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________________ विकल्पसमा विज्ञानवाद विकृतवान-जम्बूद्वीप के हरिक्षेत्रकानाभिगिरि-दे० लोक ५/३३ व्यतिरिक्त भवति । तत्र खलु सयतं सभाववादिना मिति। प्रश्न-वह (विपरीत वितर्क ) किस प्रकार है। पूर्वोक्तस्वरूप आत्माको आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूपमें अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्निके स्वरूपको क्या अग्नि जानती है। उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्पके अभावसे यह आरमा आरमामे स्थित रहता है। उत्तर-हे प्राथमिक शिष्य, अग्निकी भॉति क्या आरमा अचेतन है। अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्माको ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुम्हाडीकी भाँति अर्थ क्रियाकारी सिद्ध नही होगा, और इस लिए वह आत्माले भिन्न सिद्ध होगा। और यह वास्तवमे स्वभाव बादियोको सम्मत नही है। -(विशेष दे० केवलज्ञान/६)। विकल्पसना-न्या सू/म. व 11/१/४/२८८ साध्यदृष्टान्तयो ईम विकल्वादुमयमाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्ष वावर्ण्यविकल्पसाध्यसमा ।४। साधनधर्मयुक्त दृष्टान्ते धर्मान्तर विकल्पात्साध्यधर्मविकल्प प्रसन्नतो विकल्पसम । क्रियाहेतुगुणयुक्त किचिद गुरु यथा लोष्ट किंचिल्लघु यथा वायुरेवं क्रियाहेतुगुणयक्त किंचित्क्रियाबत्स्याद् यथा लोष्ट किचिदक्रिय यथात्मा विशेषो वा वाच्य इति । -साधनधर्म से युक्त दृष्टान्तमें अन्य धर्मके विकल्पसे साध्यधर्मके विकल्पका प्रसग करानेवालेका नाम 'विकल्पसम' है। 'आत्मा क्रियावाद है, क्रियाहेतु गुणसे युक्त होनेके कारण, जैसे कि लोष्ट,' वादीके ऐसा कहे जानेपर प्रतिवादी कहता है-क्रिया हेतुगुणसे युक्त है तो आत्माको कुछ भारी होना चाहिए जेसे लोष्ट या कुछ हलका होना चाहिए जैसे वायु । अथवा लोष्टको भी कुछ कियारहित होना चाहिए जैसे आत्मा । या विशेष कहना चाहिए। श्लो, वा /४/भाषाकार/१/३३/न्या, ३३७/४७३/१६ पक्ष और दृष्टान्तमे जो धर्म उसका विकल्प यानी विरुद्ध करप व्यभिचारीपन आदिसे प्रस ग देना है, वह विकल्पसमाके उत्थानका बीज है। चाहे जिस किसी भी धर्मका कही भी व्यभिचार दिखला करके धर्मपनकी अविशेषतासे प्रकरण प्राप्त हेतुच भी प्रकरणप्राप्त साध्य के साथ व्यभिचार दिखला देना विक्लपसमा है। जैसे कि 'शब्द अनित्य है, कुतक होनेसे' इस प्रकार वादीके कह चुकनेपर यहाँ प्रतिवादी कहता है कि कृतकत्वका गुरुत्वके साथ व्यभिचार देखा जाता है। घट, पट, पुस्तक आदिमें कृतक्त्व है, साथमें भारीपना भी है। किन्तु बुद्धि, दुख, द्वित्व, भ्रमण, मोक्ष आदिमें कृतकपना होते हुए भी भारीपना नही है। (और इसी प्रकार भारीपनका भी कृतकत्वके साथ व्यभिचार देखा जाता है। जल और पृथिवीमे गुरुत्व है और वह अनित्य भी है। परन्तु उनके परमाणु नित्य है। अनित्यत्व व कृतकत्व तथा नित्यत्व व अकृतकत्व एकार्थवाची है।) विकप्त-दे० ग्रह। विकारस, सि/५/२४/१६६/११ त एते शब्दादय, पुद्गलद्रव्यविकारा। ये