SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनय विनयचन्द्र -जिस प्रकार प्रतिमाओमे जिनेन्द्र देवकी स्थापना कर उनकी पूजा करते है, उसी प्रकार सद्गृहस्थको इस पंचमकाल मे होनेवाले मुनियोमें पूर्वकालके मुनियोकी स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी । पूजा करनी चाहिए। कहा भी है "जिस प्रकार लेपादिसे निर्मित जिनेन्द्र देवका रूप पूज्य है, उसी प्रकार वर्तमान काल के मुनि पूर्वकालके मुनियोके प्रतिरूप होनेसे पूज्य है। [ परन्तु अन्य विद्वानो को इस प्रकार स्थापना द्वारा इन मुनियोको पूज्य मानना स्वीकार नही है-(दे० विनय/५/३) ] । ८. साधुओंको नमस्कार क्यों ध.६/४,१,१/११/१ होदु णाम सयल जिणणमोकारो पावप्पणासओ, तत्य सम्यगुणाणमुबल भादो । ण देसजिणाणमेदेमु तदणुवलंभादो त्ति । ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्ह रयणाणमुबलभादो। -प्रश्न-सकल जिन नमस्कार पापका नाशक भले ही हो, क्योकि, उनमे सब गुण पाये जाते है। किन्तु देशजिनोको किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नही हो सक्ता, क्योकि इनमें वे सब गुण नही पाये जाते ? उत्तर-नही, क्योकि, सकल जिनो के समान देश जिनामे (आचार्य उपाध्याय साधुमे ) भो तीन रत्न पाये जाते है। जो यद्यपि अपम्पूर्ग है, परन्तु सफल जिनोके सम्पूर्ण रत्नोसे भिन्न नही है। ]-(विशेष दे० देव/I/१/५)। ९. असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं ध, १/४,१,२/११/१ महन्धयविरहिददोरयणहराणं 1 ओहिणाणीणमणोहिणाणीण च विमट्ठ णमोकारो ण कोरदे। गारवगुरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावणटट उत्ति मग्ग विसयभत्तिपयासण च ण कौरदे। = प्रश्न-महावतोसे रहित दा रत्नो अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी तथा अप्रधिज्ञानसे रहित जीवोको भी क्यो नही नमस्कार किया जाता। उत्तर-अह कार से महान् जीवोमे चरणाचार अर्थात् सम्या चारित्र रूप प्रवृत्ति कराने के लिए तथा प्रवृत्तिमार्ग विषयक भक्तिके प्रकाशनार्थ उन्हे नमस्कार नहीं किया जाता है। ५. साधुको परीक्षाका विधि-निषेध १. आगन्तुक साधुकी विनय पूर्वक परीक्षा विधि भ आ/म् ४१०-४१४ आएस एज्जतं अन्भुट्ठिति सहसा हु दठठुर्ण । आणासमवच्छल्लदाए चरणे य जादजे ।४१०। आग तुगवच्छव्या पडिलेहा हि तु अण्णमण्णे हि । अण्णोण्णचरणकरण जाणणहेद परिक्वति ।४११ आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्वेवे। सज्झाए य विहारे भिगवरगहणे परिच्छति (४१२। आएसस्स तिरत्त णियमा सघाडमा दु दादयो। सेज्जा सथारो वि य जइ वि असभोइओ होइ।४९३॥ तेण पर अवियागिय ण होदि सघाइओ दु दादयो। सेज्जा सथारा वि य गणिणा अविजुन जोगिस्स ।४१४। = १. अन्य गणसे आये हुए साधुको देखकर परगणके सब साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगन्तुकको अपना बनाना, और नमस्कार करना इन प्रयोजनोके निमित उठकर खडे हो जाते है ।४१०। वह नवागन्तुक मुनि और इस सबके मुनि परस्परमे एक दूसरेको प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार चारित्र की परीक्षाके लिए एक दूसरे को गौरसे देखते है ३११षट् आवश्यक व कायोत्सर्ग क्रियाओमें, पीछी आदिसे शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदिके उठाने रखनेकी क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आनेकी क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चां, इन सब क्रिया स्थानोमे परस्पर परीक्षा करे ।।१२। आये हुए अन्य संघ मुनिको स्वाध्याय सस्तर भिक्षा आदिका स्थान बतलाने के लिए तथा उनकी शुद्धताकी परीक्षा करनेके लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ रहै ।