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________________ वैक्रियिक ६०२ १. वैक्रियिक शरीर निर्देश वैक्रियिक शरीर नामकर्मका बंधउदय सत्व। -दे. वह वह नाम । वैक्रियिक शरीरको संबातन परिशातन कृति। (-दे. घ. १/४,९,५४/३५५-४५१) विक्रिया ऋद्धि। -दे.ऋद्वि/३॥ वैक्रियिक व मिश्र काययोग निर्देश वैक्रियिक व मिश्र काय योगके लक्षण । वैक्रियिक व मिश्र काययोगका स्वामित्व । पर्याप्तको मिश्रयोग क्यों नही। -दे. काय/३ । भाव मार्गणा इष्ट है। -~-दे. मार्गणा। इसके स्वामियोके गुणस्थान मार्गणास्थान जीव समास आदि २० प्ररूपणाएँ। -दे, सत् । इसके स्वामियोंके सत् संख्या क्षेत्र स्पर्श काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्व। -दे. वह वह नाम । इस योगमें कर्मोका बन्ध उदय सत्त्व । -दे. वह वह नाम । वैक्रियिक समुद्घात निर्देश वैक्रियिक समुद्घातका लक्षण । * | इसमें आत्मप्रदेशोका विस्तार। -दे. वे क्रियिक/९/८ | इसकी दिशा व अवस्थिति। -दे. समुद्रात । इसका स्वामित्व। * इसमें मन वचन योगकी सम्भावना। --दे. योग/४। ३. वैक्रियिक शरीरका स्वामित्व त. सू /२/४६,४७ औपपादिक वै क्रियिकम् ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ।४७। वे क्रियिक शरीर उपपाद जन्मसे पैदा होता है । तथा लब्धि (ऋद्धि ) से भी पैदा होता है। रा. वा /२/४६/८/१५३/२३ वै क्रियिक देवनारकाणाम, तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणा च केषाचित् । -देव नारकियोको, (पर्याप्त) तेज व वायु कायिकोको तथा किन्ही किन्ही ( पर्याप्त ) प चेन्द्रिय तिर्यंचो व मनुष्योको वै क्रियिक शरीर होता है। (गो. जी./मू./ २३३/४६६)। ध, ४/१.४.६६/२४६/३ तेउक्काइयपज्जत्ता चेव बेउब्बियसरीर उठावे ति, अपज्जत्तेसु तदभावा । ते च पज्जत्ता कम्मभूमीसु चेव होति त्ति । -तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव ही वैक्रियिक शरीरको उत्पन्न करते है, क्योकि अपर्याप्तक जीवोमे वैक्रियिक शरीरके उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है। और वे पर्याप्त जीव कर्मभूमि में ही होते है। दे. शरीर/२ ( पाँचो शरीरोके स्वामित्वको ओध आदेश प्ररूपणा/.)। १. कौन कैसी विक्रिया करे रा. वा/२/४७/४/१५२/६ सा उभयी च विद्यते भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनाम्। वैमानिकाना आसर्वार्थ सिधे प्रशस्तरूपकत्व विक्रियेव। नारकाणा त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिडिवालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया आ षष्ठया । सप्तम्या महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्वविक्रिया नानेकप्रहरणविक्रिया, न च पृथक्त्वविक्रिया। तिरश्चा मयूरादीना कुमारादिभावं प्रतिविशिष्टै कत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया। मनुष्याणा तपोविधादिप्राधान्यात प्रतिविशिष्टै कत्वपृथक्त्वविक्रिया । भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और सोलह स्वर्गोके देवोके एक्रव व पृथक्त्व दोनों प्रकारको विक्रिया होती है। ऊपर अवेयक आदि सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्तके देवोके प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। छठवे नरक तकके नारकियोके त्रिशुल चक्र तलवार मुद्गर आदि रूपसे जो विक्रिया होती है वह एकत्व विक्रिया ही है न कि पृथक्त्व विक्रिया। सातवें नरकमें गाय बराबर कीडे लोह आदि रूपसे एकत्व विक्रिया हो होती है, आयुधरूपसे पृथक् विक्रिया नही होती। तिर्यचोमें मसूर आदिके कुमार आदि भावरूप एकत्व विक्रिया ही होती है पृथक्त्व बिक्रिया नहीं होती। मनुष्योके तप और विद्याकी प्रधानतासे एकत्व व पृथक्त्व दोनो विक्रिया होती है। घ.६/४,१,७१/३५५/२ णेरइएसु उबियपरिसादणकदी णस्थि पुधविउब्बणाभावादो। नारकियोमे वैक्रियिक शरीरकी परिशातन कृति नहीं होती, क्योकि उनके पृथक विक्रियाका अभाव है। गो. जी./जी. प्र.२३३/४६७/३ येषां जीवानां औदारिकशरीरमेव विगूर्वणात्मक विक्रियात्मक भवेत् ते जीवा अपृथग्वि क्रियया परिणमन्तीत्यर्थ । भोगभूमिजा' चक्रवर्तिनश्च पृथग विगूर्वन्ति । जिन जीवोके औदारिक शरीर ही विक्रियात्मक होते है अर्थात् तिर्यच और मनुष्य अपृथक् विक्रियाके द्वारा ही परिणमन करते है। परन्तु भोगभूमिज और चक्रवर्ती पृथक विक्रिया भी करते है। ५. वैकियिक शरीरके उ. ज. प्रदेशोंका स्वामित्व ष. खं. १४/५,६/सूत्र ४३१-४४४/४११-४१३ उक्कस्सपदेण वे उव्वियसरीरस्स उक्कस्सय पदेसग कस्स ।४३१॥ अण्णदरस्स आरणअच्चुदकप्पवासियदेवस्स बावीससागरोवमद्विदियस्स ।४३२॥ तेणे पढमसमयआहारएण पढमसमयतम्भवत्येण उक्कस्रजोगेण आहारिदो ।४३३॥ उक्कस्सियाए वड्ढोए वढिदो।४३४। अतोमुहूत्तेण सव्वलहूं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्त पदो ॥४३॥ तस्स अप्पाओ भासद्धाओ 1४३६। अप्पाओ मणजोगद्धाओ ।४३७ णस्थि अविच्छेदा ४३८१ अप्पदरं १. वैक्रियिक शरीर निर्देश १. वैक्रियिक शरीरका लक्षण स सि /२/३६/१६१६ अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । =अणिमा महिमा आदि आठ गुणोके ( दे, ऋद्धि/३) ऐश्वर्यके सम्बन्धसे एक, अनेक, छोटा, बडा आदि नाना प्रकारका शरीर करना विक्रिया है। वह बिक्रिया जिस शरीरका प्रयोजन है वह बै क्रियिक शरीर है। (रा.वा /२/३६/६/१४६/७); (ध. १४१,१,५६/२६१/६) ष वं. १४/५,६/मू. २३८/३२५ 'विविहइड्ढिगुणजुत्तमिदि वेउधियं । ५३८ । - विविधगुण ऋद्धियोसे युक्त है (दे० ऋद्धि/३), इसलिए वैक्रियिक है ।२३८। (रा. वा./२/४६/८/१५३/१३), (दे० व क्रियिक/ २/१)। २. विक्रियाके भेद व उनके लक्षण रा. वा./२/४७/४/१५२/७ सा द्वेधा-एकत्वविक्रिया पृथक्त्वविक्रिया चेति । तत्रैकरब विक्रिया स्वशरोरादपृथग्भावेन सिहव्यावहसकुररादिभावेन विक्रिया। पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्डपादिविक्रिया।वह विक्रिया दो प्रकारकी है-एकत्व व पृथक्त्व । तहाँ अपने शरीरको ही सिंह व्याघ्र हिरण हंस आदि रूपसे बना लेना एकत्व विक्रिया है और शरीरसे भिन्न मकान मण्डप आदि बना देना पृथक्त्व विक्रिया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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