SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३ ३. पुण्यकी कथंचित अनिष्टता पुण्य किन्तु वह भला सुशील कैसे हो सकता है, जब कि वह संसारमें प्रवेश कराता है। प्र. सा./त.प्र./७७ यस्तु पुनरनयो विशेषमभिमन्यमानो धर्मानुराग मवलम्बते स खलुपरक्तचित्त भित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिराससार शारीर दुखमेवानुभवति । -जो जीव उन दोनो (पुण्य व पाप) मे अन्तर मानता हुआ धर्मानुराग अर्थात पुण्यानुरागपर अवलम्बित है, वह जीव वास्तवमें चित्तभूमिके उपरक्त होनेसे, जिसने शुद्धोपयोग शक्तिका तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ, ससार पर्यन्त शारीरिक दु.खका ही अनुभव करता है। का, अ/मू /४१० पुण्ण पि जो समिच्छदि ससारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेदु' पुण्णखएणेव णिबाण ।४१०१ -जो पुण्यको भी चाहता है, वह ससारको चाहता है, क्योकि, पुण्य सुगतिका कारण है। पुण्यका क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है। २. शुभ माव कथचित् पापबन्धके भी कारण हैं परिग्रहसे रहित है, इसलिए वह परिग्रहकी इच्छासे रहित है। इसी कारण वह धर्म अर्थात् पुण्य (ता वृ टोका) को नही चाहता इसलिए उसे धर्म या पुण्यका परिग्रह नहीं है। वह तो केवल उसका ज्ञायक ही है। का अ/मू./४०६,४१२ एदे दहप्पयारा पावं कम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य सजणया परपुण्ण त्थ ण कायव्वं ।४०६॥ पुण्णे वि ण आयर कुणह ।४१२१ - ये धर्मके दश भेद पापकर्मका नाश और पुण्यकर्मका बन्ध करनेवाले कहे जाते है, परन्तु इन्हे पुण्यके लिए नहीं करना चाहिए ।४०६॥ पुण्यमे आदर मत करो।४१२। नि. सा./ता वृ/४१/क. ५६ सुकृतमपि समस्त भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतन्वाभ्यासनिष्णातचित्त... भवविमुक्तय...५६ - समस्त पुण्य भोगियो के भोगका मूल है। परमतत्त्वके अभ्यासमें निष्णात चित्तबाले मुनीश्वर भवसे विमुक्त होनेके हेतु उस समस्त शुभकर्मको छोडो। ७. ज्ञानी तो कथचित् पापको ही पुण्यसे अच्छा समझते प.प्र/मू /२/५६-५७ वर जिय पाव: सुंदर णाणिय ताइँ भणति । जोवह दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइ जाड़े कुणति ५६। म पुणु पुण्णई भन्लाइ णाणिय ताइ भण ति । जोवह रज्जइँ देवि लहु दुरखइँ जाई जण ति ।५७ हे जीव । जो पापका उदय जीवको दुख देकर शीघ्र ही मोक्षके जाने योग्य उपायोमें बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छे है।६। और फिर वे पुण्य भी अच्छे नहीं जो जीवको राज्य देकर शीघ्र ही नरकादि दुखोको उपजाते है ( दे० अगला शीर्षक) ऐसा ज्ञानी जन कहते है। रा, वा /६/३/9/५०७/२६ शुभ पापस्यापि हेतुरित्यविरोध । -शुभपरिणाम पापके भी हेतु हो सकते है. इसमे कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे० पुण्य/५)। ३. वास्तवमें पुण्य शुभ है ही नहीं। प.ध /3/७६३ शुभो नाप्यशुभावहात् ७६३१ - निश्चयनयसे शुभोपयोग भी ससारका कारण होनेसे शुभ कहा ही नही जा सकता। ४. अज्ञानीजन ही पुण्यको उपादेय मानते हैं स.सा./मू./१५४ परमठ्ठ बाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । ससारगमणहेदु वि मोक्रबहेदु अजाण तो ॥१५४॥ -जो परमार्थ से बाह्य है, वे मोक्ष के हेतुको न जानते हुए ससार गमनका हेतु होने पर भी, अज्ञानसे पुण्यको (मोक्षका हेतु समझकर ) चाहते है। (ति प./४/५३)। मो, पा/म./५४ सुहजोएण सुभाव परदव्वे कुणइ रागदो साहू। सो तेण हु अण्णाणी णाणी एत्तो हु विवरीओ।