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________________ विभाव नियतममशुद्ध स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराध साधु ९८० यदि अति रागद्वेषदोषप्रसूति कतरदचि पप नास्ति तत्र स्वयमणमपराधी व सर्पश्यध भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोध | २२०१ हे ज्ञानी । जो तू कहता है कि "सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोगसे बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ " तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है १ ।१५१ | जो सापराध आत्मा है वह तो नियमसे अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है । निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है ।१८७। इस आत्मागे जो राग-द्वेष रूप दोषोकी उत्पत्ति होती है, उसमें परव्यका कार्ड भी दष नही है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है, इस प्रकार विदित हो, और अज्ञान अस्त हो जाय । २२० | दे० अपराध - ( राव अर्थात आराधनासे हीन व्यक्ति सापराध है । ) ३. विभाव भी बथंचित् स्वभाव है प्रसा/प्र/ १९६ हि संसारियो जीवस्थानादिकमंगलोपाधिसनिविप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निवृ तेवास्ति यहाँ इस जगद) अनादि कर्मगलकी उपाधिके सद्भाब के आपसे जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे ससारी जोवको क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है। १८२/२००/२१ कर्मबन्धस्तावे] रागादिपरिम शुद्रनिश्चयेन स्वभावो भव्यते । कर्मबन्धके प्रकरण में रागादि परिणाम भो अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके स्वभाव कहे जाते हैं । (प काता वृ./६१/११३ / ११.६४/११७/१० ।। दे० भान/२ (ओनिकादि सर्व भाव निश्चयसे जीवके स्वतस तथा पारिणामिक भाव है | ) ४. शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है ? ससा /मू व आ./८६ मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकार. इति गाई परिणाम तिच मोहत्तरस मिच्त अण्णाण अविरदिभावो य णायो । प्रश्न- जीवमिथ्यात्वादि चेतन्य परिणामका विकार कैसे है ? उत्तर - अनादिसे मोहयुक्त होनेमे उपयोगके अनादिमे तीन परिणाम है--मिथ्यात्व, अज्ञान व अरतिभान । = ३.विभावका कथंचित् सहेतुकपना १. जीवके कषाय आदि विभाव सहेतुक हैं। Jain Education International ५५९ ससा सम्म तपधिं मिच्छत जिनवरेहि परि यि सोये जीवा मित्रादिद्वितिय १६१ जह फलिमणी मुद्दा सर्वपरिणमे रगिज यहि दुसा रवीहिहि २७ एवं नाणी मुद्रा ण सय परिणमइ रायमोहि रामदि अहि मा रागादीहिदीमेहि |२७| सम्यक नेता मिया (कर्म) है, ऐसा जिनपरीने कहा है, उसके उदयसे जो मिध्यादृष्टि होता है। इसी प्रकार ज्ञान व चारित्रके प्रतिबन्धक अज्ञान व कषाय नामक कर्म है | १६२ - १६३ | ( स सा / म् । १५७ - १५६ ) । २ जेसे स्फटिकमणि शुद्ध होने ललाई आदि रूपम्य नहीं परिणमता, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्योमे रक्त आदि किया जाता है, इसी प्रकार तानी अनि अत्मा शुद्ध होने रागादि रूप स्वयं नहीं परिणमता परन्तु अन्नादि शेषाने रागादि के निमिन टीका ) ३ विभावका कथंचित् सहेतुकपना रागी आदि किया जाता है । २७६ - २७६ ( स सा / आ /८६ ), ( स. १२२/०६/२९) (३० परिसर/२/३ पं. का //५८ क्म्मेण विना उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा । खइय खओवसमिय तम्हा भावं तु कम्मकदं ॥ ५८॥ कर्म बिना जीवको उदय, उपशम, क्षायिक, अथवा क्षायोपशमिक (भाव) नहीं होते है, इसलिए ये चारों भारत है। १०/२ थान मोमोक्ष। यहेतुओके अभाव और निर्जरासे राम कमौका आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है । क, पा /१/१ १३.१४/६२८५/३२० / २वस्थाल कारासु बज्झावल बणेण = वस्त्र और अल कार आदि बाह्य आलम्बनके विणा तदप्पत्तदो । बिना कषायकी उत्पत्ति नहीं होती है। दे०/२/ कर्म के बिना करायी जाति नहीं होती है।) दे० कारण/111/५/६ ( कर्म के उदयसे ही जोव उपशान्त-काय गुणस्थानसे नीचे गिरता है 1 ) = घ १२/४,२, ८, १/२७५/४ सवं कम्म कज्ज वेव, अकज्जस्स कम्मस्स सिंगर अभावाची च एव कोहादिकामस्थि सणहाणुत्रतोदो कम्माणमत्थितमिद्धीए । कज्ज पि सव्वं सहउअ चेन, णिक्का रणस्स कज्जरस अणुक्ल भादो । सब कर्म कार्य स्वरूप ही है, क्योंकि, जो कर्म अवार्यस्वरूप होते है, उनका खरगोश के सींग के समान अभावका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि, क्रोधादि रूप कार्योंका अस्तित्र बिना कर्म के बन नहीं सकता, अतएव कर्मा अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है। वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि, कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। आप / टी / ९७/३२६६/२४०/०), न च / १६ जीवे जीवसहारा ते बि बिहारा हु कम्मकदा |१| जीवतथा कर्मकृत उसके स्वभाव विभाव में जो स्वभाव होते है । ते है। 1 १०२४ कुत्रापि मान्यरागाशी बुद्धिपूर्वक सस्था विध्यस्य पाकात दया १०५४ - जहाँ हीं अन्यत्र भो अर्थात् किसी भी दशामे बुद्विपूर्वक रागाश पाया जाता है वह के दर्शन व परिजमोहनीयके उदयसे अथवा उनी एकके उसे ही होता है । १०६४ । दे० विभाव/१/२,३ ( जीवका विभाव वैभाविकी शक्ति के कारण से होता बे है और यह कि शक्ति भी अन्य सम्पूर्ण सामग्री के सद्भाव ही विभावरूप परिमन करती है।) २ जीबी अन्य पर्यायें भी कर्मकृत है स. सा /मू /२५७-२५८ जो मर जो ग दुहिदा जायदि कम्मोदयेण सो सव्यो । तम्हा दुमारिदो दे दुहाविदा चेदिण हुमिच्छा ॥ २५७॥ जाण मरदि ण य दुहिदा नो वि य कम्मादयेण चैव खलु । तम्हा मारिदो णो दुहानिदो चेदि ण हु मिच्छा | २५८ जो मरता है और जो होता है हमसे होता है, इसलिए मैंने मारा, मेने तु खोकिया' ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नही है | २४ ११ और जो न मरता है और न दुखी होता है वह भीमस्से हो होता है. इसलिए मैने नहीं मारा, मेने दुबो नही किया ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नही २५ सात १० भाज्योति स्वभावेन स्वभावमभिभूय किनमा प्रयोज्याति कयं तथा कर्मस्यभावेन स्वस्वभावमभिभ्रय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्याया वर्मकार्यम् । जिस प्रकार ज्योतिके स्वभाव के द्वारा तेलके स्वभावका पराभव करके किया जानेवाला दीपज्योति कार्य है, उसी प्रकार कर्म स्वभावके द्वारा जीवके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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