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________________ पृथिवी कोंगणि प्रकार ५. सूक्ष्म तैजसकायिकादिकोंका लोकमें सर्वत्र अवस्थान। -दे० सूक्ष्म/३। ६. बादर तैजसकायिकादिकोंका भवनवासियोंके विमानोंमें व नरकोंमें अवस्थान । -दे० काय/२५ ७. मार्गणाओंमें भावमार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा। ८. बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्यपर्याप्तमें सासादन गुणस्थानकी सम्भावनः। -दे. जन्म/४। ९. कर्मोंका बन्ध उदय व सत्त्व। -दे० वाह-वह नाम । १०. पृथिवीकायिक जीवोंमे गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान आदि सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् । ११ पृथिवीकायिक जीवोंकी सत् (अस्तित्व), सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे० वह-वह नाम। पृथिवी कोंगणि-अपरनाम श्री पुरुष-दे० श्री पुरुष । पृथिवीपाल-पानीपतका निवासी था। वि. १६६२ में श्रुत पंचमी रासकी रचना की। (हि. जै. सा. इ./१३५/कामता)। पृथिवीसिह-जयपुर नरेश। समय-वि.स.१८२७ (ई० १७७७); (मो. मा. प्र./प्र. २६/पं. परमानन्द शास्त्री)। पृथु-कृष्णके भाई बलदेवका १५वाँ पुत्र -दे. इतिहास/७/१० । पष्टक-सौधर्म स्वर्गका २८ वाँ पटल व इन्द्रक -दे० स्वर्ग/५ । पेय-अन. ध./७/१३ जलादिकम पेयं । -जल, दुग्धादि पदार्थ पेय कहे जाते है । (ला. सं /२/१७) । पेशि-औदारिक शरीर में मांस पेशियोंका प्रमाण-दे० औदारिक१/७ पप्पलाद-एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद । पशुन्य-रावा./१/२०/१२/७५/१२ पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम् । -पीछेसे दोष प्रकट करनेको पैशुन्य वचन कहते है। (ध. १/१,१,२/ ११६/१२), (ध १/४/१,४५/२१७/३) । घ.६/४,२,८,१०/२८५/५ परेषा क्रोधादिना दोषोभावनं पैशुन्यम् । क्रोधादिके कारण दूसरोके दोषोको प्रकट करना पैशुन्य कहा जाता है। (गो. जी./जी, प्र./३६५/७७८/२०)। नि. सा /ता. व ६२ कर्णेजपमुखविनिर्गत नृपतिकर्णाभ्यर्णगत चैक- पुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकप्रामस्य वा महद्विपत्कारण वच पैशुन्यम् । =चुगलखोर मनुष्यके मुंहसे निकले हुए और राजाके कान तक पहुँचे हुए, किसी एक पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्रामको महाविपत्तिके कारणभूत ऐसे वचन वह पैशुन्य है। रा. वा. हि /६/११/१०० पैशुन्य कहिये पर तै अदेख सका भावकरि खोटी कहना। पोतस. सि /२/३३/१६०/१ किचित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः पोतः । जिसके सब अवयव बिना आवरणके पूरे हुए हैं और जो योनिसे निकलते ही हलन-चलन आदि सामर्थ्यसे युक्त है उसे पोत कहते है। (रा. वा./२/ ३३/३/१४४/१): (गो. जी./जी. प्र./४/२०७५) । * पोतज जन्म विषयक-दे. जन्म/२। पोतकर्म-दे निक्षेप/४ । पोदन-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । पोन्न-कृष्णराज तृतीयके समयमें शान्ति पुराण जिनाक्षर माले के रचयिता एक प्रतिभाशाली कन्नड कवि। समय-वि. १०२६ (ई० ६७२); (यशस्तिलक चम्पू./प्र. २०/पं. सुन्दरलाल) (ती/४/३०७) । पौंड-दे० पुंड्र। पौर-सौराष्ट्र देशमें वर्तमान पोरबन्दर (नेमिचरित/प्र./प्रेमी) । पौरुष-दे० पुरुषार्थ । पौरुषेय-आगमका पौरुषेय व अपौरुषेत्वपना-दे० आगम/६ । पौलोमपुर-भरत क्षेत्रका एक नगर । सम्भवत. वर्तमान पालमपुर -दे० मनुष्य/४। प्रकरणसम जाति-न्या सुम. व टी/११/१३/२६४ उभयसाधात प्रक्रियासिद्ध प्रकरणसम ।