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________________ शलाका पुरुष ५. नव प्रतिनारायण निर्देश ६. नारायण की दिग्विजय म. पु./६८/६४३-६५५ लंकाको जीतकर लक्ष्मणने कोटिशिला उठायो और वहाँ स्थित सुनन्द नामके देवको वश किया ।६४३-६४६। तत्पश्वात् गंगाके किनारे-किनारे जाकर गंगा द्वारके निकट सागर में स्थित मागधदेवको केवल बाणं फेंक कर वश किया। ६४७-६५० । तदनन्तर समुद्रके किनारे-किनारे जाकर जम्बूद्वीपके दक्षिण वैजयन्त द्वारके निकट समुद्र में स्थित 'बरतनु देव' को वश किया। ६५१-६५२ ।। तदनन्तर पश्चिमकी ओर प्रयाण करते हुए सिन्धु नदीके द्वारके निकटवर्ती समुद्र में स्थित प्रभास नामक देवको वश किया।६५३-६५४॥ तत्पश्चात् सिन्धु नदीके पश्चिम तटवर्ती म्लेच्छ राजाओंको जीता।६५॥ इसके पश्चात पूर्व दिशाकी ओर चले । मार्ग में विजयाकी दक्षिण श्रेणीके ५० विद्याधर राजाओंको वश किया। फिर गंगा तटके पूर्ववर्ती म्लेच्छ राजाओंको जीता।६५६-६५७। इस प्रकार उसने १६००० पट बन्ध राजाओंको तथा ११० विद्याधरोंको जीतकर तीन खण्डोंका आधिपत्य प्राप्त किया। यह दिगविजय ४२ वर्ष में पूरी हुई। ६३८ । म. पु/६/७२४-७२५ का भावार्थ-वह दक्षिण दिशाके अर्धभरत क्षेत्रके समस्त तीन खण्डोंके स्वामी थे। .. नारायण सम्बन्धी नियम ति. प./४/१४३६ अणिदाणगदा सम्बे बलदेवा केसवा जिंदाणगदा। उड्ढंगामी सत्वे बलदेवा केसवा अधोगामी ११४३६। सब नारायण ( केशव ) निदानसे सहित होते हैं और अधोगामी अर्थात नरकमें जाने वाले होते हैं ।१४३६। (ह. पु./६०/२६३) ध.६/१,१-६,२४३/५०१/१ तस्स मिच्छत्ताविणाभावि णिदाणपुरंगमत्तादो। वासुदेव ( नारायण ) की उत्पत्तिमें उससे पूर्व मिथ्यात्व के अविनाभावी निदानका होना अवश्यभावी है। ( प. पु./२०/२१४) प.पु./२०/२१४ संभवन्ति बलानुजाः १२१४। ये सभी नारायण बलभद्रके छोटे भाई होते हैं। त्रि. सा./८३३ ...किण्हे तित्थयरे सोवि सिझेदि ।८३३। -(अन्तिम नारायण) कृष्ण आगे सिद्ध होंगे। दे. शलाका पुरुष/१ दो नारायणोंका परस्पर में कभी मिलाप नहीं होता। एक क्षेत्रमें एक काल में एक ही प्रतिनारायण होता है। उनके शरीर मूंछ, दाढ़ीसे रहित तथा स्वर्ण वर्ण व उत्कृष्ण संहनन व संस्थानसे युक्त होते है । प. प्र./टी./१४२/४२/५ पूर्वभवे कोऽपि जीवो भेदाभेदरत्नत्रयाराधनं कृत्वा विशिष्टं पुण्यबन्धं च कृत्वा पश्चादज्ञानभावेन निदानबन्ध करोति, तदनन्तरं स्वर्ग गत्वा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाधिपतिबर्वासुदेवो भवति । - अपने पूर्व भवमें कोई जीव भेदाभेद रत्नत्रयकी आराधना करके विशिष्ट पुण्यका बन्ध करता है। पश्चात् अज्ञान भावसे निदान बन्ध करता है। तदनन्तर स्वर्ग में जाकर पुनः मनुष्य होकर तीन खण्डका अधिपति वासुदेव होता है। ५. नव प्रतिनारायण निर्देश 1. नाम व पूर्वभव परिचय २. कई भव पहिले म. पु./पूर्ववत म. पु |सर्ग श्लो. १. नाम निर्देश १.ति. प./४/१४१३. ५१६ २. त्रि. सा./८२८ ३. प. पू./२०/२४४-२४५ ४. ह. पु./६०/२६१-२६२ ५. म. पु./पूर्ववत ३. वर्तमान भवके नगर प. पु./२०/२४२-२४३ म. पु./पूर्ववत विशेष सामान्य | सं. अश्वग्रीव नाम विशाखनन्दि । नगर राजगृह प.पु. अलका म. पु. अलका तारक ५७/७२ ७३ ८७-८८.६५ ५८/६३.६० ५६/८८६६ ६०/७०८३ ६१/७४,८३ ६५/१८०-१८६ ६६/१०६-१११,१२५ ६८/११-१३,७२८ विन्ध्यशक्ति चण्डशासन राजसिंह मलय श्रावस्ती मलय मेरक मधुकैटभ निशुम्भ ললি प्रहरण मधु मधुसूदन मधुक्रीड़ निशुम्भ प्रसाद बलीद्र दशानन विजयपुर नन्दनपुर पृथ्वीपुर हरिपुर सूर्यपुर सिंहपुर भोगवर्धन रनपुर वाराणसी हस्तिनापुर चक्रपुर मन्दरपुर मन्त्री नरदेव सारसमुच्चय लंका रावण जरासंघ लंका राजगृह - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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