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________________ सम्यग्दर्शन तत्रको प्रत्यक्ष देख कर भी सराग रूप अदृष्टकी आशासे भ्रममें मत पढ़ो। ३३२. केवल रागरूप हेतुसे ही प्रजिनल दृष्टिया आचायने सम्ययल और छानको घंटे गुणस्थानक विकल्प और इससे ऊपर के गुणस्थानोंमें निर्विकल्प कहकर उसे शुक्ल ध्यान माना है तथा वहाँ ही शुद्ध ज्ञान चेतना मानते हुए नीचे के छठे गुणस्थान तक विकल्पका सद्भाब होनेसे ज्ञान चेतनाका न होना माना है, ऐसे किन्हीं किन्होंके वासनाका पक्ष होने के कारण वह ठीक नहीं है ६१३-६९११ क्योंकि जैसे अन्य के गुण-दोष अन्यके नहीं कहलाते उसी प्रकार अन्य के गुण दोष अन्यके गुण-दोषका आधय भी नहीं करते । ( अर्थात् चारित्र सम्बन्धी रागका दोष सम्यक्त्वमें लगाना योग्य नहीं ) |१६| ७. सराग सम्यग्दृष्टि भी कथंचित् वीतराग हैं ये मिष्याष्टि/४/१ (सम्पष्टि सदा अपना काल वैराग्य भाव से गमाता है | ) दे. राग. / ६ / ४ ( सम्यग्दृष्टिको ज्ञान व वैराग्यकी शक्ति अवश्य होती है) थे. जिन / ३ मिध्यात्व तथा रागादिको जीत लेने के कारण असंयत सष्ट भी एक देश जिन कहलाता है।) दे संवर/२ (सम्यग्दृष्टि जीनको प्रवृत्तिके साथ निवृत्तिका अंश भी अवश्य रहता है । ] दे. उपयोग /II/३/२ [ तहाँ उसे जितने अंशमें राग वर्तता है उसने अंशमें बन्ध है और जितने अंशमें राग नहीं है उतने अंशमें संवर निर्जरा है ] ३६२ ८. सराग व वीतराग कहनेका कारण प्रयोजन पं. ध. /उ. / ११२ विमृश्यैतत्परं कैश्चिदसद्भूतोपचारतः । रागवज्ज्ञानमत्रास्ति सम्यक्त्वं तद्वदीरितम् ११२ - ( ७-१० गुणस्थानतक अबुद्धिपूर्वकका सूक्ष्म राग होता है, जो इससे ऊपरके गुणस्थानों में नहीं होता-दे राग / ३) केवल यही विचार करके किन्हीं आचार्योंने असत उपचारनयसे जिसप्रकार छठे गुणस्थान तक ज्ञानको राम युक्त कहा है उसी प्रकार सम्यक्त्वको भी रागयुक्त कहा है । ६१२ | (दे. सम्यग्दर्शन / II / १/६ ) दे] सम्यग्दर्शन /11/३/२/विक्वारमक निचली भूमिकाओं में यद्यपि विषय कषाय वचनार्थ नव पदार्थ भूतार्थ हैं पर समाधि काल में एकमात्र शुद्धात्म तत्व ही भूतार्थ है। ऐसा अभिप्राय है । ] ( और भी दे, नय / I / ३ / १०) III सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त १. सम्यक्त्वके अन्तरंग व बाह्य निमित्तोंका निर्देश १. निसर्ग व अधिगम आदि नि.सा./मू / ५३ / सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । - सम्यग्दर्शनका निमित जिन सूत्र है, अथवा जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुष हैं। - रा.सू /१/२ निसर्गादधिगम द्वा । यह सम्यग्दर्शन निसर्ग अर्थात परिणाममात्र से और अधिगम से अर्थात् उपवेश निमिरासे उत्पन्न होता है (अन घ. /२/४०/१०९) श्लो. वा. २/१/३ यथा ह्योपशमिकं दर्शन निसर्गादधिगमाच्चोत्पद्यते तथा क्षायोपशमिक क्षायिकं चेति सुप्रतीतम् । - जिस प्रकार औपशमिक सम्यग्दर्शन निसर्ग व अधिगम दोनोंसे होता है, उसी प्रकार क्षायोप शमिक व क्षायिक भी सम्यक्त्व दोनों प्रकारसे होते हुए भले प्रकार प्रतोस हो रहे हैं। Jain Education International XXX की उत्पत्तिनिमित्त न. च.