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________________ संमूर्छन १२८ संयत ४. मारणान्तिक समुद्घात गत महामत्स्यका विस्तार -दे मरण/१/१६। ५. बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव इस योनि स्थानमें जन्म धारण कर सकता है-दे. जन्म/२ । संमोह-पिशाच जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे. पिशाच । संमोही भावना-भ.आ./म्./१८४/४०२ उम्मग्गदेसगो मग्गदूसणो मग्गविप्पडिवणी य। मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥१८४॥ - जो मिथ्यात्वादिका उपदेश करनेवाला हो, जो सच्चे मार्गको अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मोक्षमार्गको दूषण लगाता हो, जो मागसे विरुद्ध मिथ्यामार्ग को चलाता हो. ऐसा साधु मिध्यात्व तथा मायाचारीसे जगतको मोहता हुआ सम्मोही देवों में उत्पन्न होता है। (मू. आ./६७) संयत-बहिरंग और अन्तरंग आस्रबौंसे विरत होनेवाला महाव्रती श्रमण संयत कहलाता है। शुभोपयोगयुक्त होनेपर वह प्रमत्त और आत्मसंवित्ति मे रत होनेपर अप्रमत्त कहलाता है ।प्रमत्त संयत यद्यपि संज्वलनके तोवोदयवश धर्मोपदेश आदि कुछ शुभक्रिया करने में अपना समय गँवाता है, पर इससे उसका संयतपना घाता नहीं जाता, क्योंकि वह अपनी भूमिकानुसार हो वे क्रियाएँ करता है, उसको उल्लंघन करके नहीं। हरिण आदिक ये सब विखसोपचयमें अन्तर्भूत जानने चाहिए । वहाँ मिट्टी आदिकी उत्पत्ति असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शैलके पानी में गिरे हुए पत्तों का शिलारूपसे परिणमन देखा जाता है तथा शुक्तिपुट में गिरे हुए जलबिन्दुओंका मुक्ताफल रूपसे परिणमन उपलब्ध होता है। वहाँ पंचेन्द्रिय सम्मूछन जीवोंकी उत्पत्ति असिद्ध है पह बात भी नहीं है. क्योंकि वर्षाकालके प्रारम्भमें वर्षाकाल के जल और पृथिवीके सम्बन्धसे मेंढक, चूहा, मछली और कछुआ आदिकी उत्पत्ति देखी जाती है...इनका महामत्स्य होना असिद्ध है यह कहना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि मनुष्यके जठरमें उत्पन्न हुई कृमि विशेषको भी मनुष्य संज्ञा उपलब्ध होती है। इन सबके ग्रहण करनेसे उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा है यह बात सिद्ध होती है । अथवा औदारिक तैजस और कार्मण परमाणु पुद्गलोंके बन्धन गुणके कारण जो एक बन्धनबद्ध विनसोपचय संज्ञावाले पुद्गल हैं उनका सचित्त बर्गणाओं में अन्तर्भाव देखा होता है।... बन्धनगुणके कारण जो पुद्गल वहाँ समवेत होते हैं...और जो सचित्त वर्गणाओंको नहीं प्राप्त होते. इसलिए यहाँ विससोपचय रूपसे ग्रहण करना चाहिए । निर्जीव विस्रसोपचयों का अस्तित्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीव रहित रुधिर, वसा, शुक्र, रस, कफ, पित्त, मूत्र, खरिस, और मस्तकमेंसे निकलनेवाले चिकने द्रव्यरूप विस्रसोचय उपलब्ध होते हैं। दाँतोंकी हड्डियों के समान सभी विससोपचय प्रत्यक्षसे निर्जीव होते हैं ग्रह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभाव के कारण आगम चक्षुके विषयभूत अनन्त विससोपचय उपलब्ध होते हैं । महामत्स्यके देहमें उत्पन्न हुए छह जीव निकायौंको विषय करनेवाले ये विससोपचय अनन्तगुणे होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । भ. आ./वि./१६४६/१४८६/७ उत्थानिका - आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामाः षण्मासं विवृतवदनाः स्वपन्ति । निद्राविमोक्षानन्तरं पिहिताननाः स्व जठरप्रविष्ट मत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशन्ति। तत्कण विलग्नमलाहाराः शालि सिक्थसंज्ञका: यदीदृशमस्माकं शरीरं भवेत् । किं निःसर्त एकोऽपि जन्तुर्लभते । सन्भिक्षयामीति कृतमनःप्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशन्ति । -स्वयंभूरमण समुदमें तिमि तिमिगिलादिक महामरस्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा होता है। उनके शरीरकी लम्बाई हजार योजन की कही है। वे मत्स्य छह मास तक अपना मुँह उघाड़कर नींद लेते हैं, नौंद खुलने के बाद आहारमें लुब्ध होकर अपना मुँह बन्द करते हैं, तब उनके मुँहमें जो मत्स्य आदि प्राणी आते हैं, उनको वे निगल जाते हैं। वे मत्स्य आयुष्य समाप्तिके अनन्तर अवधिस्थान नामक नरकमें प्रवेश करते हैं। इन मत्स्यों के कानमें शालि सिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं, वे उनके कानका मल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। उनका शरीर तण्डुलके सिक्थके प्रमाण होता है इसलिए उनका नाम सार्थक है। वे अपने मनमें ऐसा विचार करते हैं कि यदि हमारा शरीर इन महामत्स्यों के समान होता तो हमारे मुंहसे एक भी प्राणी न निकल सकता, हम सम्पूर्णको खा जाते। इस प्रकारके विचारसे उत्पन्न हुए पापसे वे भी अवधिस्थान नरकमें प्रवेश करते हैं। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १ संयत सामान्य निर्देश | संयत सामान्यका लक्षण । प्रमत्त संयतका लक्षण । अप्रमत्तसंयत सामान्यका लक्षण । अप्रमत्तसंयत गुणस्थानके चार आवश्यक । -दे. करण/४। एकान्तानुवृद्धि आदि संयत । -दे. लब्धि/५॥ प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थानोंके परिणाम अध: प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। -दे, करण/४। * संयतोंमें यथा सम्भव भावोंका अस्तित्व। -दे, भाव/२। संयतोंमें आत्मानुभव सम्बन्धी। -दे, अनुभव/। स्वस्थान व सातिश अप्रमत्त निर्देश । सर्व गुणस्थानों में प्रमत्त अप्रमत्त विभाग । -दे. गुणस्थान/१/४। दोनों ( ६-७) गुणस्थानोंका आरोहण व अवरोहण क्रम। चारित्रमोहका उपशम, क्षय, वक्षयोपशम विधान । -दे. वह वह नाम । * | सर्व लघुकालमें संयम धारनेकी योग्यता सम्बन्धी। -दे. संयम/२। पुनः पुनः संयतपनेकी प्राप्तिकी सीमा। -दे. संयम/२॥ संयत गुणस्थानका स्वामित्व । मरकर देव ही होते हैं। -दे. जन्म/५,६ । १. संमूर्च्छन जीव नपुंसकवेदी होते हैं-दे. वेद/५/३ । २. चींटी आदि संमूच्छित कैसे हैं-दे. वेद/५/६ । ३. महामत्स्य मरकर कहाँ जन्म धारे इस सम्बन्धमें दो मत -दे. मरण/५/६। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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