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________________ व्यय वचनज्ञानयोर्लोके विरोधोऽस्ति प्रत्युत ज्ञानवत एवं वचनमौष्ठव स्पष्ट दृष्टम् ततो ज्ञानोत्पति सर्व वचनापत्ति रिति । १ उनमें पहलेका ( निश्चितविपक्षवृत्तिका) उदाहरण यह है - यह प्रदेश धूमवाला है, क्योकि वह अग्निवाला है।' यहाँ 'अग्नि' हेतु सदिग्ध वाले सामने प्रदेश रहता है और पक्ष रसोईघर में रहता है तथा विपक्ष धूमरहित रूपसे मिश्रित रूप से निश्चित अगारस्वरूप अग्निवाले प्रदेशमें भी रहता है, ऐसा निश्चय हैं, अत: वह निश्चित विपक्ष वृत्ति अनैकान्तिक है । २. दूसरेका ( शंकित विपक्ष वृत्तिका) उदाहरण यह है- 'गर्भस्थ मैत्रीका पुत्र श्याम होना चाहिए, क्योकि मैत्रीका पुत्र है, दूसरे मैत्रीके पुत्रो की सरह' यहाँ 'मैत्रीका पुत्रपना हेतु गर्भस्थ मैत्रीके पुत्र रहता है. पक्ष दूसरे मंत्री पुत्रो में रहता है और विपक्ष अश्याम गोरे पुत्र भी रहे इस शक्ाकी निवृत्ति न होनेमे अर्थात् विपक्षमें भी उसके रहने की शका बनी रहने से वह शक्ति विपक्षवृत्ति है । ३ शक्ति विपक्षवृत्तिका दूसरा भी उदाहरण है - अहंत सर्वज्ञ नही होना चाहिए, क्योकि वक्ता है, जैसे राह चलता पुरुष' । यहाँ 'वक्तापन' हेतु जिस प्रकार अहंसने और समभूत ज्यापुरुषमें रहता है उसी प्रकार सर्वज्ञमें भी उसके रहने की सम्भावना की जाय, क्योकि वक्तापन और ज्ञातापनका कोई विरोध नही है । जिसका जिसके साथ विरोध होता है, वह उसवालेमे नही रहता है, और वचन तथा ज्ञानका लोकमे विरोध नहीं है कि लानी होने चतुराई अथवा सुन्दरता स्पष्ट देखनेमे आती हे । अत विशिष्ट ज्ञानवान सर्वज्ञमे विशिष्ट वक्तापन के होनेमे क्या आप है इस तरह बक्कापनको विपक्षभूत सर्वज्ञमे भी सम्भावना होनेसे वह शक्ति विपक्षवृत्ति नामका भास है। * उपग्रह आदि व्यभिचार दे नय/11/ व्यय - दे. उत्पाद व्यय धौव्य । व्यवच्छेदवावि/१/४६/६ व्यवच्छे निरास - निरा करण या निवृत्ति करना व्यवच्छेद है । ★ अन्ययोग आदि व्यवच्छेद - दे, एव । व्यवसाय व्यवसायो न्या. वि. / त्रृ./१/७/१४०/१७ अवसायोऽधिगमस्तदभावो निशब्दस्याभावात्वा विमलादिवत् अधिगम अर्थात् ज्ञानको अवसाय कहते है । उसका अभाव व्यवसाय है, क्योकि, 'वि' उपसर्ग भावार्थ है जैसे विमल' का अर्थ मत रहित है। १ द्र. स / ४२ / १८१/४ व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थ | व्यवसायाम अर्थात निश्चयात्मक। दे. अवाय - (अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुंडा, और प्रत्यामुंडा ये पर्यायवाची नाम है ।) ६१७ * कृषि व्यवसायकी उत्तमता दे, समय 41 व्यवस्थारावा./२/२/२६/४३३ / २ अतिष्ठन्ते पदार्थों अनया आकृत्येत्यवस्था, विविधा अवस्था व्यवस्था विविधसंनिवेशो, वेत्राद्यासनाकार इत्यर्थ. । = जिस आकृतिके द्वारा पदार्थ ठहराये जाते है वह अवस्था कहलाती है । विविध अवस्था व्यवस्था है । वेत्रासनादि आकाररूप विविध सन्निवेश, यह इसका अर्थ है । नोट - ( किसी विषयमें स्थितिको