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________________ वेद ५८३ १. भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान ..... | ५ | गति आदिकी अपेक्षा वेद मार्गणाका | स्वामित्व | वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् । वेद मार्गणाके स्वामी सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्रकाल भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ। -दे० वह-वह नाम। १ नरकमें केवल नपुंसकवेद होता है। २ | भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्योंमें तथा सभी देवोंमें दो ही वेद होते है। ३ कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूच्छिम तिर्यचोंमें ___ केवल नपुंसकवेद होता है । ४ | कर्मभूमिज सशी असशी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेदवाले होते है। ५ एकेन्द्रियोंमें वेदभावको सिद्धि । चींटी आदि नपुंसकवेदी ही कैसे। विग्रहगतिमें अव्यक्त वेद होता है। वेदमार्गणामें सम्यक्त्व व गुणस्थान सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश। अपशस्त वेदोमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यन्त अल्प होते है। सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्रियोंमें भी उत्पन्न नहीं होते -दे. जन्म/३। मनुष्यणीमें १४ गुणस्थान कैसे। -देबेद/७/६। | ऊपरके गुणस्थानोंमें वेदका उदय कैसे।-दे० सज्ञा । अप्रशस्तं वेदके साथ आहारक आदि ऋद्धियोंका निषेध । १. भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान १.वेद सामान्यका लक्षण-लिगके अर्थ में। स. सि /२/१२/२००/४ वेद्यत इति वेद लिङ्गमित्यर्थः । = जो वेदा जाता है उसे वेद कहते है । उसका दूसरा नाम लिंग है। (रा. वा./ २/१२/१/१५७/२): (ध.१/१,१,४/१४०/५)। पं. सं./प्रा./१/१०१ वेदस्सुदरिणाए बालत्त पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयति तदो हवदि वेदो ।१०११= वेदकर्म की उदीरणा होनेपर यह जीव नाना प्रकारके बालभाव अर्थात् चाचल्यको प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एव नसभावका वेदन करता है। अतएव वेद कर्म के उदयसे होनेवाले भावको वेद कहते है। (ध, १/१,१,४/गा. ८६/१४१), (गो. जी /मू./२७२/५६३)। ध१/१,१,४/पृष्ठ/पक्ति-वेद्यत इति वेदः । (१४०/५)। अथवात्मप्रवृत्तेः समोहोत्पादो वेदः । (१४०/७) । अथवात्मप्रवृत्ते मैथुनसंमोहोत्पादो वेद' । (१४१/१) । ध. १/१,१.१०१/३४१/१ वेदन वेद' -१, जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते है। २. अथवा आत्माकी चैतन्यरूप पर्यायमें सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेपके उत्पन्न होनेको मोह कहते है। यहॉपर मोह शब्द वेदका पर्यायवाची है। (ध.७/२,१,३/७); ( गो जी/जी. प्र./२७२/५६४/३)। ३. अथवा आत्माकी चैतन्यरूप पर्यायमें मैथुनरूप चित्तविक्षेपके उत्पन्न होनेको वेद कहते है। ४. अथवा वेदन करनेको वेद कहते है। ध.१४१,७,४२/२२२/८ मोहणीसदयकम्मरबंधी तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो। -मोहनीयके द्रव्यकर्म स्कन्धको अथवा मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते है। स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध स्त्रीको तद्भवसे मोक्ष नहीं। फिर भी भवान्तरमें मुक्तिकी अभिलाषासे जिन दीक्षा लेती है। तद्भव मुक्तिनिषेधमे हेतु उसका चंचल व प्रमाद बहुल स्वभाव। तद्भव मुक्तिनिषेधमें हेतु सचेलता। स्त्रीको भी कदाचित् नग्न रहनेकी आशा। -दे० लिग/१/४। आर्यिकाको महाव्रती कैसे कहते हो। फिर मनुष्यणीको १४ गुणस्थान कैसे कहे गये। स्त्रीके सवस्त्रलिगमें हेतु। मुक्तिनिषेध हेतु उत्तम संहननादिका अभाव । मुक्ति निषेधमें हेतु शुक्लध्यानका अभाव । -दे० शुक्लध्यान/३। स्त्रीको तीर्थकर कहना युक्त नहीं। २ शास्त्रके अर्थमें ध १३/५,५.५०/२८६/८ अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धान्त। एतेन सूत्रकण्ठग्रन्थकथाया वितथरूपाया' वेदत्वमपास्तम् । = अशेष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है। इससे सूत्रकण्ठों अर्थात ब्राह्मणोकी ग्रन्थकथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है। ( श्रुतज्ञान ही वास्तव में वेद है।) २. वेदके भेद ष. वं 1१/१,१/सूत्र १०१/३४० वेदाणुवादेण अत्यि इथिवेदा पुरिसवेदा ___णव॑सयवेदा अवगदवेदा चेदि ।१०। -वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्री वेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेदवाले जीव होते हैं ।१०१० पं. सं./प्रा./१/१०४ इथि पुरिस णउसय वेया खलु दव्वभावदो होति । -स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नर्पसक ये तीनों ही वेद निश्चयसे द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके होते है। स.सि /२/६/१५६/५ लिग त्रिभेदं, स्त्रीवेद' वेदो नपुंसकवेद इति । =लिंग तीन प्रकारका है-स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसक्वेद । (रा. वा./६/७/११/६०४/५ ), (द्र.सं./टी /१३/३७/१०)। स.सि./२/१२/२००/४ तद् द्विविध-द्रव्यलिड्ग भावलिङ्ग चेदि।इसके दो भेद है-द्रव्यलिंग और भावलिंग। (स सि./६/४७/ ४६२/३ ), ( रा. वा./२/६/३/१०६/१), (रा. वा/६/४७/४/६३८/१०); (प.ध./उ./१०७६)। ३. द्रव्य व भाव वेदके लक्षण स. सि /२/१२/२००५ द्रव्यलिङ्ग योनिमेहनादिनामकर्मोदयनिर्वतितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिङ्गम्। जो योनि मेहन आदि नाम कर्म के उदयसे रचा जाता है वह द्रव्यलिग है और जिसकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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