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________________ विशुद्धि विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि चित्र विचित्र न होकर निर्दोष हो, ऐसे विशुद्ध पुण्यकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको भी विशुद्ध कहते है | यहाँ कार्य में कारणका उपचार है । जैसे तन्तुओं में कपासका उपचार करके तन्तुओं को भी कपास कहते है । (रा.वा / २/४६/२/१५२/२६ । विशुद्धि-साता बेदनीय के बन्धमें कारणभूत परिणाम विशुद्धि तथा असातावेदनीयके बन्धमें कारणभूत संक्लेश कहे जाते है । जीवको प्राय मरते समय उत्कृष्ट सक्लेश होता है। जागृत तथा साकारोपयोगको दशामें ही उत्कृष्ट सक्लेश या विशुद्धि सम्भव है। ५६८ १. विशुद्धि व संक्लेशके लक्षण = स.सि / २ / २४/१३० / तदावरणक्षयोपशमे सति आत्मन प्रसादो विशुद्धि मन पर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मा निर्मलता आती है उसे विशुद्धि कहते है । ( रा. वा./१/२४/ - १८५/१६) । 1 प. ६/१३-०२/१००/६ असारमंथनोग्गपरिणाम संकितसो काम का विसोही सादबंधजोगपरिणामो उक्रसट ठिदीदो उपरिमविदयादिठिदीओ बधमानस्य परिणाम दिसोहि त उदि जहणट्ठिदी उवरिम-विदियादिद्विदीओ बंधमाणस्स परिणामो सक्लेसोत्ति केवि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे । कुदो । जहण्णुक्कपरिणामे मोसून सेसमज्झिमद्विदीय परिणामा प सकिले विसोहिप्पसंगादो । ण च एवं एक्कस्स परिणामस्स लक्खणभेदेण विणा दुभावविरोहादो । - असाताके बन्धयोग्य परिगामको है और सावाके बन्ध योग्य परिणामको विशुद्धि कहते है । कितने ही आचार्य ऐसा कहते है कि उत्कृष्ट स्थिति से अधस्तन स्थितियोको बाँधनेवाले जीवका परिणाम 'विशुद्धि' इस नामसे कहा जाता है, और जघन्य स्थितिसे उपरिम-द्वितीय तृतीय आदि स्थितियोंको बाँधनेवाले जीवाका परिणाम सक्लेश कहलाता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके बँधनेके योग्य परिणामोंको छोडकर शेष मध्यम स्थितियों के बाँधने योग्य सर्व परिणामो के भी देश और विशुद्धताका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, एक परि नामके लक्षण भेदके बिना द्विभाव अर्थात् दो प्रकार के होनेका विरोध है। = ध. ११/४, २, ६, १६६-१७० / ३१४/६ अइतिञ्चकसायाभावो मदकसाओ विसुद्धा त्ति घेत्तव्त्रा । तत्थ सादस्स चउट्ठाणबधा जीवा सव्वविसुद्ध भिणिदेदसंकिसा चिरा जगद्विदिबंधकारण जीवपरिणामो वा विसुद्धा णाम । साद चट्टणमंधरहितो सादस्मेतिद्वाणामागमंचया जोबा सकिसिसदरा, कसा उका त्ति भणिद होदि । = अत्यन्त तीव्र कषायके अभाव में जो मन्द कषाय होती है, उसे विशुद्धता पदसे ग्रहण करना चाहिए । ( सूत्र में ) साता वेदनीयके चतु स्थानबन्धक जीव सर्व विशुद्ध है, ऐसा पर 'वे अतिशय मन्द संशसे सहित] है ऐसा ब्रह करना चाहिए। अथवा जघन्य स्थितिबन्धका कारणस्वरूप जो जीवका परिणाम है उसे विशुद्धता समझना चाहिए। साताके चतुस्थान की अपेक्षा साताके ही त्रिस्थानानुभागक जीव सक्लिष्टतर है, अर्थात् वे उनकी अपेक्षा उत्कट कषायवाले हैं, यह अभिप्राय है । 1 Jain Education International कपा४/३-२२/६३०/१५/१३ को संकिलेसो णाम । कोह- माण- मायालोहपरिणामविसेसो । क्रोध, मान, माया लोभरूप परिणामविशेषको सबलेश कहते है । २. संक्लेश व विशुद्धि स्थानके लक्षण .