व्यवस्था कहते है और उससे विपरीतको अव्यवस्था कहते है । ) व्यवस्था पद प भा० ३-७८ Jain Education International व्यवस्था हानि हानि व्यवहार - * मनुष्य व्यवहार-दे मनुष्य व्यवहार । व्यवहारत्व गुण - / /४४८ /६०३ पचविवहार जो विचार बहुसो यदिट्ठक्योहार होइ १४४८ | = पाँच प्रकारके प्रायश्चित्तको जो उनके स्वरूपसहित सविस्तार जानते हैं जिन्होने अन्य आचायको प्रायश्चित देते हुए देखा है, और स्वयं भी जिन्होने दिया है, ऐसे आचार्यको व्यवहारमा आचार्य कहते है। व्यवहारद्रव्यदेन/४/२/४ व्यवहार नयदे नय /\/४-६ । व्यवहार पल्य- दे गणित // २ / ५,६ । व्यवहार सत्य - दे, सत्य / १ । व्यवहाराबलंबी देसा / २ । व्यसन 1 वि/१/१६.१२ समससुरा वेश्या सेटचीर्यपराहना महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेदबुध' । १६ । न परमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि त्यक्त्वा सत्पथमपथप्रवृत्तय क्षुद्रबुद्धीनाम् |३२| १ जुआ, मास, मद्य, वेश्या, शिकार चोरी और परखी, इस प्रकार ये सात महापावरूप व्यसन हैं । बुद्धिमान् पुरुषको इन सबका त्याग करना चाहिए। (पं वि /६/१०), (वसु श्रा० / ५६ ); (चा. पा / टी / २१/४३ / १र उद्धृत ), ( ला सं / २ / ११३) । २. केवल इतने ही व्यसन नहीं है, किन्तु दूसरे भी बहुतसे है अल्पमति पुरुष समीचीन मार्गको छोड़कर कुत्सित हुआ करते है |३२| कारण कि मार्ग में प्रवृत्त * अन्य सम्बन्धित विषय १. वेश्या व्यसनका निषेध २. परखी गमन निषेध ३. चोरी व्यसन ४. द्यूत आदि अन्य व्यसन व्याकरण- १. आगम ज्ञानमें व्याकरणका २ वैयाकरणी लोग शब्द समभिव एवं अनेकांत/२/१ " व्याख्या प्रशप्ति जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे. - 1 बह्मचर्य / ३ चर्य। - दे, अस्तेय । - दे. वह वह नाम । स्थान- दे. आगम / ३ । नयाभासी है।-दे. व्याकरण- १. आ पूज्यपाद देवनन्दि (ई. श. ५) द्वारा रचित ३००० सूत्र प्रमाण संस्कृत की जैनेन्द्र व्याकरण । टीकायें- पूज्यपाद कृत जेनेन्द्र न्यास, प्रभाचन्द्र नं ४ कृत शब्दाम्भोज भास्कर, अभयनन्दि कृत महावृत्ति, श्रुतकीर्ति कृत पंचवस्तु । (जै / १२ / ३८७) (ती / २ / २३० ) । २ पूज्यपाद (ई. श ५) कृत मुग्धबोध व्याकरण | ३ हेमचन्द्र सूरि (ई १०८८ ११७३) कृत प्राकृत तथा गुजराती व्याकरण । ४ नयसेन ( ई ११२५) कृत कन्नड व्याकरण । (तो /३/२६५) । ५ श्रुतसागर (ई. १४८१-१४६६) कृत प्राकृत व्याकरण । ६. शुभचन्द्र (ई १५१६-१५५६) कृत प्राकृत व्याकरण । व्याख्या- नन्दा भद्रा आदि व्याख्याएँ - दे. बॉचना । व्याख्या प्रज्ञप्ति-५ द्वादशांगका एक भेद - दे. श्रुतज्ञान / III | २. आ अमितगति (ई. १८३-१०२३) द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ । (दे. अमित गति) । ३. आ बप्पदेव (वि. श. ७) कृत ६०,००० श्लोक प्रमाण कर्म विषयक प्राकृत ग्रन्थ (दे. परिशिष्ट ) । www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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