४१३. (मू. आ./१६०, १६३, १६४, १६२)। २. तीन दिनके पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षामें ठीक नही उतरता तो उसे सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका आचरण योग्य है परन्तु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते है ।४१४॥ २. साधुकी परीक्षा करनेका निषेध सा ध/२/६४ मे उद्धृत-भुक्तिमानप्रदाने तु दा परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्त सन्त्वस-तो या गृही दानेन शुध्यति ।' काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतचित्र यदद्यापि जिनरूपधरा नरा - केबल आहारदान देनेके लिए मुनियोको क्या परीक्षा करनी चाहिए । वे मुनि चाहे अच्छे हो या बुरे, गृहस्थ तो उन्हे दान देनेसे शुद्ध ही हो जाता है अर्थात उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरहसे केवल अन्नका कीडा बना हुआ है, ऐसी अवस्थामे भी वर्तमान मे जिन रूप धारण करनेवाले मुनि विद्यमान है, यही आश्चर्य है । ३. साधु परीक्षा सम्बन्धी शंका समाधान मो. मा प्र | अधिकार/पृष्ठ/क्तिप्रश्न--१. शील संयमादि पाले हैं, तपश्चरणादि करें है, सो जेता करें तितना ही भला है । उत्तर-यह सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला है । परन्तु प्रतिज्ञा तो बडे धर्म की करिए अर पालिए थोरा तौ वहाँ प्रतिज्ञा भगत महापाप हा है। • शील सयमादि होते भी पापी ही कहिए । ...यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करते तो पापीपना होता नाही । जेता धर्म साधै तितना ही भला है। ( ५/२३४/६) । प्रश्न-२ पंचम कालके अन्ततक चतुर्विध संघका सद्भाव क्या है। इनको साधु न मानिय तो किसको मानिए । उत्तर-जैसे इस कालविणे हसका सद्भाव कहा है अर गम्यक्षेत्र विषै इस नाही दीसे है, तो औरनिको तो हस माने जाते नाही. हे सकासा लक्षण मिले ही हस माने जायें। तैसे इस काल विषे साधुका सद्भाव है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसे है, तौ औरनिकौ तौ साधु माने जाते नाहीं । साधु लक्षण मिलै ही साधु माने जायें। (१/२३४/२२) प्रश्न-३, अब श्रावक भी तो जैसे सम्भव तैसे नाही। तातै जैसे श्रावक तसे मुनि ? उत्तर-श्रावक सज्ञा तौ शास्त्रविधै सर्व गृहस्थ जनौ की है। श्रेणिक भी असयमी था ताको उत्तर पुराण विषे श्रावकोत्तम कहा। बारह सभाविपै श्रापक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे। __तातै गृहस्थ जेनी श्रावक नाम पावै है। अर 'मुनि सज्ञा तौ निग्रन्थ बिना कही कही नाही । बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे है। सो मद्यमाग मधु पत्तउर बरादि फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाही, तात काहू प्रकार श्रावकपना तौ सम्भवै भी है। अर मुनिकै २८ मूलगुण है, सो भेषी निकै दीसते ही नाही । तात मुनिपनो काहू प्रकार करि सम्भवे नाही। (६/२७४/१) प्रश्न-४ ऐसे गुरु तौ अबार यहॉ नाही, तात जैसे अहंन्तकी स्थापना प्रतिमा है, तैसे गुरुनिको स्थापना ये भेषधारी है। उत्तर-अन्तिादिकी पाषाणादिमे स्थापना बनावै. तो तिनिका प्रतिपक्षी नाही. अर कोई सामान्य मनुष्य आपको मुनि मनाये, तो वह मुनि निका प्रतिपक्षी भया । ऐसे भी स्थापना होती होय. तौ अरहन्त भी आपकी मनावो। (६/२७३/१५) [पंचपरमेष्ठी भगवान्के असाधारण गुणोकी गृहस्थ या सामान्य मनुष्यमे स्थापना करना निषिद्ध है। (श्लो, वा २/भाषाकार /१/५/५४/२६४/६। विनयचन्द्र-'उवएसमाला तथा कहाणय छप्पय' नामक दो अपभ्रश ग्रन्थोंके रचगिता । समय ई श १३ (हिन्दी जेन साहित्य इतिहास ५१बा० कामता प्रसाद)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy