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________________ संख्या नहीं है, क्योंकि उसने गाया यहाँ मध्य क्षेत्रके मीटर अवस्थान माननेमें विरोध आता है। इसलिए प्रमत्त संयतों से या संख्यात गुणित होना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, बोरिस्तृत एवं कर्म के प्रतिभागरूप स्वयंभ पर्वत परभागमायण गुणसहित असंख्यात तिच पाये जाते हैं। ७. सम्यग्दृष्टि २, ३ ही हैं ऐसा कहनेका प्रयोजन | का, आ./मू व टीका / २७६ विरला णिसुनहिं तच्च विरला जाणंति तच्चदो दच्चं । विरला भावहि तच्च विरलाणं धारणा होदि 12011-- विद्यन्ते कति नामशेष संय कतिचिद आत्मा परमोधमुखनामीको द्वित्राः स्युर्बहवो यदि त्रिचतुरास्ते पञ्चधा दुर्लभाः । जगत् में विरले ही मनुष्य को सुनते हैं बिरले ही जानते हैं, उनमें विरले ही की भावना करते हैं, और उनमेसे तत्रकी धारणा विरले ही मनुष्यों को होती है भी है रामसे विमुख और सदेह पड़े हुए प्राणी बहुत है, जिनकी आत्मा विषय जिज्ञासा है ऐसे प्राणी क्वचित कदाचित ही मिलते है, किन्तु जो आत्मप्रदेशोंसे ली हैं तथा जिनको अन्तरष्टि खुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किन्तु पाँचका होना दुर्लभ है । ( अर्थात् अत्यल्प होते हैं ) । ८. लोभ कपाय क्षपकोंसे सूक्ष्मसाम्परायकी संख्या अधिक क्यों प.सं. व वाटी./१०/सू. १६६/११२ मेरि विसेसा सोधका माउसमा विसेसाहिया ११६ प अधिक हिंदी सेक्शगुणेोगुण द्वारा वसामया विसेसाहिला । ण एस दोसो, लोभकसाएण खबएस पसंतीने पेरण सिमराउनसामसु पनि संत परिमाणं विशेाहिताविरोहर कुरो सोभ कसाई ति विसेसणादो। केवल विशेषता यह है कि लोभकाजी साम्परायिक उपशामक हैं | १६ | प्रश्न - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दो उपशामक गुणस्थानों में प्रवेश करनेवाले जीवोंसे संख्यातगुणित प्रमाणवाले इन्हीं दो गुणस्थानों में प्रवेश करनेवाले क्षपकों को देखकर अर्थात् उनकी बझासे सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक विशेष से हो सक हैं। उत्तर - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि लोभकषायके उदयसे पोंमें प्रवेश करनेवाले जीवोंको देखते हुए सोय सूक्ष्म साम्परायिक उपशामक और चीन संख्या रूप परिमाणवाले उन लोभकषायी जीवोंके विशेष अधिक होने में "कोई विरोध नहीं है, कारण कि 'लोभकषायी जीवोंमें ऐसा विशेषण पद दिया गया है । ९. वर्गणाओंका संख्या सम्बन्धी दृष्टिभेद ध. १४/५,६,११३/१६/५ बादरणिमोदग्गणाए सब्बेगसे डिवग्गणाओ अगाडी अनभि... के विद्वाइरिया अपरासिया गुणगारी भिति सम्म लिया सह रोमादनिगोद वर्गणाकी सम एकि संस्थाती है।श्रेणके असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणकार हैं ।... कितने ही आचार्य असंख्यात प्रतरावलि प्रमाण गुणकार हैं ऐसा कहते हैं, परन्तु वह पति नहीं होता, कलिका मूत्र के साथ विरोध आता है। १०. जीवों के प्रमाण सम्बन्धी दृष्टिभेद २] [ एक दृष्टि स्वर्गवासी इन्द्रप्रतीन्द्र १४ और दूसरी है। Jain Education International ९३ ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ ध. ३/१,२,१२ / गा. ४५-४६/६४ति दिति केई चउरुत्तरमत्थषं चमं केई । जब सामने एवं ख ४५ तर सिणि सयं मागमुक्साम गाण केई तु । तं चैव य पंचूर्ण भणति केई तु परिमाणं |४६ ॥ = कितने ही आचार्य उपशामक जीनोंका प्रमाण ३०० कहते हैं कि ही आचार्य २०४ बहते हैं, और कितने ही आचार्य २६६ कहते हैं। इस प्रकार यह उपशामक जीवोंका प्रमाण है, कोंका इससे दूना जानो १४५। कितने ही आचार्य उपशामक जीवोंका प्रमाण ३०४ कहते हैं और कितने २६६ कहते हैं ४६ घ. २/९.३००/१३०/२ के पि दरिया सागइयरासी उप्पज्जदित्ति भणति के वितं च्छति । कुदो । अदरा ससमुदयरस वापराने आचार्य पोथी बार स्थापित कलाकाराशिके आये प्रमाण के पक्षी होनेपर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है, ऐसा कहते हैं। परन्तु कितने ही आचार्य इस कथनको नहीं मानते हैं क्योंकि साढ़े तीन कार राशिका समुदाय वर्गद्वारा उत्पन्न नहीं है। गो. जी./मू./१६३ तिगुणा सतगुणा वा सम्बट्ठा माणुसीयमाणदो । - मनुष्य स्त्रियोंका जितना प्रमाण है उससे तिगुना अथवा सतगुणा देवोंका प्रमाण है। ३. संख्या विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची अंतर्भू अनं. अनं. लो. अनपहृत अप. अपहृत प्रतिसमय एक एक जीव निकालते जानेपर विवक्षित काल के समय समाप्त हो जाते हैं और उसके साथ जीब भी समाप्त हो जाते हैं । पत्य+ मध्यम असंख्याता संख्यात (ध. ३ / १,२,१५ / १२६ / ६ ) आवली / असं रूप असंख्यात आवली (ध.७/ २,५,५५/ अ. रूप असं. आवली २६९/९) असं. (ध. ७/२,५५५/२६७/१) उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी उत्तरोत्तर असं अपने से पूर्व वाली राशिके अवशेष उतनेवाँ भाग या सं. बहुभाग असं. बा./अर्स, प/अन्तर्ग मार्स उत, "अब, उप. ए. + कुछ गु. स. ज. प्र जल ज. ST तिमं तेज अन्तर्मुहूर्त [असं] (.०/१५५५/२०१२ मध्यम अनन्तानन्त (ध. ७/२,५,११७/२८५१५ ) अनन्तानन्त लोक ( विशेष दे. संख्या / २ / २ ) (दे. संख्या/२/१) अपर्याप्त श्री. द्वी. नि. प. पंचे. उपशामक एकेन्द्रिय राशिसे पृषि कुछ अधिक बन, गुणस्थान चतुरिन्द्रिय जगत्प्रतर जलकायिक जगणो तियंच तेजकायिक त्रीन्द्रिय हीन्द्रिय निगोद शरीर पर्या पंचेद्रिय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only बहुभाग ཚཱ ཝཿ ལླ ཡཱ मनु, ल. पृ. सं. सा. साधा. 15. पृथक्त्व अर्थात् ३ से ६ तक अथवा नरक पृथिवी पृथिवीकायिक मनस्पतिकायिक बहुभाग राशि बादर मनुष्य योनिमति तिच राशि भागाहार लक्ष पृथक्त्व वायुकायिक संख्यात सामान्य साधारण शरीर सूक्ष्म www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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