वृ./ २४८ सामण्ण अह विसेसं दव्वे णाणं हवेइ अविरोहो । साहइ तं सम्मत्तं णहु पुण तं तस्स विवरीयं ॥ २४८ ॥ - द्रव्यका अविरुद्ध सामान्य व विशेष ज्ञान सम्यग्दर्शनको सिद्ध करता है क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं होता । दे. स्वाध्याय /१/१० ( आगम ज्ञानके बिना स्व व परका ज्ञान नहीं होता तब सम्यक्त्व पूर्वक कर्मोंका क्षय कैसे हो सकता है। दे. लग्ध / ३ ( सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके उपदेशके निमित्त सम्बन्धी ) २. दर्शन मोहके उपशम आदि मि. सा./मू./१३ अंधरहेऊ भविदा दंसणमोहस्स ॥५३॥ - सम्यग्दर्शन के अन्तर गहेतु दर्शनमोहके क्षय उपशम व क्षयोपशम है 1 |= स. सि /१/७/२६/१ अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा | दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है (रा. वा. / ०/१४/४०/२६) (न. पु. / ६ / ११०) (अन. प./ २/४६/१०१) ३. लब्धि आदि म.प्र./१/१२५वेशनाकालादिवाहाकारणसंपदि अन्तःकरण सामग्री भव्यारमा स्याह विशु ।११६जन देशनावधि और काललब्धि आदि बहिरंगकारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरंग कारण रूप सामग्रीकी प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्धध सम्यग्दर्शनका धारक हो सकता है। न. च. वृ./३१५ काऊण करणलधी सम्यग्भावस्य कुणइ जं गहणं । उवसमखयमिस्सादो पयडीणं तं पि णियहेउं । ३१५१ - जिस करणलब्धिको करके सम्यकभावको तथा प्रकृतियों के उपशम क्षय व क्षयोपशमको ग्रहण करता है, वह करण लब्धि भी सम्यक्त्वमें हेतु है । दे. सम्यग्दर्शन / IV/२/१ (पंच सन्धिको प्राप्त करके ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । ) दे, क्षय / २/३ ( क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए भी करण लब्धि निमित्त है । ) पंथ..००तादिसंस प्रत्यासन्मिपाकाद्वा जीवः सम्योग अथवा साद लब्धिकी प्राप्ति होनेपर अथवा संसार सागर के निक्ट होनेपर अथवा भव्यभावका विपाक होनेपर जीव सम्यक्स्त्रको प्राप्त करता है । ३७८ (विशेष दे. नियति / २ / १.३ ) ४. द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त . स्लो वा ३/९/२/११/०२/२२ दर्शनमोहस्यापि संपोजिनेन्द्रादि द्रव्यं समवसरणादि क्षेत्र, कालश्चार्ध पुद्गल परिवर्तन विशेषादिर्भावस्वाधात्रवृत्तिकरणादिरिति निश्चीयते तदभावे तदुपशमादिप्रति पत्तेः, अन्यथा तदभावात् । ( विष आदिके नाशकी भाँति ) दर्शनमोहके नाशमें भी द्रव्य क्षेत्र, काल व भाव हेतु होते हैं। तहाँ जिनेन्द्र बिम्ब आदि तो द्रव्य हैं, समवसरण आदि क्षेत्र हैं, अर्ध गलपरिवर्तन विशेष है, प्रवृत्तिकरण आदि भाव हैं। उस मोहनीय कर्मका अभाव होनेपर ही उपशमादिकी प्रतिपत्ति होती है। दूसरे प्रकारोंसे उन उपशम आधिके होनेका अभाव है। घ. ६/११/२९४/५ 'राज्यविशुद्ध' चि पदस्थ पदर अरथो उच्च तं जधा - एत्थ पढमसम्मत्तपडिबज्जं तस्स अधापवत्तकरण- अपुषकरण अभियड़ीकरणभेदेग तिविहाओ विसोहीओ होंतिम सूत्र (दे. सम्यग्दर्शन IV/२/ उपशम सम्या स्वामि सर्व विशुद्ध' इस का अर्थ कहते हैं मह इस प्रकार है- महापर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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