्धामा में विकल्प रहित समाधिरूप शुक्लध्यान है। भा. पा. टी./७८/२२६/१८ मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुगलम् । - मल रहित आत्माके परिणामको शुक्ल कहते हैं। २. शुक्लध्यानके भेद शंका-समाधान संक्रान्ति रहते ध्यान कैसे सम्मव है। प्रथम शुक्लध्यानमें उपयोगकी युगपत् दो धाराएँ -दे. उपयोग/II/३/१॥ २ | योग संक्रान्तिका कारण । योग संक्रान्ति बन्धका कारण नहीं रागादि है। प्रथम शुक्लध्यानमें राग अव्यक्त है -दे. राग/३ । * | केवलीको शक्लध्यानके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ -दे, केवली/६। * orm * १. भेद व लक्षण १. शुक्लध्यान सामान्यका लक्षण स. सि./६/२८/४४५/११ शुचिगुणयोगाच्छक्लम् । (यथा मलद्रव्यापा यात शुचिगुणयोगाच्छुकलं वस्त्र तथा तद्गुगसाधादात्मपरिणामस्वरूपमपि शुक्ल मिति निरुच्यते । रा. वा.)1- जिसमें शुचि गुणका सम्बन्ध है वह शुक्ल ध्यान है। [जैसे मैल हट जानेसे वस्त्र शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मल गुणयुक्त आत्म परिणति भी शुक्ल है। रा. वा. ) ( रा वा./६/२८/४/६२७/३१)। ध. १३/५,४,२६/७७/६ कुदो एदस्स मुक्कत्तं कसायमलाभावादो। कषाय मलका अभाव होनेसे इसे शुक्लपना प्राप्त है। का. अ./मू./४८३ जत्थ गुणा सुविसुद्धा उपसम-खमणं च जत्थ कम्माणं । लेस्सावि जत्थ सुक्का सं सुक्कं भण्णदे माणं ।४८३-जहाँ गुण अतिविशुद्ध होते हैं. जहाँ कोका क्षय और उपशम होते हैं, जहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है उसे शुक्लध्यान कहते हैं ।४८३॥ ज्ञा./४२/४ निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । अन्तर्मुख च यश्चित्तं तच्छक्लमिति पठ्यते ।४। शुचिगुणयोगाचारलं कषायरजसः क्षयादुपशमाद्वा । वैडूर्यमणि शिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च १-१. जो निष्क्रिय व इन्द्रियातीत है। 'मैं ध्यान करू" इस प्रकारके ध्यानकी धारणासे रहित हैं, जिसमें चित्त अन्तर्मुख है वह शुक्लध्यान है।४। २. आत्माके शुचि गुण के सम्बन्धसे इसका नाम शुक्ल पड़ा है। कषायरूपी रजके क्षयसे अथवा उपशमसे आत्माके सुनिर्मल परिणाम होते हैं, वही शुचिगुणका योग है। और वह शुक्लध्यान वैडूर्यमणिकी शिखाके समान सुनिर्मल और निष्कप है। (त. अनु./ २२१-२२२)। द्र. सं./म./५६ मा चिटुह मां जपह मा चिन्तह किविजेण होइ थिरो।। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव पर हवे ज्झाणं ।५६-हे भव्य ! कुछ भी चेष्टा मत कर, कुछ भी मत बोल, और कुछ भी चिन्तवन मत कर, जिससे आरमा निजात्मामें तल्लीन होकर स्थिर हो जावे, आत्मामें लोन होना ही परम ध्यान है। नि. सा./ता वृ./१२३ ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादि विविधविकल्पनिर्मक्तान्तर्मुखाकार निखिलकरणग्रामगोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचल भ. आ./म्./१८७८-१८५६ ज्झाणं पुधत्तसवितकसविचार हवे पढममुक्कं । सवितक्के क्वत्तावीचार ज्माण विदियसुक्क ११८७८। सुहुमकिरियं खु तदियं मुक्कज्माणं जिणेहिं पण्णत्तं । बैंति चउत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्णकिरियं तु ।१८७६-प्रथम सवितर्क सविचार शुम्लध्यान, द्वितीय सवितर्केकत्ववीचार शुक्लध्यान, तीसरा सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान, चौथा समुच्छिन्न क्रिया नामक शुक्लध्यान कहा गया है। (मू. आ./2०४-४०५); (त. सू./8/३६); (रा. वा./१/७/१४/४०/ १६); (ध. १३/५.४,२६/७७/१०); (ज्ञा./४२/६-११); (द्र. सं./टी./ ४८/२०३/३)। चा. सा /२०३/४ शुक्लध्यानं द्विविध, शुक्लं परमशुक्ल मिति। शुक्लं द्विविध पृथक्त्ववितकेवीचारमेकत्व वितर्कावीचामिति । परमशुक्ल द्विविधं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसमुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिभेदात् । तल्लक्षणं द्विविध, बाह्यमाध्यात्मिकमिति । शुक्लध्यानके दो भेद हैं--एक शुक्ल और दूसरा परम शुक्ल । उसमें भी शुक्लध्यान दो प्रकारका है-पृथक्त्ववितर्क विचार और दूसराएकत्ववितर्क अविचार। परम शुक्ल भी दो प्रकार का है-सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती और दूसरा समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति । इस समस्त शुमल ध्यानके लक्षण भी दो प्रकार है-एक बाह्य दूसरा आध्यात्मिक ।। ३. बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यानका लक्षण चा, सा./२०३/५ गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहित जम्भजम्भोद्गारादिवजितमनभिव्यक्तप्राणापानप्रचारत्वमुच्छिन्नप्राणापानप्रचारत्वमपराजितत्वं बाह्य, तदनुमेयं परेषामात्मनः स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं तदुच्यते । -शरीर और नेत्रों को स्पन्द रहित रखना, जंभाई जम्भा उद्गार आदि नहीं होना, प्राणापानका प्रचार व्यक्त न होना अथवा प्राणापानका प्रचार नष्ट हो जाना बाह्य शुक्लध्यान है। यह बाह्य शुक्लध्यान अन्य लोगोंको अनुमानसे जाना जा सकता है तथा जो केवल आत्माको स्वसंवेदन हो वह आध्यात्मिक शुक्लध्यान कहा जाता है। ४. शून्यध्यानका लक्षण ज्ञानसार/३७-४७ किं बहुना सालम्ब परमार्थेन ज्ञात्वा । परिहर कुरु पश्चात ध्यानाभ्यासं निरालम्बम् ।३७ तथा प्रथम तथा द्वितीयं तृतीयं निश्रेणिकायर्या चरमाना । प्राप्नोति समुच्चयस्थानं तथायोगी स्थूलतः शून्याम् ।३८। रागादिभिः वियुक्तं गतमोह तत्वपरिणतं ज्ञानम् । जिनशासने भणितं शून्यं इदमीदृश मनुते ।४१। इन्द्रियविषयातीत अमन्त्रतन्त्र-अध्येय-धारणाकम् । नभःसदृशमपि न गगनं तव शून्य केवलं ज्ञानम् ।।२। नाहं कस्यापि तनयः न कोऽपि मे आस्त अहंच एकाकी। इति शून्य प्रधान ज्ञाने लभते योगी पर स्थानम् ।४३। मनवचन-काय-मत्सर-ममत्वतनुधनकलादिभिः शून्योऽहम् । इति शून्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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