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________________ वायु ५३५ वारुणी षडङ्गुल । पवन' कृष्णवर्णोऽसौ उष्ण शीतश्च लक्ष्यते ।२६।- सुवृत्त कहिए गोलाकार तथा बिन्दुओ सहित नीलाजन धनके समान है वर्ण जिसका, तथा चचला ( बहता हुआ) पवन बीजाक्षर सहित, दुर्लक्ष्य ( देखने में न आवे ) ऐसा वायुमण्डल है। यह पवनमण्डलका स्वरूप कहा ।२१। जो पवन सब तरफ तिर्यक् बहता हो, विश्राम न लेकर निरन्तर बहता हो रहै तथा ६ अगुल बाहर आवै, कृष्णवर्ण हो, उष्ण हो तथा शीत भी हो ऐसा पवनमण्डल सम्बन्धी पवन पहचाना जाता है। ५. अन्य सम्बन्धित विषय १. बादर तैजसकायिक आदिकोंका भवनवासियोंके विमानो व आठों पृथिवियोंमें अवस्थान (दे० काय२/५)। २ सूक्ष्म तैजसकायिक आदिकोंका लोकमें सर्वत्र अवस्थान (दे० क्षेत्र/४)। ३. वायुमें पुद्गलके सर्व गुणोंका अस्तित्व (दे० पुद्गल/R)। ४. वायु कायिकोंमें कथचित् त्रसपना (दे० स्थावर )। ५ वायुकायिकोंमें वैक्रियिक योगकी सम्भावना ( दे० वैक्रियिक ) । ६. मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा तहा आयके। अनुसार ही व्यय होनेका नियम (दे० मार्गणा)। ७ वायुकायिकोंमें गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ (दे० सद)। ८. वायुकायिकों सम्बन्धी सत् , सख्या. क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ (दे० वह वह नाम)। ९. वायुकायिकोंमें कर्मोका बन्ध उदय सत्त्व (दे० वह वह नाम) । ३. मारुती धारणाका स्वरूप ज्ञा /३७/२०-२३ विमानपथमापूर्य संचरन्तं समीरणम् । स्मरत्यविरत योगी महावेगं महाबलम् ।२०। चालयन्तं सुरानीकं ध्वनन्त त्रिदशालयम्। दारयन्त धनवात क्षोभयन्तं महार्णवम् ।२१। वजन्तं भुवनाभोगे सचरन्तं हरिन्मुखे। विसपन्तं जगन्नीडे निविशन्तं धरातले १२२। उदधूय तद्रज' शीघ्र तेन प्रबलवायुना। तत' स्थिरीकृताभ्यास' समीर शान्तिमानयेत ।२३। योगी आकाशमें पूर्ण होकर विचरते हुए महावेगवाले और महाबलवान् ऐसे वायुमण्डलका चिन्तवन करें ।२०। तत्पश्चात् उस पवनको ऐसा चिन्तवन करै कि-देवो की सेनाको चलायमान करता है, मेरु पर्वतको कॅपाता है, मेघोके समूहको बखेरता हुआ, समुद्रको क्षोभरूप करता है ।२१। तथा लोक्के मध्य गमन करता हुआ दशो दिशाओमें सचरता हुआ जगतरूप घरमें फैला हुआ, पृथिवीतलमे प्रवेश करता हुआ चिन्तधन करै ।२२। तत्पश्चात ध्यानी (मुनि) ऐसा चिन्तवन करै कि वह जो शरीरादिक का भरम है ( दे० आग्नेगी धारणा ) उसको इस प्रबल वायुमण्डलने तरकाल उडा दिया, तत्पश्चात् इस वायुको स्थिररूप चिन्तवन करके स्थिर करे ।२३। त. अनु /१८४ अकार मरुता पूर्य कुम्भित्वा रेफवाहिना । दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वतो भस्म विरेच्य च ।१८४।- अह मन्त्रके 'अ' अक्षरको पूरक पवनके द्वारा पूरित और कुम्भित करके रेफको अग्निसे कम चक्रको अपने शरीर सहित भस्म करके फिर भस्मको स्वय विरेचित करे ।१८४। ४. बादर वायुकायिकोंका लोको अवस्थान ष. रख /४१,3/सूत्र २४/३६ बादरकाउक्काइयपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स संखेज्जदिभागे ।