SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वेदनीय ५९२ वंदनीय मंदसे वेदनीय कर्मको अनन्त शक्तियों क्यों नहीं कही गयी हैं! उत्तर-यदि पर्यायाथिक नयका अवलम्बन किया गया होता तो. यह कहना सत्य था, परन्तु चूंकि यहाँ द्रव्याथिक नयका अवतम्बन किया गया है, अतएव वेदनीयकी उतनी मात्र शक्तियाँ सम्भव नहीं है, किन्तु दा हो शक्तियाँ सम्भव हैं। ६. साता-असाता वेदनीयके लक्षण स. सि.///३८४/४ यदुदयावादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिस्तत्स द्व दाम् । प्रशस्तं वेद्य सहृद्यमिति । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदरवद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वैद्यमिति। -जिसके उदयसे देवादि गतियों में शरीर और मन सम्बन्धी सुख की प्राप्ति होती है वह सदद्य है। प्रशस्त वद्यका नाम सद्वद्य है। जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकार के दुःख मिलते हैं वह असद्वेद्य है। अप्रशस्त वैद्यका नाम असद्ध है। (गो. क./मू./१४/१०); गो, क./जा.प्र./३५/ रा. वा./८/८/१-२/२७३/२० देवादिषु मतिषु बहुप्रकारजातिविशिष्टासु यस्यादयात अन गृहोतात द्रव्यसंबन्धापेक्षात प्राणिनां शरीरमानसानेकविध मुत्रपरिणामस्तत्सद्वद्यम् । प्रशस्तं वेद्य सद्वेद्य ॥१॥ नारका दिपु गतिपु नानाप्रकारजातिविशेषावकीर्णामु कायिक बहुविध मानसं वाति दुःसहं जन्मजरामरणप्रिय विप्रयोगाप्रियसंयोगव्याधिबधबन्धादिजनित दुःखं यस्य फलं प्राणिनी तवसद्वद्यम् । अप्रशस्त बंद्यम् असदद्यम् । बहुत प्रकारकी जाति-विशिष्ट देव आदि गतियों में इष्ट सामग्रीके सन्निधानको अपेक्षा प्राणियों के अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक सुखोंका, जिसके उदयसे अनुभव होता है वह सातावेदनीय है और जिसके उदयसे नाना प्रकार जातिरूप विशेषोंसे अवकीर्ण नरक आदि गतियों में बहुत प्रकारके कायिक मानस अतिदुःसह जन्म जरा-मरण प्रिय बियाग अप्रियसंयोग व्याधि बध और बन्ध आदिसे जन्म दुःखका अनुभव होता है वह असातावदनीय है। घ. ६/१,६-१,१८/३५/३ सादं सुह, तं वेदादि भुंजावेदि त्ति सादावेदणीयं । असादं दुक्रवं, तं वेदावेदि भंजावे दि त्ति असादा. वेदणीयं। -साता यह नाम सुखका है, उस मुखको जो वेदन कराता है अर्थात भोग कराता है, वह सातावेदनीय कर्म है। असाता नाम दुखका है, उसे जो बंदन या अनुभवन कराता है उसे असाता वेदनीय कर्म कहते हैं। (ध. १३/५,५,८८/३५७/२)। गो, क. जो. प्र./२६/१७/८ रतिमोहनोयोदयबलेन जीवस्य सुखकार णीन्द्रयविषयानुभवनं कारयति तत्सातवदनीयं । दुःख कारणेन्द्रियविषयानुभवन कारयति अरतिमोहनीयोदयबलेन तदसातबंदनाय। -रतिमोहनीय कर्म के उदयसे सुखके कारण मूत इन्द्रियोंके विषयों का जो अनुभव कराता है वह सातवेदनोय कर्म है। दुःखके कारणभूत इन्द्रियोंके विषयों का अनुभव, अरति मोहनीयकर्मके उदयसे जो कराता है वह असातवेदनीय कर्म है। ४. सातावेदनीयके बन्ध योग्य परिणाम त. सू./६/१२ भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौच मिति सद्वेद्यस्य।१२। स. सि./३/१२/३३१/पंक्ति 'आदि शब्देन संयमासंयमाकामनिर्जराबाल तपोऽनुरोधः ।२। ...इति शब्दः प्रकारार्थः । के पुनस्ते प्रकाराः। अर्ह पूजाकरणतत्परताभाल वृद्धतपस्विबयावृत्त्यादयः । भूत-अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान और सराग संयम आदिका योग तथा क्षान्ति और शौच ये साता वेदनीयकर्म के आस्रव हैं। सूत्रों सरागसंयमके आगे दिये गये आदि पदसे संयमासंयम अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण होता है। सूत्रमें आया हुआ 'इति' शब्द प्रकारवाची है। वे प्रकार ये हैं, -अर्हन्तकी पूजा करनेमें. तत्परता तथा बाल और वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्त्य आदिका करना। (रा. वा.//१२/७/५२२/२६:१३/५२३/१३); (त, सा./४/२५-२६); (गो, क./मू./८०१/६८०)। ५. असातावेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम त. सू./६/११ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्यस्य ।१३ - अपनेमें अथवा परमें अथवा दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं। (त. सा./४/२०)। रा.वा./4/११/११/३२१/१२ इमे शोकादयः दुःखविकस्पा दुःखबिकल्पानामुपलक्षणार्थ मुपादीयन्ते, ततोऽन्येषामपि संग्रहो भवति । के पुनस्ते। अशुभप्रयोगपरपरिवाद - पैशुन्य - अनुकम्पाभाव - परपरितापनाङ्गो - पाङ्गच्छेदन-भेदन-ताडन-त्रासन-तजन-भर्त्सन-तक्षण-विशंसन-बन्धनरोधन-मर्दन-दमन-वाहन-बिहेडन-ह पण-कायरोक्ष्य-परमिन्दारमप्रशंसासक्लेशप्रादुर्भावनायुर्वहमानता-निर्दयत्व-सत्त्वव्यपरोपण-महारभ्भ परिग्रह - विश्रम्भोपघात- बक्रशोलतापापकर्मजीविश्वानथं दण्डविमिश्रण - शरजालपाशवागुरापञ्जरयन्त्रापायसर्जन-मलाभियोग - शखप्रदान-पापमिश्रभावाः । एते दु:खादयः परिणामा आरमपरोभयस्था असदुद्यस्यासवा वेदितव्याः। -उपरोक्त सत्र में शाकादिका ग्रहण दुःखके विकल्पोंके उपलक्षण रूप है। अतः अन्य विकल्पोंका भी संग्रह हो जाता है। वे विकल्प निम्न प्रकार हैं-अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्य पूर्वक अनुकम्पाभाव, परपरिताप, अगोपांगच्छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तर्जन, भरसन, तक्षण, विशंसन, बन्धन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, हपन, शरीरको रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भाव, जोवनको यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरम्भ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थ दण्ड, विषमिश्रण बाण-जल पाश रस्सी पिंजरा, यन्त्र, आदि हिंसाके साधनोंका उत्पादन, जबरदस्तो शस्त्र देना, और दुःखादि पापमिश्रित भाव । ये सब दुःख आदिक परिणाम अपने में, परमें और दोनोंमें रहने वाले होकर असातावेदनीयके आस्रवके कारण होते हैं। (त. सा/४/२१-२४)। भ. आ./वि./४४६/६५३/१८ पर उद्धृत-अन्येषां यो दुःखमज्ञोऽनुकम्पा त्यक्त्वा तीव्र तावसंक्लेशयुक्तः । बन्धच्छेदैस्ताडनरिणश्च दाहै राधेश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं कक्षन्नात्मनो दुष्टचित्तो नीचो नाचं कर्म कुर्बन्सदैव। पश्चात्ताप तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसा तवेद्य' सदैवम् । -रोगाभिभवान्नष्टवुद्धिचेष्टः कथमेव हितोद्योग कुर्यात् । -जो मूर्ख मनुष्य दयाका त्याग कर तीन संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणीको बाँधना, तोड़ना, पीटना, प्राण लेना, खानेके और पानेके पदार्थोंसे बंचित रखना ऐसे हो कार्य हमेशा करता है। ऐसे कार्य में हो अपनेको सुखो मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है, ऐसे कार्य करते समय जिनके मन में पश्चात्ताप होता नहीं, उसीको निरन्तर असातावेदनीय कर्मका बन्ध होता है, जिससे उसका देह हमेशा रोग पीड़ित रहता है, तब उसकी बुद्धि व क्रियाएं नष्ट होती हैं। वह पुरुष अपने हितका उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता। ६. साता-असाताके उदयका ज. उ. काल व अन्तर ध. १३/५,४,२४/५३/११ सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूण पुत्रको डिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेवलि मोत्तण अण्णस्थ उदयकालस्स अंतोमुहूत्तणियमभुवगमादो । -प्रश्न-इस तरह तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है। उत्तरनहीं, क्योंकि, सयोगिकेवली गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका अन्तर्मुहुर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है। . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy