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________________ सम्यग्दृष्टि * * सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे. मार्गणा। इस गुणस्थानमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व -दे. वह वह नाम। अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमामें अन्तर -दे. दर्शन प्रतिमा। अविरत सम्यग्दृष्टि और पाक्षिक श्रावकमें कथंचित् समानता -दे. श्रावक/३ । पुनः पुनः यह गुणस्थान प्राप्तिकी सीमा -दे. सम्यग्दर्शन/I/१/७॥ असंयत सम्यग्दृष्टि वन्ध नहीं -दे, विनय/४ । अविरत भी वह भोक्षमार्गी है -दे. सम्यग्दर्शन/I10 * १. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश १. सम्यग्दृष्टिका लक्षण मो. पा./मू./१४ सद्दव्बरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण ख वेह दुठ्ठठकम्माई।१४। - जो साधु अपनी आत्मामें रत है अर्थात रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि है। सम्यक्त्व भावसे युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्ट कोका क्षय करते हैं । (भा. वा././३१) प.प्र./मू./१/७६ अप्पि अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिवि हवेह । सम्माइट्ठिा जीवडउ लहु कम्मई मुच्चेइ १७६। अपनेको अपनेसे जानता हुआ यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होता हुआ शीघ्र ही कर्मोंसे छूट जाता है। दे. सम्यग्दर्शन/II/१/१/६ [ सूत्र प्रगीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धिसे जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है। ] दे. नियति/१/२ [ जो जन जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ ते से ही होता है, इस प्रकार जो मानता है यह सम्यग्दृष्टि है। दे. सम्यग्दृष्टि/(वैराग्य भक्ति आत्मनिन्दन युक्त होता) २. सिद्धान्त या आगमको भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश ध, १३/५.१,५०/११ सभ्यरहश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः ' अनया इति सम्यग्दृष्टिः श्रुतिः सम्यग्दृश्यन्ते अनया जीवादयः पदार्थाः इति सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दृष्टयविनाभाववद्वा सम्यग्दृष्टिः । - इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकारसे देखे जाते हैं अर्थात जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धान्त) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है । इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकारसे देखे जाते है अर्थात श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुतिका अविनाभात्र होनेसे उसका नाम सम्यग्दृष्टि है २. सम्यग्दृष्टिकी महिमाका निर्देश २. सम्यग्दृष्टिकी महिमाका निर्देश १. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं स. सा./मू./१२८ णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायए भावो । जम्हा तम्हा णाणिस्स सब्वे भावाहुणाणमया। क्यों कि ज्ञानमय भावों मेंसे ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं, इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव वास्तबमें ज्ञानमय ही होते हैं । १२८ (स.सा./आ./१२८/क.६७); पं.ध./उ./२३१ यस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिना ज्ञान निवृताः। अज्ञानमयभावानां नाबकाशः सुदृष्टिषु ।२३१। -क्योंकि ज्ञानियों के सर्वभाव ज्ञानमयी होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों में अज्ञानमयी भाव अवकाश नहीं पाते। २. वह सदा निरास्रव व अबन्ध है स, सा.मू./१०७ चउविह अणेयभेहं बंधते णाणदसणगुणे हिं। समए समए जम्हा तेण अबंधोत्ति णाणी दू । क्यों कि चार प्रकारके द्रव्याखव ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकारका कर्म बाँधते हैं, इसलिए ज्ञानी तो अबन्ध है। (विशेष दे, सम्यग्दृष्टि/३/२) ३. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं स. सा./मू./१६६, २१८ जह मज्ज पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दब्बुवभोगे अरदो णाणी विण बज्झदि तहेव ।१६६ गाणी रागप्पजहो सव्वदन्वेसु कम्ममझगदो। णे लिप्पदि रजएण दु कद्दममझे जहां कणयं ॥२१८० -१जैसे कोई पुरुष मदिराको अरति भावसे पीता हुआ मतवाला नहीं होता, इसी प्रकार ज्ञानी भी द्रव्यके उपभोगके प्रति अरत वर्तता हुआ अन्धको प्राप्त नहीं होता ।११६। २. ज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति रागको छोड़नेवाला है, वह कर्मोके मध्यमें रहा हुआ हो तो भी कम रूपी रजसे लिप्त नहीं होता-जैसे सोना कीचड़के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता ।२१८ भा पा./मू./१५४ जह सलिलेण ण लिप्पा कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पह कसायविस एहिं सप्पुरिसो।१५४। - जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलिनीपत्र अपने स्वभावसे ही जलसे लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रोधादि कषाय और इन्द्रियोंके विषयों में संलग्न भी अपने भावोंसे उनके साथ लिप्त नहीं होता। यो. सा /अ./४/१६ ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैनैव लिप्यते । कनके मलमध्येऽपि न मलै रुपलिप्यते ।१६। -जिस प्रकार स्वर्ण कीचड़के बीच रहता हुआ भी कीचड़से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी विषय भोग करता हुआ भी विषयों में लिप्त नहीं होता।१६ भा. पा./टी./१५२/२६६ पर उद्धृत-धात्री बालाऽसतीनाथपद्मिनीदलधारिषत् । दग्धरज्जुबदाभासं भुजम् राज्यं न पापभाक् ।। -जिस प्रकार पतिव्रता नहीं है ऐसी युवती धाम अपने पतिके साथ दिखावटी सम्बन्ध रखती है, जिस प्रकार कमलका पत्ता पानीके साथ दिखावटी सम्बन्ध रखता है. और जिस प्रकार जली हुई रज्जू मात्र देखने में ही रज्जू है, उसी प्रकार ज्ञानी राज्यको भोगता हुआ भी पापका भागी नहीं होता। ६.पा./टी./७/७/८ सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बन्ध न याति कौरघटस्थित रज इब नबन्ध याति । जिस प्रकार कोरे घड़ेपर पड़ी हुई रज उसके साथ बन्धको प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पापके साथ लग्न भी सभ्यग्दृष्टि बन्धको प्राप्त नहीं होता। १. उसके सर्व कार्य निर्जराके निमित्त हैं स. सा./स./१६३ उबभोगमि दियेहि दवाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिछी तं सव्व णिज्जर णिमित्तं ।१६३ - सम्यग्दृष्टि जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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