२४। घ १,३,१७/८३/६ मदरमूलादो उपरि जाव सदरसहस्सारकप्पो त्ति पचरज्जु उस्सेधेण लोगणाली समचउरंसा वादेण आउण्णा। ध ४/३,२४/१३/८ बादरवाउपज्जत्तरासी लोगस्स सखेज्जदिभागमेत्तो मारणं तिय उववादगदा सबलोगे किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, रज्जुपदरमुहेण पंचरज्जुआय मेग ट्ठिदखेत्ते चेत्र पाएण तेसिमुप्पत्तीदो। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव वितने क्षेत्रमें रहते है। लोकके सख्यातवे भागमे रहते है ।२४। (बह इस प्रकार कि)मन्दराचल के मूलभागसे लेकर ऊपर शतार और सहस्रार कल्प तक पाँच राजु उत्सेध रूपसे समचतुरस्र लोकनाली वायुसे परिपूर्ण है।प्रश्न -बादर बायु कायिक पर्याप्त राशि लोकके सख्यातवे भागप्रमाण है जब वह मारणान्तिक समुद्रात और उपपाद पदोका प्राप्त हो तत्र वह सर्व लोकमें क्यो नही रहती है ? उत्तर-नही रहती है, क्योकि, राजुप्रतरप्रमाण मुखसे और पॉच राजु आयामसे स्थित क्षेत्रमें ही प्राय करके उन आदर व युकायिक पपि जीवो की उत्पत्ति होती है। वायुभूति-ह पु/३/श्लोक- मगधदेश शालिग्राम सोमदेव ब्राह्मण का पुत्र था ।१००। मुनियो द्वारा अपने पूर्व भवका वृतान्त सुन रुष्ट हुआ। रात्रिको मुनिहत्याको निक्ला पर यक्ष द्वारा कील दिया गया। मुनिराजने दयापूर्वक छुडवा दिया, तब अणुव्रत धारण किया और मरकर सौधर्म स्वर्ग मे उपजा । ( १३६-१४६)। ग्रह कृष्ण के पुत्र शम्बके पूर्व का छठा भव है-दे० शब । वायुरथम प/५८/८०-८२ भरतक्षेत्रके महापुर नगरका राजा था। धनरथ नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ले ली। प्राणत स्वर्ग के अनुत्तर विमानमे उत्पन्न हुआ। यह 'अचलस्तोक' बलभद्रका पूर्वभव न २ है।-दे० अचल स्तोक ! वारिणी-विजपा की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । वारिषण---१. बृहत्कथा कोश/कथा नं १०/पृ०-राजा श्रेणिक का पुत्र था ।३५॥ विद्य च्चर चोरने रानी चेलनाका सूरदत्त नमक हार चुराकर ३६। कोतवालके भय से श्मशान भूमिमे यानरथ इनके आगे डाल दिया, जिसके कारण यह पकडे गये। राजाने प्राणदण्डकी आज्ञा की पर शस्त्र फूलोके हार बन गये। तब विरक्त हा दीक्षा ले ली ।३। सोमशर्मा मित्र को जबरदस्ती दीक्षा दिलायी ।३१। परन्तु उसकी स्त्री सम्बन्धी शल्यको न मिटा सका। तम उसके स्थितिकरणार्थ उसे अपने महल में ले जाकर समस्त रानियोको गारित होनेको आज्ञा दी। उनका सुन्दर रूप देख कर उसके मनकी शल्य धुल गयी और पुन दोसित हो धर्ममे स्थित हुआ।४। २. भगवान् वीरके तीर्थ के एक अनुत्तरोपपादक-दे० अनुत्तरोपपादक । वारुणो-ज्ञा ३७/२४-२७ बारुण्या स हि पुण्यात्मा घनजालचित नभ । इन्द्रायुघतडिद्गर्जच्चमत्काराकुल स्मरेत् ।२४। सुधाम्बुप्रभवै सान्द्रबिन्दुभिर्मोक्तिकोज्ज्वलै । वर्षन्त ते स्मरेद्धीर स्थूलस्थूलै निरन्तरम् ॥२५॥ ततोऽद्वन्दुसम कान्त पुर वरुणलाञ्छितम् । ध्यायेत्सुधापय पूरै प्लावयन्तं नभस्तलम् ।२६१ तेनाचिन्त्यप्रभावेण दिव्यध्यानोत्थिताम्बुना । प्रालयति नि शेष तद्रज कायसभाम्। वही पुण्यात्मा ( ध्यानी मुनि ) इन्द्रधनुष, बिजली, गर्जनादि चमत्कार सहित मेघो के समूहसे भरे हुए आकाशका ध्यान वरै ।२४ तथा उन मेधोको अमृतमे उत्पन्न हुए मोतियोके समान उज्ज्वल बडे-बडे बिन्दुओसे निरन्तर धारप वर्पते हुए आकाशको धीर, चीर मुनि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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