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________________ सप्तभंगी ३२३ ५. अनेक प्रकारसे अस्तित्व नास्तित्व प्रयोग पं. का./त. प्र./८/२२/६ महासत्तावान्तरसत्तारूपेणासत्तावान्तरसत्ता. च महासत्तारूपेणासत्तेत्यसत्ता सत्तायाः । महासत्ता अवान्तरसत्ता रूपसे असत्ता है और अवान्तर सत्ता महासत्ता रूपसे असत्ता है इसलिए सत्ता असत्ता है। (जो सामान्य विशेषात्मक सत्ता महासत्ता होनेसे 'सत्ता' है वही अवान्तर सत्ता रूप होनेसे असत्ता भी है)। पं. ध./पू./श्लो. सं. अयमर्थो वस्तु यदा सदिति महासत्तयावधार्येत । स्यात्तदवान्तरसत्तारूपेणाभाव एव न तु मूलात (२६७) अपि चावान्तरसत्तारूपेण यदावधार्यते वस्तु। अपरेण महासत्तारूपेणाभाव एव भवति तदा (२६८) अथ केवलं प्रदेशाव प्रदेशमात्रं यदेष्यते वस्तु । अस्ति स्वक्षेत्रतया तदंशमात्राविवक्षितत्वान्न १२७१। अथ केवलं तदंशात्तावन्मात्राद्यदेप्यते वस्तु । अस्त्यंशविवक्षितया नास्ति च देशाविवक्षितत्वाच्च ।२७२। सामान्य विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति बिशेषश्च । उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति (२७५) सामान्य विधिरेव हि शुद्धः प्रतिषेधकश्च निरपेक्षः। प्रतिषेधो हि विशेषः प्रतिषेध्यः सांशकश्च सापेक्षः ।२८। तस्मादिदमनवद्य सर्व सामान्यतो यदाप्यस्ति । शेषविशेषविवक्षाभावादिह तदैव तन्नास्ति १२८३। यदि वा सर्वमिदं यद्विवक्षितत्वाविशेषतोऽस्ति यदा। अविवक्षितसामान्यात्तदैव तन्नास्ति नययोगात (२८४ ) अपि चैवं प्रक्रियया नेतव्याः पञ्चशेषभङ्गाश्च । वर्णवदुक्तद्वयमिहापटवच्छेषास्तु तद्योगाव (२८७) नास्ति च तदिह विशेषैः सामान्यस्य विवक्षितायां वा । सामान्य रितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्ति नयः १७५७ -१. (द्रव्य) जिस समय बस्तु सत् हत्याकारक महा सत्ताके द्वारा अवधारित की जाती है उस समय उस उसकी अवान्तर सत्ता रूपसे उसका अभाव ही है किन्तु मूलसे नहीं है ।२६७। जिस समय वस्तु अवान्तर सत्ता रूपसे अवधारित की जाती है, उस समय दूसरी महासत्ता रूपसे उस वस्तुका अभाव ही विवक्षित होता । २६८१२. (क्षेत्र) जिस समय वस्तु केबल प्रदेशसे प्रदेशमात्र मानी जाती है, उस समय अपने क्षेत्रसे अस्ति रूप है, और उन-उन वस्तुओं के उन-उन अंशों की अविवक्षा होनेसे नास्ति रूप है ।२७१। और जिस समय वस्तु केवल अमुक द्रव्यके इतने प्रदेश है इत्यादि विशेष क्षेत्रकी विवक्षासे मानी जाती है उस समय विशेष अंशोंकी अपेक्षासे अस्ति रूप है, सामान्य प्रदेशको विवक्षा न होनेसे नास्ति रूप भी है । २७२ । ३. ( काल) विधि रूप बर्तन सामान्य काल है और निषेध स्वरूप विशेष काल है। इन दोनों में से एककी मुख्यता होनेसे अस्ति-नास्ति रूप विकल्प होते हैं। २७५ । ४. (भाव) सामान्य भाव विधि रूप शुद्ध विकल्पमात्रका प्रतिषेधक है तथा निरपेक्ष ही होता है तथा निश्चयसे विशेष रूप भाव निषेध रूप निषेध करने योग्य अंशकल्पना सहित और सापेक्ष होता है । २८१ । १. (सारांश) इसलिए सब कथन निर्दोष है कि जिस समय भी सामान्य रूपसे अस्तिरूप होता है उसी समय यहाँ पर विशेषों की विवक्षाके अभावसे वह सत् नास्तिरूप भी रहता है । २८३ । अथवा जिस समय जो यह सब विशेष रूपसे विवक्षित होनेसे अस्ति रूप होता है. उसी समय नय योगसे सामान्य अविवक्षित होनेसे वह नास्ति रूप भी होता है । २८४। विशेष यह है कि यहाँ पर इसी शैलीसे पटकी तरह अनुलोम क्रमसे तथा पटगत वर्णादि की तरह प्रतिलोम क्रमसे दो भंग कहे हैं और शेष पाँच भंग तो इनके मिलानेसे लगा लेने चाहिए । (२८७) वस्तु सामान्यकी विवक्षामें विशेष धर्मकी गौणता होने पर विशेष धौके द्वारा नास्ति रूप है अथवा विशेषकी विवक्षामें सामान्य धर्मोके द्वारा नहीं है। जो यह कथन है वह नास्तिनय है । ७५७ । ६. नयोंकी अपेक्षा ध.१/४,१,४५/२१५/४ ऋजुसूत्रनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शब्दादिनयविषयी कृतपर्यायः ।...अथवा शब्दनयविषयीकलपर्यायरस्ति घटः, न शेषनयविषयी कृतपर्यायैः। .. अथवा समभिरूढनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शेषनयविषयैः । - ऋजसूत्र नयसे विषय की गयी पर्यायोसे घट है, शब्दाभिनयोंसे विषय की गयी पर्यायोंसे बह नहीं है।...अथवा शब्द नयसै विषय की गयी पर्यायोंसे घट है शेष नयोंसे विषय की गयी पर्यायों से वह नहीं है।...समभिरूढनयसे विषय की गयी पर्यायोंसे घट है शेष नयोंसे विषय की गयी पर्यायोंसे वह नहीं है....अथवा एवम्भूत नयसे विषय की गयी पर्यायोंसे घट है, शेष नयोंसे विषय की गयी पर्यायोंसे यह नहीं है। ७. विरोधी धर्मोमें न. च. श्रुत./६५-६७ द्रव्यरूपेण नित्य.. स्यादस्तिअनित्य इति पर्याय रूपेणैव-- सामान्यरूपेणै कत्वम् स्यादनेक इति विशेषरूपेणैव...सदभूतव्यवहारेण भेद...स्यादभेद इति द्रव्याथिकेनैव.. स्याइभव्यः... स्वकीयस्वरूपेण भवनादिति-स्यादभव्य इति पररूपेणे व...स्यातचेतनः...चेतनस्वभावप्रधानत्वेनेति.. स्यादचेतन इति व्यवहारेण व... स्यान्मूर्तः असद्भूतव्यवहारेण.. स्यादमूर्त इति परमभावेनैव ... स्याकप्रदेशः भेदकल्पनानिरपेक्षेणेति...स्यादनेकप्रदेश इति व्यवहारेणैव स्याच्छुद्ध.. केवलस्वभावप्रधानत्वेनेति...स्यादशुद्ध इति मिश्रभावे...स्यादुपचरितः...स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादिति...स्यादनुपचरित इति निश्चयादेव ..। -द्रव्यरूप अभिप्रायसे नित्य है...कथं चिद् अनित्य है, यह पर्याय रूपसे ही समझना चाहिए ।... सामान्यरूप अभिप्रायसे एकरवपना है...कथं चिद अनेकरूप है, यह विशेष रूपसे ही जानना चाहिए...सभूत व्यवहारसे भेद है...द्रव्यार्थिक नयसे अभेद है...कथंचित् स्वकीय स्वरूपसे हो सकनेसे भव्य स्वरूप है...पररूपसे नहीं होनेसे अभव्य है...चेतन स्वभावकी प्रधानतासे कथंचित् चेतन है...व्यवहारनयसे अचेतन है...असदभूत व्यवहार नयमे मूर्त है...परमभाव अमूर्त है. भेदकल्पनानिरपेक्ष नयसे एक प्रदेशी है...व्यवहार भयसे अनेक प्रदेशी है.. केवल स्वभावकी प्रधानतासे कथंचित् शुद्ध है...मिश्र भावसे कथंचित अशुद्ध है...स्वभावके भी अन्यत्र उपचारसे कथंचित उपचरिल है... निश्चयसे अनुपचरित है । ( स. भ. त./७५/८७६/१०: ७६/३) स. सा. आ./क. २४८-२४६ बाह्यार्थः परिपीतमुज्झितनिज-प्रव्यक्तिरिक्तीभवद्-विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति। यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन-दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्ण समुन्मज्जति ।२४८। विश्वं ज्ञानमिति प्रतवं सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया-भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन-विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ।२४६ - बाह्य पदार्थोके द्वारा सम्पूर्णतया पिया गया, अपनी भक्ति छोड़ देनेसे रिक्त हुआ, सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रान्त, ऐसे पशुका ज्ञान नाशको प्राप्त होता है, और स्याद्वादीका ज्ञान तो, जो सत है वह स्वरूपसे तव है, ऐसी मान्यताके कारण, अत्यन्त प्रकट हुए ज्ञानघन रूप स्वभावके भारसे सम्पूर्ण उदित होता है ।२४६ पशु ( सर्वथा एकान्तबादी) अज्ञानी 'विश्व ज्ञान है' ऐसा विचार कर सबको निजतत्त्वकी आशासे देखकर विश्वमय होकर, पशुको भाँति स्वच्छन्दतया चेष्टा करता है। और स्याद्वादी तो, यह मानता है कि 'जो तत है वह पररूपसे तत् नहीं है, इसलिए विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे रचित होनेपर भी विश्व रूप न होनेवाले ऐसे अपने तत्त्वका अनुभव करता है ।२४६। (पं. ध./पू./३३२) न्या. दी./३/६८२/१२६/६ द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण स्यादेकमेव, पर्यायाथिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव...। - द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायसे सोना कथंचित एकरूप ही है, पर्यायार्थिक नयके अभिप्रायसे कथंचित अनेक स्वरूप ही है । ( न्या. दी./३/8८५/१२८/११) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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