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________________ वितत = न्या. सू./१/२/२/४३/१० यमाणैरर्यस्य साधन तच परजातिनिग्रहस्थानामङ्गभावी रक्षणार्थत्वात् तानि हि प्रयुज्यमानानि परपक्षविघातेन स्वपक्षं रक्षन्ति । जैसे बीजकी रक्षाके लिए सब ओर से काँटेदार शाखा लगा देते है, उसी प्रकार तत्त्वनिर्णयकी इच्छारहित केवल जीतने अभिप्रायसे जो पहले आक्षेर करते है, उनके दूषण के समाधान के लिए जल्प वितडाका उपदेश किया गया है ॥५०॥ जीतनेको इच्छासे न कि तत्त्वज्ञानकी इच्छासे जम्प और वितडाके द्वारा वाद करे |१| यद्यपि छल जाति और निग्रहस्थान साक्षात् अपने पक्ष के साधक नहीं होते है, तथा दूसरेके पक्षका खण्डन तथा अपने पक्षकी रक्षा करते है । * जय पराजय व्यवस्था दे० न्याय/२ | विततवितथ एक प्रकारका प्रायोगिक शब्द । - दे० शब्द । - १३५.२.५०/२०६६ वितथमसत्यम्, न विवि माध्यमित्यर्था सत्य ये समानार्थक शब्द है । ( विशेष दे० असत्य ) जिस श्रुतज्ञानमे वितथपना नहीं पाया जाता वह अवितथ अर्थात् तथ्य है । वितर्क- रा. सू./१/४३ सिर्फ तम् ४३ तर्कका अर्थ भूत है। श्रुत दे० ऊहा - ( विशेष रूपसे ऊहा या तर्कणा करना वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान कहलाता है । दे० विचार - (वषय प्रथम ज्ञानको सिर्क कहते है ।) - सी ४८/२०३६ स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भाव तहाचमन्त Gerard वा वितर्कों भण्यते । निज शुद्ध आत्माका अनुभवरूप भावश्रुत अथवा निज शुद्धात्माको कहनेवाला जो अन्तरंग जल्प (सूक्ष्म शब्द) है वह विर्क है। वितस्ता- पंजाबकी वर्तमान झेलम नदी । ( म पु / प्र ५६/पं. पन्नालाल ) । वितस्ति विदर्भ वर्तमानका बार प्रान्त इसको प्राचीन राजधानी निर्भ पुर (बोदर ) अथवा कुण्डिनपुर थी । ( म पु / प्र ४६ / पं पन्नालाल ) | विदर्भपुर वर्तमानका बीदर (म. प्र. ४१/ पाताल)। विदल- दे, भक्ष्याभक्ष्य / ३ /२० विदारणक्रिया दे किया विदिशा १ दे दिशा । २ मालवा प्रान्तमे वर्तमान भेलसा नगर ( म पु / ४६ / प - एक बालिश्त दे० गणित / I / ३१ - विदुर पा -पा पु. / सर्ग / श्लोक - भीष्मके सौतेले भाई व्यासका पुत्र । ( ७ /११७ ) । कौरव पाण्डवोके युद्ध में इन्होने काफी भाग लिया । कौरवको बहुत समझाया पर वे न माने । ( १६ / १८७ ) । अन्तमे दीक्षित हो गये। ( १६/५-७) । विदेह - १. रा. वा. /३/१०/११/१७२ / ३३ विगतदेहा' विदेहा 1 के पुनस्ते येषां देहो नास्ति धर्मादाय मे या सत्य देहेनिगतशरीरसंस्कारास्ते विदेहा उद्योगाप विदेहम्यपदेश । रात्र हि मनुष्य हो यतमाना विदेहत्वमास्कन्दति। ननु भरत रावतयोरपि विदेहा सन्ति । सत्य, सन्ति कदाचिन्न तु सर्वकालम्, तत्र तु सतत धर्मोच्छेदाभावाद्विदेहा सन्तीति प्रकर्षापेक्षो विदेहश्यपदेश पुनरसी नीलबहोरन्तराने तस्मनिवेश विगतदेह अर्थात देहरहित भगवान् विदेह कहलाते है, क्योंकि उनके कर्मबन्धनका उच्छेद हो गया है। Jain Education International विद्या अथवा देहके होते हुए भी जो शरीर के संस्कारोंसे रहित है ऐसे भगवान् विदेह है। उनके योग से उस देशको भी विदेह कहते है। यहाँ रहनेवाले मनुष्य देहका उच्छेद करने के लिए