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________________ तेदनीय वेदान्त सातावदनीयका व्यापार होता है। इस व्यवस्थाके माननेपर सातावेदनीय प्रकृतिके पुद्गल विपाक्त्वि प्राप्त होगा, ऐसी भी आशका नही करनी चाहिए, क्योकि दु खके उपशमसे उत्पन्न हुए दुख के अविनाभावी उपचारसे ही सुख सज्ञाको प्राप्त और जीवसे अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्यके क्णका हेतु होनेसे सूत्र में साताबेदनीय कमके जीवविपाकित्वका और सुख हेतुत्वका उपदेश दिया गया है। यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकीपना और पुद्गल विषाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नही है, क्योकि, यह बात हमें इष्ट है। यदि कहा जाये कि उक्त प्रकारका उपदेश प्राप्त नही है, सो भी नहीं, क्योकि, जीवका अस्तित्त्व अन्यथा बन नही सक्ता है, इसलिए उस प्रकार के उपदेशको सिद्धि हो जाती है। सुख और दुखके कारणभूत द्रव्योका सम्पादन करने वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योकि वैसा पाया नहीं जाता। दे० अनुभाग/३/३ (घातिया कर्मोके बिना वेदनीय अपना कार्य करनेको समर्थ नहीं है, इसलिए उसे घातिया नहीं कहा गया है।) १४. वेदनीयके बाह्य व अन्तरंग व्यापारका समन्वय ध. १३/५,५,६३/३३४/४ इत्यसमागमो अणि?त्यविओगो च सुहं णाम । अणिठ्ठत्थ समागमो इट्ठत्थ वियोगो च दुख णाम। = इष्ट अर्थके समागम और अनिष्ट अर्थ के वियोगका नाम सुख है। तथा अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोगका नाम दुख है। और मोहके कारण बिना पदार्थ इष्टानिष्ट होता नही है।-दे० राग/२/५ । घ. १५/३/६/६ सिरोवेयणादी दुक्खं णाम । तस्स उवसमो तदणुप्पत्ती वा दुक्खुवसमहेउदबादि संपत्ती वा सुहं गाम । तत्थ वेयणीयं णिबद्भ, तदुप्पत्तिकारण तादो। सिरकी वेदना आदिका नाम दुख है। उक्त वेदनाका उपशान्त हो जाना अथवा उसका उत्पन्न ही न होना, अथवा दुखोपशान्तिके कारण भूत द्रव्यादिक्की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है। उसमें वेदनीय कर्म निबद्ध है। दे० वेदनीय/१० (दु खके उपशमसे प्राप्त और उपचारसे सुख संज्ञाको प्राप्त जीवके स्वास्थ्यका कारण होनेसे ही साता वेदनीयको जीव विपाकी कहा है अन्यथा वह पुद्गल विपाकी है।) दे० अनुभाग/३/३,४ ( मोहनीय कर्म के साथ रहते हुए वेदनीय धातिया __वव है, अन्यथा वह अघातिया है)। दे० सुख/२/१० (दु ख अवश्य असाताके उदयसे होता है, पर स्वाभाविक सुरव असाताके उदयसे नहीं होता। साता जनित सुख भी वास्तवमें दुःख ही है।) दे० वेदनीम/३ (बाह्य सामग्री के सन्निधान में ही सुरव-दुख उत्पन्न होता है।) +वेदनीय कम जीव विपाकी है-दे, प्रकृति बन्ध/२। ११. अघाती होनेसे केवल वेदनीय वास्तव में सुखका विपक्षी नहीं है प ध/उ/१११४-१११५ कर्माष्टकं विपक्षि स्यात मुनस्यैक्गुणस्य च । अस्ति किचिन्न कमकं तद्विपक्षं तत पृथक् ॥१११४। वेदनीय हि कम कमस्ति चेतद्विपक्षि च । न यतोऽस्यास्त्यघातित्वं प्रसिद्ध' परमागमात् ।१११५। - आत्माके सुख नामक गुणके विपक्षी वास्तव में आठो हो कर्म है. पृथक्से कोई एक कर्म नही ।१११४। यदि ऐसा कहो कि उसका विपक्षी एक वेदनीय कर्म ही है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि, परमागममें इस वेदनीय कर्मको अघातियापना प्रसिद्ध है ।१११५ -( और भी दे मोक्ष/३/३) १२. वेदनीयका व्यापार कथंचित् सुख-दुःखमें होता है ष ख १४सू ३, १५/पृष्ट ६, ११ वेयणीय सुहदुक्खम्हि णिबद्ध। सादासादाणमप्याणम्हि णिबधो १३ वेदनीय सुख व दुखमें निबद्ध है।३। सातावेदनीय और असाता वेदनीय आत्मामें निबद्ध प्र. सा /त. प्र/७६ विच्छिन्न हि सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वद्योदयप्रवृसतयानुभवत्वादुभूतविपक्षतया। -विच्छिन्न होता हुआ असाता वेदनीयका उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीयके उदयसे प्रवर्तमान होता हुआ अनुभवमें आता है, इसलिए इन्द्रिय सुख विपक्षकी उत्पत्तिवाला है। दे अनुभाग/३/४ ( वेदनीय कर्म कथ चित् घातिया प्रकृति है।) दे. वेदनीय/१/३ ( साता सुखका अनुभव कराता है और असातावेदनीय दुखका ।) १३. मोहनीयके सहवर्ती ही वेदनीय कार्यकारी है अन्यथा नहीं * अन्य सम्बन्धित विषय१. वेदनीय कर्मके उदाहरण । -दे० प्रकृतिबन्ध/३। २. साता असाताका उदय युगपत् भी सम्भव है। -दे० केली /४,११,१२, । ३. वेदनीय प्रकृतिमें दसों करण सम्भव है। -दे० करण/२ ॥ ४. वेदनीयके बन्ध उदय सत्व । -दे० वह वह नाम । ५ वेदनीयका कथंचित् घाती-अघातीपना। -दे० अनुभाग ३ । ६. तीर्थकर व केवलीमें सात्ता असाताके उदय आदि सम्बन्धी। -दे० केवली/४। ७ वेदनीयके अभावसे सासारिक सुख नष्ट होता है। स्वाभाविक सुख नहीं। -दे० सुख/२/११॥ ८ असाताके उदयमें औषधियॉ आदि भी सामथ्यहीन हो जाती है। -दे० कारण/III/५/४ वेदान्त ध १३/५,४,२४/५३/२ वेदिदं पि असादवेदणीय ण वेदिदं. सगसहकारिकारणघादिकम्माभावेण दुक्खजणणसत्तिरोहादो। - असाता वेदनीयसे वे दित होकर भी ( केवली भगवान् ) वेदित नही है, क्योकि अपने सहकारिकारणभूत घाति कर्मों का अभाव हो जानेसे उसमे दुखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध है। -और भी दे० केवली/ ४/१२/१। १ वेदान्त सामान्य सामान्य परिचय प्रवर्तक, साहित्य व समय जैन व वेदान्तकी तुलना द्वैत व अद्वैत दर्शनका समन्वय भर्तृप्रपंच वेदान्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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