४। - इष्ट वस्तुओके संयोगमे राग करनेवाला साधु अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है अर्थात वह शुभ व अशुभ कर्म के फलरूप इष्ट अनिष्ट सामग्रीमे रागद्वेष नहीं करता। प.प्र./मू/२/५४ द सणणाणचरित मउ जो णवि अप्पु मुणेइ। मोक्खहें कारणु भणिवि जिय सो पर ताई करेइ ।।४। - जो सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रमयी आत्माको नहीं जानता वही हे जोव। उन पुण्य व पाप दोनोको मोक्षके कारण जानकर करता है। (मो, मा प्र/७/२२६/१७। ५. ज्ञानी तो पापवत् पुण्यका भी तिरस्कार करता है ति, प.//५२ पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं तम्हा पुण्णो वि वज्जेओ ।।२१ = कि पुण्यसे विभव, विभवसे मद, मदसे मतिमोह और मतिमोहसे पाप होता है, इसलिए पुण्यको भी छोड़ना चाहिए-(ऐसा पुण्य हमें कभी न हो-प.प्र.) (प.प्र./मू./२/६०)। यो,सा./यो/७१ जो पाउ विसो पाउ मुणि सव्वु को विमुणेइ । जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ।७१। - पापको पाप तो सब कोई जानता है, परन्तु जो पुण्यको भी पाप कहता है ऐसा पण्डित कोई बिरला ही है। ६. ज्ञानी पुण्यको हेय समझता है स. सा./मू./२१० अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्म । अपरिग्गहो दुधम्मस्स जाणगो तेण स होई।२१०। -ज्ञानी ८. मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्ट हैं भ बा /मू./५७-६०/१८२-१८७ जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होति । ते तस्स कडुगदोद्रियगदं च दुद्ध हवे अफलाणा जह भेसज पि दोस आवहइ विसेण संजुद सते। तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होति ।५८ दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो सगिच्छिद देस । अण्ण तो गच्छतो जह पुरिसोणेव पाउणादि १६। धणिदं पि स जमतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई । इट्ट णिव्वुइ मग उग्गेण तवेण जुत्तो वि ।६०१ = अहिंसा आदि पाँच व्रत आत्माके गुण है, परन्तु मरण समय यदि ये मिथ्यात्वसे संयुक्त हो जायें तो कडवी तुम्बीमे रखे हुए दूधके समान व्यर्थ हो जाते है ।७। जिस प्रकार विष मिल जानेपर गुणकारी भी औषध दोषयुक्त हो जाता है, इसी प्रकार उपरोक्त गुण भी मिथ्यात्वयुक्त हो जानेपर दोषयुक्त हो जाते है। जिस प्रकार एक दिनमें सौ योजन गमन करनेवाला भी व्यक्ति यदि उलटी दिशामें चले तो कभी भी अपने इष्ट स्थानको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार अच्छी तरह व्रत तप आदि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि कदापि मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकता ।५६-६०॥ प.प्र./मू /२/५६ जे णिय-दसण-अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहति । ति विणु पुण्णु करता वि दुक्खु अणतु सहति ॥५६॥ -- जो सम्यग्दर्शनके संमुख है, वे अनन्त सुखको पाते है, और जो जीव सम्यक्त्व रहित है वे पुण्य करते हुए भी, पुण्यके फलसे अल्पसुख पाकर ससारमें अनन्त दुख भोगते है। प प्र/मू /२/५० बर णियद सण अहिमुह मरणु वि जीव लहेसि । मा णियदसणविम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ।। -हे जीव । अपने सम्यग्दर्शनके समुख होकर मरना भी अच्छा है, परन्तु सम्यग्दर्शनसे विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नही है।५८। दे० भोग-(पुण्यसे प्राप्त भोग पापके मित्र है)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy