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________________ विनय विधि ५४७ * विधान व संख्यामें अन्तर-दे, स ख्या। * पूजा सम्बन्धी विधान-दे पूजा। विधिघ १३/५५५५५०/२८५/१२ कथ श्रुतस्य विधिव्यपदेश । सर्वनयविषयाणामस्तित्व विधायकत्वात । -च कि वह सब नयोके विषयके अस्तित्वका विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि सज्ञा उचित ही है। दे० द्रव्य/१/७ (सना, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु विधि, अविशेष ये एकार्थवाची शब्द है)। दे० सामान्य (सामान्य विधि रूप होता है और विशेष उसके निषेध दे० कर्म/३/१ ( विधि कर्म का पर्यायवाची नाम है)। २. अन्य सम्बन्धित विषय १. दानकी विधि। -दे० दाना। ३. विधि निषेधकी परस्पर सापेक्षता। -दे० सप्तभगी/३। विधि चंद-दे० बुधजन। विधि दान क्रिया-दे० सस्कार/२। विधि विधायक वाक्य-दे. वाक्य । विधि साधक हेतु-दे० हेतु : विध्यात संक्रमण-दे० सक्रमण/५ । विनमि--दे० नमि/१। विनयधर-१. पन्नाट सघकी गुर्वावली के अनुसार लोहाचाय नं.२ के शिष्य तथा गुप्ति श्रुतिके गुरु थे। समय--वी. नि. ५३० ( ई. सं.३), (दे० इतिहास/७/८ ) । २ बृ कथा कोष/कथा न १३/पृ.--कुम्भिपुरका राजा था ७१श सिद्वार्थ नामक श्रेष्ठि पुत्र द्वारा दिये गये भगवानके गन्धोधक जलसे उसकी शारीरिक व्याधियाँ शान्त हो गयी। तब उसने श्रावकवत धारण कर लिये। (७२-७३)। विनय-मोक्षमार्ग में विनयका प्रधान स्थान है। वह दो प्रकारका है-निश्चय व व्यवहार। अपने रत्नत्रयरूप गुणकी विनय निश्चय है और रत्नत्रयधारी साधुओं आदिकी विनय व्यवहार या उपचार विनय है। यह दोनो ही अत्यन्त प्रयोजनीय है। ज्ञान प्राप्तिमें गुरु विनय अत्यन्त प्रधान है। साधु आर्यका आदि चतुर्विध सघमें परस्परमैं विनय करने सम्बन्धी जो नियम है उन्हें पालन करना एक तप है । मिथ्यादृष्टि घों व कुलिगियोंकी विनय योग्य नहीं। सामान्य विनय निर्देश आवार व विनयभे अन्तर। ज्ञानके आठ अगोंको ज्ञान विनय कहनेका कारण । एक विनयसम्पन्नतामें शेष १५ भावनाओंका समाबेश । विनय उपका माहात्म्य । देव-शास्त्र गुरुको विनय निर्जराका कारण है। -दे० पूजा/२। मोक्षमार्गमे विनयका स्थान व प्रयोजन । उपचार विनय विधि विनय व्यवहार में शब्द प्रयोग आदि सम्बन्धी कुछ नियम। साधु व आयिकाकी संगति व वचनालाप सम्बन्धी कुछ नियम। -दे० संगति । विनय व्यवहारके योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ । उपचार विनयकी आवश्यकता ही क्या ? | उपचार विनयके योग्यायोग्य पान यथार्थ साधु आयिका आदि वन्दनाके पात्र हैं। सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य है। -दे० पूजा/३। जो इन्हें वन्दना नहीं करता सो भिथ्यादृष्टि है। चारित्रवृद्धसे भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है । मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु बन्ध नहीं है। भिध्यादृष्टि साधु श्रावक तुल्य भी नहीं है। -दे० साधु/४। अधिक गुणी द्वारा हीन गुणी वन्ध नहीं है। | कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदिका कडा निषेध व उसका कारण। द्रव्यलिगी भी कयचित् वन्ध है। ८ साधुको नमस्कार क्यों? असयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं ? | सिद्धसे पहले अर्हन्तको नमस्कार क्यो ? -दे० मन्त्र । | १४ पूर्वीसे पहले १० पूर्वाको नमस्कार क्यों ? -दे० श्रुतकेवली/१॥ साधु परीक्षाका विधि निषेध १ आगन्तुक साधुकी विनयपूर्वक परीक्षा विधि। सहवाससे व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते -दे० प्रायश्चिन/३/१। साधुकी परीक्षा करनेका निषेध। साधु परीक्षा सम्बन्धी शका-समाधान१. शील संग्रमा द तो पालते ही है। २. पंचम कालमे ऐसे ही माधु सम्भव है। ३ जैसे श्रावक वे से साधु ? ४ इनमें हो सच्चे साधुको स्थापना कर ले। । सत् साधु ही प्रतिमावत् पूज्य है। --दे० पूजा/३ । भेद व लक्षण विनय सामान्यका लक्षण । | विनयके सामान्य भेद । ( लोकानुवृत्त्यादि ) मोक्षविनयके सामान्य भेद । शानदर्शनादि ) उपचारविनयके भेद । ( कायिक वाचिकादि ) लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयोंके लक्षण । ज्ञान दर्शन आदि विनयोंके लक्षण। उपचार विनय सामान्यका लक्षण । | कामिकादि उपचार विनयों के लक्षण । विनय सम्पन्नताका लक्षण। -दे० विनय/१/१॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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