सब शब्द आदि (शब्द, अन्ध, सौम्य, स्थौल्य, सस्थान, भेद, तम, छाया आदि ) पुद्गलद्रव्यके विकार है। रा बा//२०/१३/४७/२८ परिणामान्तर सक्रान्तिन्नक्षणस्य विकारस्य । परिणामान्तर रूपसे सक्रान्ति करना विकारका लक्षण है। * विकार सम्बन्धी विषय-दे० विभाव। विकार्य-दे० बर्ता/१। विकाल-दे० ग्रह । विकृति-निविकति-(जिस भोजनसे जिह्वा व मनमें विकार उत्पन्न हो वह विकृति कहलाता है । जैसे-घी, दूध, चटनी आदि)। विक्रम-सागण का एक जैन कवि था जिसने नेमिदूत (नेमि चरित ) नामका ग्रन्थ लिखा है । (नेमि चरित/प्र. ६/प्रेमोजी)। विक्रम प्रबन्ध टीका-आ. श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३) द्वारा रचित ग्रन्थ। विक्रम संवत-दे० इतिहास/२ । विक्रमादित्य-१. मालवा (मगध ) के राजा थे। इनके नामपर ही इनकी मृत्युके पश्चात प्रसिद्ध विक्रमादित्य सवत् प्रचलित हुआ था। इनकी आयु ८० वर्षकी थी। १८ वर्षकी आयुमें राज्याभिषेक हुआ और ६० वर्ष पर्यन्त इनका राज्य रहा। (विशेष दे० इतिहास/ २/विक्रम सबत् ) तथा ( इतिहास/३/मगध देशके राज्यवश ) 1 २. मगधदेशको राज्य व शावलीके अनुसार गृप्तवशके तीसरे राजा चन्द्रगुप्तका अपर नाम था। यह विद्वानों का बडा सत्कार करता था। भारतका प्रसिद्ध कवि शकुन्तला नाटककार कालिदास इसी के दरबारका रत्न था।-दे० इतिहास/३/३ १३ चीनी यात्री ह्यूनत्साग (ई०६२६) कहता है कि उसके भारत आनेसे ६० वर्ष पूर्व यहाँ इस नामका कोई राजा राज्य करता था। तदनुसार उसका समय ई. ५०५-५८७ आता है। विक्रांत-प्रथम नरकका १३ वॉ पटल-दे० नरक/५/११॥ विक्रिया-१ विक्रिया ऋद्धि--दे० भूद्धि/३।२ वैक्रियक शरीर व योग-दे० वै क्रियक। विक्षेप-- न्या सू /म् /१२/१६ कार्यव्यास गात्कथाविच्छेदो विक्षेपः । - जहाँ प्रतिवादी यो कहकर समाधानके समयको टाल देवे कि 'मुझे इस समय कुछ आवश्यक काम है, उसे करके पीछे शास्त्रार्थ करूंगा' तो इस प्रकारके कथाविक्षेप रूप निग्रहस्थानका नाम विक्षेप है। (श्लो. वा/४/९/३३/न्या/३६३/४२१/७) (नोट -श्लो वा. में इसका निषेध किया गया है) विक्षेपिणी कथा--दे० कथा । विज्ञप्ति-अवायज्ञानका पर्यायवाची-दे० अवाय । विज्ञानन्या. वि/वृ. मे उद्धृत/१/११/२० विज्ञान मेयबोधनम् । - जानने योग्य पदार्थका ज्ञान विज्ञान है। -(विशेष दे० ज्ञान )। (ध /प्र, २८)-Science विज्ञानभिक्षु-साख्यदर्शनके प्रसिद्ध प्रणेता। इन्होने ही सारख्य मतमे ईश्वरवादका समावेश किया था। (दे० साख्य)। इन्होने ही योगदर्शन के व्यासभाष्यपर योगबार्तिक लिखा है ( दे० योग दर्शन)। तथा अविभागाद्वैतबादरूप वेदान्तके सस्थापक भी यही थे। विज्ञानवाद-१ भिश्या विज्ञानवाद' ज्ञा./४/२३ ज्ञानादेवेष्टसिद्धि स्यात्ततोऽन्य शास्त्रविस्तर । मुक्तेरुक्तमतो बीज विज्ञान ज्ञानवादिभि ।२३। - ज्ञानवादियोंका मत तो ऐसा है, कि एकमात्र ज्ञानसे ही इष्ट सिद्धि होती है, इससे अन्य जो जैनेन्द्र सिवान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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