१६। अनित्यशब्द' प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद घटवदित्येक पक्ष प्रवर्तयति द्वितीयश्च नित्यसाधात् । एवं च सति प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति हेतुर नित्यसाधयेणोच्यमानेन हेतौ तदिदं प्रकरणानतिवृत्त्या प्रत्यवस्थान प्रकरणसमः। - उभयके साधर्म्यसे प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेसे प्रकरण समा जाति है। (कहीं-कहीं उभयके वैधHसे भी प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेके कारण प्रकरणसम जाति मानी जाती है।) ।१६। जैसे-शब्द अनित्य है प्रयत्नानन्तरीयकत्वसे (प्रयत्नकी समानता होनेसे) घटकी नाई। इस रोतिसे एक पक्षको प्रवृत्त करता है और दूसरा नित्यके साधर्म्य से शब्दको नित्य सिद्ध करता है ऐसा होनेसे प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु अनित्यत्व साधर्मसे कथन करनेपर प्रकरणको अनत्तिवृत्तिसे प्रत्यवस्थान हुआ इसलिए 'प्रकरणसम' है। (श्लो वा. ४/न्या./३८१-३८३/५०८-५०४) । प्रकरणसम हेत्वाभासन्या सू./सू. व.टी./१/२/७/४६ यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थ मपदिष्टः प्रकरणसम । प्रज्ञापनं त्वनित्य' शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुपलभ्यमानः सोऽयमहेतुरुभौ पक्षौ प्रवर्तयन्नन्यतरस्य निर्णयाय प्रकल्पते। -विचारके आश्रय अनिश्चित पक्ष और प्रतिपक्षको प्रकरणसम कहते है ।७। जैसे-किसीने कहा कि 'शब्द अनित्य है, नित्यधर्मके ज्ञान न होनेसे' यह प्रकरणसम है। इससे दो पक्षोमेंसे किसी पक्षका भी निर्णय नहीं हो सकता। जो दो धर्मों में एकका भी ज्ञान होता कि शब्द अनित्य है कि नित्य । तो यह विचार ही क्यो प्रवृत्त होता । (श्लो वा. ४/न्या./पु.४/२७३/४२६/१६)। न्या. दी./३९४०/८७/६ प्रतिसाधनप्रतिरुद्धो हेतुः प्रकरणसम.। यथा... न्या. दी1386/RS/ प्रतिमान अनित्य शब्दो नित्यधर्मरहितत्वात् इति। अत्र हि नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतु प्रतिसाधनेन प्रतिरुद्धः । कि तत्प्रतिसाधनम् । इति चेत्; नित्य' शब्दोऽनित्यधर्मरहितत्वादिति नित्यत्वसाधनम् । तथा चासत्प्रतिपक्षत्वाभावारप्रकरणसमत्वं नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतो। -विरोधी साधन जिसका मौजूद हो वह हेतु प्रकरणसम अथवा , सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है। जैसे शब्द अनित्य है, क्योकि वह नित्यधर्म रहित है यहाँ नित्यधर्म रहितत्व हेतुका प्रतिपक्षी साधन मौजूद है। वह प्रतिपक्षी साधन कौन है। शब्द नित्य है, क्योंकि वह अनित्यके धर्मोंसे रहित है इस प्रकार नित्यताका साधन करना उसका प्रतिपक्ष साधन है। अत' असत्प्रतिपक्षताके न होनेसे 'नित्य धर्मरहितत्व' हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास है। प्रकार-पं.ध./पू./६० अपि चाश. पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च । भेदश्छेदो भङ्ग शब्दाश्चैकार्थवाचका एते ६०) -और अंश, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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