य करते हुए विदेहत्वको प्राप्त किया करते है। प्रश्न - इस प्रकार तो भरत और ऐरावत क्षेत्रो मे भी विदेह होते है । उत्तर-होते अवश्य है परन्तु सदा नहीं, कभी-कभी होते है और विदेहक्षेत्रमे तो सतत धर्मोच्छेदका अभाव ही रहता है, अर्थात् वहाँ धर्मकी धारा अभिन्न रूपसे महती है. इसलिए वहाँ सदा विदेशी जनत भगवान् ) रहते है । अत' प्रकर्ष की अपेक्षा उसको विदेह कहा जाता है। यह क्षेत्र निषेध और नील परंतोके अन्तरालमे है [ उसके बहु मध्य भागमें एक सुमेरु व चार गजदन्त पर्वत है, जिनसे रोका गया भू-खण्ड उत्तर देवकुरु कहलाते है। इनके पूर्व पश्चिम में स्थित क्षेत्रोको पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह कहते है । यह दोनो ही विदेह चार-चार महार गरियो, सीन-तीन विभागा नदियों और सीता व छोटोदा नामको महानदियों द्वारा १६-१६ देश में विभाजित कर दिये गये है । इन्हें ही ३२ विदेह कहते हैं । इस एक-एक सुमेरु सम्बन्धी १२-१२ निदेह है। पाँच सुमेरुओके मिलकर कुल १६० विदेह होते है।] (विदो लोक३/३.१२, १४) । प्रा./६०-६०१ पेसा दुमक्खीदीमा रिसिगमद होणा भरिदा सदावि के लिसलाग पुरिसिड्डिसाहू हि ६८० तित्थद्वयलचक्की सद्विसय पृह वरेण अवरेण । वीस वीस सयले रियं वरदो ॥६८१ विदेहक्षेत्र के उपरोक्त सर्व देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसा, टीडी, सूवा, अपनी सेना और परकी सेना इन सात प्रकारकी ईतियोसे रहित है। रोग मरी आदिसे रहित है । कुदेव, कुलिंगी और कुमतसे रहित है । केवलज्ञानी, तीर्थकरादि शलाका पुरुष और ऋद्धिधारी साधुओसे सदा पूर्ण रहते है | ६० सीर्थंकर चक्रवर्ती अर्धचको नारायण व प्रतिनारायण, ये यदि अधिक से अधिक होवे तो प्रत्येक देशमे एक-एक होते है और इस प्रकार कुल १६० होते है । यदि कमसे कम होवे यो सीता और सोतोदाके दक्षिण और उत्तर तटोपर एक-एक होते है, इस प्रकार एक विदेहमे चार और पाँचो विदेहोमे २० होते है । पाँचो भरत व पॉचो ऐरावतके मिलाने पर उत्कृष्ट रूपसे १७० होते है। (मपु/७६/४६६-४६७२ द्वाररंग (दरभंगा) के मा प्रदेश है। मिथिता या जनकपुरी इसी देशमे है (म. पु / प्र. ५०/१. पन्ना लाल ) । विद्दावण - ४११/२४.२२/२६/११ अंगदनादिव्यापार वि वण णाम प्राणियोके अगच्छेदन आदिवा व्यापार विद्यात्रण कहलाता है । ५४३ विद्वणू - ज्ञानपचमी अर्थात् समचमीत माहात्म्य नाम भाषा छन्दरचना की एक कनि समय वि सं १४२२ ( ११०६) (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास / ६ वा कामया प्रसाद ) । विद्या या वि/१/१०/२८२ / १ विचधा यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या । विद्याका अर्थ है यथावस्थित वस्तुके स्वरूपका अबलोकन करनेकी शक्ति । - नोट- ( इसके अतिरिक्त मन्त्र तन्त्रो आदिके अनुष्ठान विशेषसे सिद्ध की गयी भी कुछ विद्यए होती है, जिनका निर्देश निम्न प्रकार है । ) २. विद्याके सामान्य भेदों का निर्देश राया |१/२०/१२/०६/० विद्यानुवाद सत्रासेनादीनामल्पविद्याना सप्तानि महारोहिण्यादीना महाविद्याना पञ्च जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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