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________________ म्युत्सर्ग ६२१ १. कायोत्सर्ग निर्देश उच्छ अवसर वास ४०० १०८ दैवसिक प्रतिक्र. रात्रिक पाक्षिक चातुर्मासिक .. वार्षिक ५०० हिंसादिरूप अतिचारोमें गोचरीसे आनेपर निर्वाण भूमि अहंत शय्या - " निषद्यका श्रमण शय्या लघु व दीर्घ शका ग्रन्थके आरम्भमें ग्रन्थकी समाप्ति वन्दना अशुभ परिणाम कायोत्सर्गके श्वास भूल जानेपर अधिन नोट-सर्व प्रतिक्रमणोंमें यह कायोत्सर्ग वीर भक्तिके पश्चात किया ___ जाता है। (भ. आ./वि./११६/२७८/२२); (चा. सा/१५८/१); (अन. घ./८/७२-७३/८०१)। ७. कायोत्सर्गका प्रयोजन व फल मू. आ./६६२.६६६ काओमग्ग इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। बोसट्ठचत्तदेहा कर ति दुक्खक्खयट्ठाए ।६६२। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरय काउसग्गस्स करणेण ६६६ -ईर्यापथके अतिचारको सोधने के लिए (तथा उपरोक्त सर्व अवसरोपर यथायोग्य दोषोको शोधनेके लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीरमें ममत्वको छोडनेवाले मुनि दुखके नाश करनेके लिए कायोत्सर्ग करते है।६६२॥ कायोत्सर्ग करनेपर जैसे अंगोपागोकी संधियाँ भिद जाती है उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है ।६६६। (अन, ध./८/७६/८०४ )। * कायोत्सर्ग व धर्मध्यानमें अन्तर-दे० धर्मध्यान/३ । * कायोत्सर्ग व कायगुप्तिमें अन्तर-दे० गुप्ति/१/७ । .. कायोत्सर्ग शक्ति अनुसार करना चाहिए म. आ./६६७,६७१-६७२ बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरस हडणं । काओसग्ग कुज्जा इमे दु दोसे परिहर तो।६६७. णिवकूड सविसेस बलाणुरूव क्याणुरूवं च। काओसग्ग धीरा कर ति दुक्रवक्खयहाए ।६७१। जो पुण तीसदिसरिसो सत्तरिवरिसेण पारणायसमो। बिसमो य कूडवादी णिविण्णाणी य सो य जडो ।६७२। -बल और आत्म शक्तिका आश्रयकर क्षेत्र काल और सहनन इनके बलकी अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जानेवाले दोषोका त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे ।६६७। मायाचारीसे रहित (दे, आगे इसके अतिचार ) विशेषकर सहित, अपनी शक्तिके अनुसार, बाल आदि अवस्थाके अनुकून धीर धुरुष दुःखके क्षयके लिए कात्योत्सर्ग करते है।६७१। जो तीस वर्ष प्रमाण यौवन अवस्थावाला समर्थ साधु ७० वर्षवाले असक्त वृद्धके साथ कायोत्सर्गकी पूर्णता करके समान रहता है वृद्धकी बराबरी करता है, वह साधु शान्त रूप नहीं है, मायाचारी है, विज्ञानरहित है, चारित्ररहित है और मूर्ख है ।६७२। ९. मरणके बिना कायका त्याग कैसे ? भ. आ./वि./११६/२७८/१३ ननु च आयुषो निरवशेषगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तस्विमुच्यते कायोत्सर्ग इति।" अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं तथानित्यत्व, अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दु,खहेतुत्व, शरीरगतममताहेतुकमनन्तसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्सप्रधार्य दोषान्नेद मम नाहमस्येति सकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव । यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येक स्मिन्मन्दिरे त्यक्तेत्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेद भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि। किच.. शरीरापानिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माय ज्यते कायत्याग'। = प्रश्न-१ आयुके निरवशेष समाप्त हो जानेपर आत्मा शरीरको छोडती है, अन्य समयमें नही, तब अन्य समयमें कायोत्सर्गका क्थन कैसा ? उत्तर-शरीरका विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारस्व, दु.खहेतुत्व, अनन्तससार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषोका विचार कर यह शरीर मेरा नहीं है और मै इसका स्वामी नहीं हूँ' ऐसा सकल्प मनमें उत्पन्न हो जानेसे शरीरपर प्रेमका अभाव होता है, उससे शरीरका त्याग सिद्ध होता है ! जैसे प्रियतमा पत्नीसे कुछ अपराध हो जानेपर, पतिके साथ एक ही घरमें रहते हुए भी, पतिका प्रेमका हट जानेके कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना। २. और भी दूसरी बात यह है कि शरीरके अपायके कारणको हटाने में यति निरुत्सुक रहते है, इसलिए उनका कायत्याग योग्य ही है। १०. कायोत्सर्गके अतिचार व उनके लक्षण भ. आ /वि./११६/२७६/८ कायोत्सर्ग प्रपन्नः स्थानदोषान् परिहरेत् । के ते इति चेदुच्यते। १ तुरग इव कुण्टीकृतपादेन अवस्थानम् २. लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थान, ३. स्तम्भवत्स्तब्धशरीर कृरवा स्थान, ४. रतम्भोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम.लम्बिताधरतया, स्तनगतदृष्ट्या वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वावस्थानम, ६, खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं सपादयतोऽवस्थान, ७. युगावष्टब्धबलीव इव शिरोऽध पातयता, ८, कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुंचिताङ्गुलिपञ्चकं वा कृत्वा, ६. शिरश्चालनं कुर्वन्, १०. मूक इव हुकार संपाद्यावस्थान, ११ मूक इव नासिकया वस्तूपदर्शयता वा, १२. अड्गुलिस्फोटनं, १३. धूनर्तन वा कृत्वा, १४. शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं, १५. शृङ्खलाबद्धपाद इवावस्थान, १६. पीतमदिर व परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषा. । =१. मुनियोको उत्थित कायोत्सर्ग के दोषोका त्याग करना चाहिए । उन दोषोंका स्वरूप इस प्रकार है-१. जेसे घोडा अपना एक पॉव अकड लॅगडा करके खडा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटकपाद दोष है। २ बेल की भॉति इधर-उधर हिलना लतावक्र दोष है। ३ स्तम्भवत् शरीर अकडाकर खडे होना स्तंभस्थिति दोष है। ४. खम्बेके आश्रय स्तंभावष्टंभ । ५. भित्तिके आधारसे कुड्याश्रित । ६. अथवा मस्तक ऊपर करके किसी पदार्थका आश्रय देकर खडा होना मालिकोदहन दोष है । ७.अधरोष्ठ लम्बा करके खडे होना या, ८. स्तनकी ओर दृष्टि देकर खडे होमा स्तन दृष्टि। ६ कौवेकी भॉति दृष्टिको इतस्तत' फेकते हुए खडे होना काकावलोकन दोष है। १०. लगामसे पीडित घोडेचच मुखको हिलाते हुए खडे होना खलीनित दोष है। ११. जैसे बैल अपने कन्धसे जूयेकी मान नीचे करता है उसपर कन्धे झुकाते हुए खड़ा होना युगकन्धर पीडित बाल अपने का होना युगकन्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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