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________________ वर्णव्यवस्था २. गुणवान् नीच भी ऊँच है ० सम्यग्दर्शन / I / ५ ( सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न मातंग देहज भी देव तुल्य है। मिध्यात्व युक्त मनुष्य भी पशुके तुल्य है, और सम्पनत्य सहित पशु भी मनुष्यके तुल्य है ।) | - नीतिवाक्यामृत / १२ आचारमनवद्यत्वं शुचिरुपकर शरीरी च विशुद्धि' । करोति शुद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मयोग्य अनयथ चारित्र राधा शरीर वस्त्रादि उपकरणोकी शुद्धिसे शुद्ध भी देवो द्विजो तपस्वियोकी सेवा तथा धर्मश्रवणका) पात्र बन जाता है। (सा. ध./२/२२) । दे० प्रवज्या / १/२ - ( म्लेच्छ व सत् शूद्र भी कदाचित मुनि व क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर लेते है।) (विशेष दे० वर्णव्यवस्था/४/२)। दे० वर्णव्यवस्था/१/८ (संयमासंयमका धारक विच भी उच्चगोत्री समझा जाता है ) २. उच्च व नीच जाति परिवर्तन घ. १५/२८८ / २ अजस कित्ति दुभग-अणादेज्ज को वेदओ । अगुणपडिपण्णी अण्णदरो तप्पा ओगो तिरथयरणामा को बेदओ सजोगो अजोगो वा । उच्चागोदस्स तित्थयरभंगो। णीचागोदस्स अणाभगो अयश कीर्ति, दुभंग और अनादेवका वेदक कौन होता है ! उनका वेदक गुणप्रतिपन्नसे भिन्न तत्प्रायोग्य अन्यतर जीव होता है। तीर्थंकर नामकर्मका हक फोन होता है उसका वेदक सयोग (केमली) और बयोग (केवली) जीव भी होता है। उच्चगोत्र उदयका कथन तीर्थंकर प्रकृतिके समान है और नीचगोत्र उदयका कथन अनादेयके समान है । ( अर्थात गुणप्रतिपन्नसे भिन्न जीव गोत्रका बेदक होता है गुणप्रतिपक्ष नहीं जैसे कि तियंच दे० वर्णव्यवस्था/३/२| S दे० वर्ण व्यवस्था/१/१० ( उच्चगोत्री जीव मीचगोजीके शरीरकी और नीचगोत्री जीव उच्चगोत्री के शरीरको विक्रिया करे तो उनके गोत्र भी उतने समय के लिए बदल जाते है । अथवा उच्चगोत्र उसी भवमे बदलकर नीचगोत्र हो जाये और पुन बदलकर उच्चगोत्र हो जाये, यह भी सम्भव है। ३० / २ (किसीके कुलमें किसी कारणवश दोष लग जानेपर वह राजाज्ञासे शुद्ध हो सकता है किन्तु दीक्षा के अयोग्य अर्थात नाचनागाना आदि कार्य करनेवालोंको यज्ञोपवीत नहीं दिया जा सक्ता । यदि ये अपनी योग्यतानुसार मठ धारण कर ले तो झोप धारण के योग्य हो जाते हैं ।) धर्म परीक्षा / १० / २८-३१ ( बहुत काल बीत जानेपर शुद्ध शीतादि सदाचार छूट जाते है और जातिच्युत होते देखिये है । जिन्होंने शील संयमादि छोड दिये ऐसे कुलीन भी नरकमे गये है । ३१ । ) ४. कथंचित् जन्मको प्रधानता पुज्य ने ३० वर्ग व्यवस्था/१/३ (उमगोत्र के उदयसे उच्च जन्म होता है और नीच गोत्रके उदयसे गर्हित कुलों में । ) ३०/१/२ (माह्मण क्षत्रिय वैश्य इन तीन कुलोमेलन हुए पक्ति हो प्राय हाके योग्य समझे जाते है । ) दे० ० व्यवस्था २/४ (वर्णाकर्धकी रक्षाके लिए प्रत्येक वर्णका व्यक्ति अपने वर्णकी अथवा अपने नीचेके वर्ण की ही कन्याके साथ विवाह करे, ऊपर के वर्ण की कन्याके साथ नही और न ही अपने वर्णकी आजीविकाको छोडकर अन्यके वर्ग की आजी विश करे।) ० व्यवस्था/४/१ (शुद्र भी दो प्रकारके है सव शुर और बसव शूद्र । तिनमें सब शूद्र स्पृश्य है और असत् शूद अस्पृश्य है । सत् कदाचिद के योग्य होते है, पर उस शुद्र कभी भी ज्या योग्य नहीं होते । ) Jain Education International ५२५ वर्ण्यसमा मो.