पा./५/४-२२/११/१८०/० काणि विसोहिद्वाणाणि । बद्धाणुभागसतस्स बादहेदजीव परिणामो जीव जो परिणाम बाँधे गये अनुभाग सत्कर्मके घात के कारण है, उन्हे विशुद्धिस्थान कहते है । . १९/४.२६.५९/२०८/२ सहि सकिलेसाणा विसोहिद्वाणा च च को भेदो। परियत्तवाणियाणं साद-थिर- सुभ-सुभग-सुस्सरआजादी शुभपडणं मधकारणवसायानामि विसोहा पाणि, असाद अथिर-अह दुभन [ दुस्सर ] अणादेजादीण परि यत्तमाणियाणमसुहपयडीण बंधकारणकसाउदयट्ठाणाणि सकलेसट्टाशापित एसो तेसि भेदो प्रश्न यहाँ सशस्थानों और विशुद्धिस्थानो में क्या भेद है ? उत्तर -साता, स्थिर, शुभ, सुभग सुस्वर और आदेव आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के मध कारणभूत कषायस्थानों को विशुद्धिस्थान कहते हैं, और बसाता अस्थिर, अशुभ, दुभंग, [दुस्वर) और अनादेय आदिक परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियोंके मन्धके कारणभूत कषायोंके उदयस्थानोंको क्लेशस्थान कहते है, यह उन दोनोमें भेद है। । विनुद्धि ससा / आ./५३-५४ कमायाको कणानि संक्लेशस्थानानि ।.. पायविपाकानुलक्षणानि विदिस्थानानि कषायोंके विपक की अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो सक्लेशस्थान तथा कपायोंके विपाककी मन्दता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धि स्थान | ३. वर्द्धमान व हीयमान स्थितिको संक्लेश व विशुद्धि कहना ठीक नहीं है । १/१.१०.२/१०१/१ किलेस विसोही माहीमल भेदो विरुदिति ण, वह डि-हाणि धम्माणं परिणामत्तादो जीवदव्यमाणार्थ परिणामतरेस असंभवानं परिणामलक्खणविरोहादो परनबर्द्धमान स्थितिकी क्लेशा और हीयमान स्थितिको विशुद्धिका लक्षण मान लेनेसे भेद विरोधको नहीं प्राप्त होता है उतर नहीं, क्योंकि, परिणामस्वरूप होनेसे जीन द्रव्यनें अवस्थानको प्राप्त और परिणामान्तरोंमें असम्भव ऐसे वृद्धि और हानि इन दोनों धर्मोके परिणामका विरोध है। विशेषार्थ( स्थितियोंकी वृद्धि और हानि स्वयं जीवके परिणाम है जो क्रमश सनलेश और वृद्धिरूप परिणामकी वृद्धि और हानिसे उत्पन्न होते है स्थितियोंकी और सबसे विशुद्धि वृद्धि और हानिमें कार्य कारण सम्बन्ध अवश्य है, पर उनमें लक्षण लक्ष्य सम्बन्ध नहीं माना जा सकता । ] वर्द्धमान व हीयमान कपायको भी संक्लेश विशुद्धि कहना ठीक नहीं | घ ६ / १,६-७,२/१८१/३ ण च कसायबड्ढी संकिलेस लक्खणं द्विदिबंधउड्ढीए अण्णहाणुत्रवत्तीदो, विसोहिअद्वार बड्ढमाणकसायरस स किलेस सत्तप्पसंगादो ण च विसोहिअद्धार कसायउड्ढी णत्थि त्ति मोतु त खारादीनं भुजगारबंधाभाषपसंगा। न च असादसादबंधा सकिस विसोहीओ मोग अग्मकारण मरिच अवलमा । + साउदी असादनंधकारणं तनकाले सादस्स हुबभाग हाणि तिस्से वि साहारणत्तादो |=षायकी वृद्धि भी सक्लेश नहीं है, क्योकि १ अन्यथा स्थितिबन्धकी वृद्धि मन नहीं सकती है और २ विद्धि कालमें वर्द्धमान कमायाले जीवके भी क्लेश प्रसंग आता है और विशुद्धिके कालमे कषायोकी वृद्धि नहीं होती है. ऐसा कहना भी शुरू नहीं है, क्योंकि जैसा मानने पर साता आदिके भुजगारबन्धके अभावका प्रसग प्राप्त होगा । तथा असाता और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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