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________________ ५. पुण्यकी अनिष्टता व इष्टताका समन्वय पुण्य चेष्टितोऽपि नितरामालियते च श्रिया, पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं ५. पुण्यकी अनिष्टता व इष्टताका समन्वय जायेत् यद्दुर्घटम् ।१६। -पुण्यके प्रभावसे कोई अन्धा भी प्राणी निर्मल नेत्रोका धारक हो जाता है, वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो जाता है, १. पुण्य दो प्रकारका होता है निर्बल भी सिंह जैसा बलिष्ठ हो जाता है, विकृत शरीरवाला भी प्र. सा./मू /२५५ ब त. प्र./२५६ रागो पसत्यभूदो वत्थुविसेसेण फलदि कामदेवके समान सुन्दर हो जाता है। जो भी प्रशंसनीय अन्य विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२५॥ समस्त पदार्थ यहाँ दुर्लभ प्रतीत होते है, वे सब पुण्योदयसे प्राप्त हो शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वजाते है ।१८६॥ कोऽपुनर्भवोपलम्भ' किल फलं, तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव । का.अ./म./४३४ अलियवयणं पि सच्चं... धम्मपहावेण णरो अणओ तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं तेषु व्रतनियमाध्ययनवि सहकरो होदि ।४३४। धर्मके प्रभावसे जीवके झूठ वचन भी ध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भवशून्यकेवलपुण्यासच्चे हो जाते है, और अन्यान्य भी सब सुखकारी हो जाता है। पसदप्राप्ति । फलवै परीत्यं तत्सुदेवमनजत्वं । जैसे इस जगत में अनेक ४. पुण्य करनेकी प्रेरणा प्रकारकी भूमियों में पडे हुए बीज धान्यकालमें विपरीततया फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तु भेदसे विपरीततया फलता कुरल काव्य/४/३ सत्कृत्यं सर्वदा कार्य यदुदर्के सुखावहम् । पूर्ण शक्ति है ।२५॥ सर्वज्ञ स्थापित वस्तुओंमें युक्त शुभोपयोगका फल पुण्यसमाधाय महोत्साहेन धीमता ।३। -अपनी पूरी शक्ति और पूरे संचय पूर्वक मोक्षकी प्राप्ति है। वह फल कारणकी विपरीतता होनेसे उत्साहके साथ सत्कर्म सदा करते रहो। विपरीत ही होता है। वहाँ छद्मस्थ स्थापित वस्तुमै कारणम पु./३७/२०० तत. पुण्योदयोद्भूता मत्वा चक्रभृतः श्रियम् । चिनुध्वं विपरीतता है, (क्योंकि) उनमें व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान भो बुधा' पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम् ।२००। - इसलिए हे पण्डित आदि रूपसे युक्त शुभोपयोगका फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यास्पदजनो। चक्रवर्तीकी विभूतिको पुण्यके उदयसे उत्पन्न हुई मानकर, की प्राप्ति है, वह फलकी विपरीतता है। बह फल सुदेव मनुष्यत्व उस पुण्यका संचय करो, जो कि समस्त सुख और सम्पदाओंकी है। (अर्थात पुण्य दो प्रकारका है-एक सम्यग्दृष्टिका और दूसरा दुकानके समान है ।२००। मिथ्यादृष्टिका । पहिला परम्परा मोक्षका कारण है और दूसरा केबल स्वर्ग सम्पदाका)। आ. अनु /२३,३१,३७ परिणाममेव कारणमाहु. खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । दे० मिथ्याष्टि/४ (सम्यग्दृष्टिका पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है और तस्मात्पापापचय. पुण्योपचयश्च सुविधेय. ।२३। पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्य मिथ्यादृष्टिका पापानुबन्धी)। मनीदशोऽपि, नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै। संतापयअगद दे० धर्म/७/८-१२ ( सम्यग्दृष्टिका पुण्य तीर्थकर प्रकृति आदिके बन्धका शेषमशीतरश्मिः, पषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम् ।३। __ कारण होनेसे विशिष्ट प्रकारका है)। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोद्यमा द्रागागामि दे० पुण्य/३/8 ( और मिथ्याष्टिका पुण्य निदान सहित व भोगमूलक भवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्ते तराम ॥३७॥ -विद्वात् मनुष्य होनेके कारण आगे जाकर कुगतियोंका कारण होता है, अत' अत्यन्त निश्चयसे आत्मपरिणामको ही पुण्य और पापका कारण बतलाते अनिष्ट है)। हैं, इसलिए अपने निर्मल परिणामके द्वारा पूर्वोपार्जित पापकी दे० मिथ्याष्टि/४ (मिध्यादृष्टि भोगमूलक धर्मकी श्रद्धा करता है। निर्जरा, नवीन पापका निरोध और पुण्यका उपार्जन करना चाहिए ।२३। हे भव्य जीव ! तू पुण्य कार्यको कर, क्योंकि, पुण्यवान प्राणीके मोक्षमूलक धर्मको वह जानता ही नहीं)। ऊपर असाधारण उपद्रव भी कोई प्रभाष नहीं डाल सकता है। उलटा १. भोगमूलक पुण्य ही निषिद्ध है योगमूलक नहीं वह उपद्रव ही उसके लिए सम्पत्तिका साधन बन जाता है ।३१५ इसलिए योग्यायोग्य कार्यका विचार करनेवाले श्रेष्ठ जन भले प्रकार पं.वि./७/२५ पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः पर सरसुख., शेषाविचार करके इस लोकसम्बन्धी कार्यके विषयमें विशेष प्रयत्न नहीं स्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः। तस्मात्तत्पदसाधनस्वधरणो करते हैं, किन्तु आगामी भवोंको सुन्दर बनानेके लिए ही वे निरन्तर धर्मोऽपि नो संमत', यो भोगादिनिमित्तमेव स पुन. पापं बुधैर्मन्यते प्रीति पूर्वक अतिशय प्रयत्न करते हैं ।३७१ २१-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में केवल मोक्ष 4. वि./१/१८३-१८८ नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं पुरुषार्थ ही समीचीन मुखसे युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। बुधा' १८३॥ निधूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यता शेष तीन पुरुषार्थ उससे विपरीत (अस्थिर) स्वभाववाले हैं। अतएव १८६। अन्यतरं प्रभवतीह निमित्तमात्र, पात्रं बुधा भवत निर्मल वे मुमुक्षुजनके लिए छोड़नेके योग्य हैं। इसलिए जो धर्मपुरुषार्थ पुण्यराशे. १८८। -इस संसारमें डूबते हुए प्राणियोंका उद्धार करने उपर्युक्त मोक्षपुरुषार्थ का साधक होता है वह हमें अभीष्ट है, किन्तु वाला धर्मको छोडकर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिए हे जो धर्म केवल भोगादिका ही कारण होता है, उसे विद्वज्जन पाप ही विद्वज्जनो । आप निरन्तर धर्मके विषयमें प्रयत्न करें ।१३। निश्चय समझते हैं। से समस्त दुखदायक आपत्तियोंको नष्ट करनेवाले धर्ममें अपनी __ दे. धर्म/७ ( यद्यपि व्यवहार धर्म पुण्य प्रधान होता है, परन्तु यदि बुद्धिको लगाओ।१८६। (पुण्य व पाप ही वास्तवमें इष्ट संयोग व निश्चय धर्मकी ओर झुका हुआ हो तो परम्परासे निर्जरा व मोक्षका वियोगके हेतु है) अन्य पदार्थ तो केवल निमित्त मात्र हैं। इसलिए कारण होता है।) हे पण्डित जन ! निर्मल पुण्यराशिके भाजन होओ अर्थात पुण्य प.प्र./टी./२/६०/१८२/१ इदं पूर्वोक्तं पुण्य भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहिउपार्जन करो ।१८। तेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन का. अ./मू./४३७ इय पञ्चवं पेच्छइ धम्माहम्माण विविहमाहप्पं । यदुपाजितं पूर्वभवे तदेव मदमहंकार जनयति बुद्धिविनाशं च धम्म आयरह सया पावं दूरेण परिहरह।४३७१ -हे प्राणियो! इस करोति । न च पुन' सम्यक्त्वादिगुणसहित भरतसगररामपाण्डवादिप्रकार धर्म और अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा पुण्यबन्धवत् । मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गताः। भेदाधर्मका आचरण करो, और पापसे दूर ही रहो। भेद रत्नत्रयकी आराधनासे रहित तथा दृष्ट श्रुत व अनुभूत भोगोंदे० धर्म/५/२ (सावध होते हुए भी पूजा आदि शुभ कार्य अवश्य करने की आकांक्षारूप निदानभन्धसे सहित होनेके कारण ही, जीवोके कर्तव्य है) द्वारा पूर्वमें उपार्जित किया गया वह पूर्वोक्त पुण्य मद व अहंकार शेष तीन पुरुषसमीचीन मखर मोक्ष इन चारन स पुन पाप धनवधरणो वे मुमुक्षजनक उससे विपरीतत होकर सदासयों में केवल मान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ३-९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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