मा.प्र. १६/६७/१२ क्षत्रियादिकनिक (वाह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन वर्ण वालोके) उच्चगोत्रका भी उदय होता है । दे० यज्ञोपवीत / २ ( गाना नाचना आदि नीच कार्य करनेवाले सत् शुद्ध भी यज्ञोपवीत धारण करने योग्य नहीं है। ५. गुण व जन्मकी अपेक्षाओंका समन्वय ० व्यवस्था/२/३ ( यथा योग्य च व नीच कुलोंमें उत्पन्न करना भी गोत्रकर्मका कार्य है और आचार ध्यान आदिकी योग्यता प्रदान करना भी । ) ६. निश्चयसे ऊँच नीच भेदको स्थान नहीं प. प्र. / /२/२०० एकु करे मण विष्ण करि में करि अण्ा विसे । एक्कएँ देवों से बसद सिहूय एहु असे १001 हे आमद जातिकी अपेक्षा सब जोवोको एक जान, इसलिए राग और द्वेष भत कर। मनुष्य जातिकी अपेक्षा ब्राह्मणादि वर्णभेदको भी मत कर, क्योकि, अभेद नयसे शुद्धात्मा के समान ये सब तीन लोक में रहनेवाली जीव राशि ठहरायी हुई है । अर्थात् जीवपनेसे सब एक है । ४. शूद्र निर्देश १. शूद्रके भेद व लक्षण म पु. / २८/४५ शुद्धा [म. पृ/१६/९०५-२०१६ [et शुणाच्छूदास्ते द्विघा कार्यकारण। कारवो रजकाद्या. स्यु' ततोऽन्ये स्युरकारव. । १८५० कारवोऽपि मता द्वेषास्पृश्यास्पृश्यविकल्पश्या प्रजाबाह्या स्पृश्याः स्युः कर्ता १०६ -नीच वृखिडा आश्रय करने से होता है। |४५ | जो उनकी (ब्राह्मणादि तीन वर्णोंकी) सेवा शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शुद्ध दो प्रकारके थे-कारु और अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे। कारू शूद भी स्पृश्य तथा अस्पृश्यके भेदसे दो प्रकारके माने गये है। उनमें जो प्रजासे बाहर रहते है उन्हें अस्पृश्य और नाई वगैरहको स्पृश्य कहते हैं। १८६० (मो, मा. १ / ८ / ४१९ / २१)। प्रायश्चित चूलिका/गा. १४४ व उसकी टोका" कारिणो द्विविधाः feat भोज्याभोक्यप्रभेदत' यदन्नपान ब्राह्मणक्षत्रियविद्रा भौज्या बोज्या तद्विपरीतलक्षणा ।" कारू शुद दो प्रकारके होते है- भोज्य व अभोज्य । जिनके हाथका अन्नपान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हे भोज्य कारु कहते हैं और इनसे विपरीत अभोज्य कारु जानने चाहिए । २. स्पृश्य व ही क्षुद्धक दीक्षाके योग्य हैं प्र. सा./ता.वृ / २२५/प्रक्षेपक १० की टीका / ३०६/२ यथायोग्यं सच्छूद्रा यपि सदशुम भी यथायोग्य दीक्षाके योग्य होते है (अर्थात । E शुल्लक दीक्षाने योग्य होते है।। प्रायश्चित भूलिका / स म टीका / १२४ भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा १५४ भोज्येष्येव प्रदातव्या सुलकदीक्षा नापरेषु टीका में भी केवल भोज्य या स्पृष्य शूद्रोंको ही क्षुल्लक दीक्षा दी जाने योग्य है, अन्यको नहीं । वर्ण्यसमा - | न्या सू./मू. व भाष्य/५११/४/२८८ साध्यष्टष्टान्तयोधर्म विकल्पादुभयसाध्यत्वाच्च वयवसाध्यम 12 लोह क्रियाया वह काममात्मापि क्रियाया विरस्तु विपर्यस या विशेष इति स्थापनीयो क्यों विपर्ययादव तो साध्यन्त विपर्यस्तो समो भवतः । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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