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________________ वर्गण ५१५ मुमरियाग्या गाम । ८१/६०) मारि अगहणदव्वग्गणा णाम । ( ८२ / ६० ) । अगहणदव्वग्गणाणमुवरि भासादव्वग्गणा णाम । ( ८३ / ६१ ) । भासणाणमुवरि अगहण दव्ववग्गणा णाम । ( ८४ / ६२ ) । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मणदव्ववग्गणा णाम । ( ८५/६२) । मणदव्वग्गणाणमुवरि अगहणव्यवग्गणा णाम । ( ८६/६३)। अगहण दबवग्गणाणमुवरि कम्मध्यदत्रवग्गणा णाम । ( ८७/६३) । कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि ध्रुवक्खधदव्त्रवग्गणा णाम । ( ८८ /६३)। ध्रुवक्त्रदग्गाणमुपरि सातरणिर तरव्वग्गणा णाम । ( ८६ / ६४ ) । सतिरणिरंतरदव्यवग्गपाणमुवरि पुरणदव्वभग्गमा ग्राम (१०/१५)पाणमुवरि पत्तेयसरीरमण जान (१९/६३) पसे यसरीरदव्वग्गणाणमुवरि धुत्रसुण्णदव्ववरगणा णाम । (१२/५३) । ध्रुवसुण्णबग्गणाणमुवरि मादरणिगोददा काम (१२/१४) भाइर मग दाणमरि मण्णदग्गमा काम ( ६४ / ९९२) । वामुमरि मयिगोदा गाम (१५/ ११३) । सुमणिगोददत्रवग्गणाणमुवरि धुत्रसुण्णदव्वग्गणा णाम । (२६/११६) । वसुदावरि महास्थ वग्गणा नाम (१६/११७) । = घ. १४ / ५, ६, ६६/४/४ तत्थ वग्गणपरूवणा किमट्ठ कीरदे। एगपरमाणुगणपहूडि एगपश्मागुत्तरक्रमेण जाब महासति ठान सव्व वग्गणाणमेगसेडिवलवण क्रोदे । - प्रश्न - यहाँ वर्गणा अनुयोग द्वारकी प्ररूपणा किस लिए की गयी है । (ध.) उत्तर- एक परमाणुरूप वर्गणासे लेकर एक-एक परमाणुकी वृद्धि क्रमसे महास्वन्ध तक सब वर्गणाओंको एक श्रेणी है, इस बातका कथन करने के लिए को है । ( ध ) अर्थात् ( ष. ख ) - वर्गणाकी प्ररूपणा करने पर सर्वप्रथम यह एकप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा है । ७६ । उसके ऊपर क्रमसे एक-एक प्रदेशकी वृद्धि करते हुए निदेशी, विदेशी सख्यातमदेशी असंख्यासप्रदेशी, परीत व अपतनदेशी तथा अनन्त अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणा होती है ।७७-७८ । इस अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके ऊपर [ उसी एक प्रदेश वृद्धि के क्रमसे अपने-अपने जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त और पूर्व की उत्कृष्ट वर्गणासे उत्तरवर्ती जघन्यवर्गणा पर्यन्त क्रमसे ] आहार अग्रहण, तैजसू, अग्रहण, भाषा, अग्रहण, मनो, अग्रहण, कार्मण, वस्कन्ध, सान्तर निरन्तर प्रत्येकशरीरमादरनिगोद धवशून्य, सूक्ष्मनिगोद, ध ुवशुन्य और महास्कन्ध नामवाली वर्गणाएँ होती है । ( ७६-६७ ) | ( इन वर्गणाओंका स्वस्थान व परस्थान प्रदेश वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार जानना -] घ. १४/२६.७६८०/५१/६ - उरस अगतपदेसियदपरगणा उमरि एक ने लिया आहारदव्हवरगणा होदि तो बुत्तरकमेण अभयसिद्धिए हि अग सगुण सिद्धाणमभागमेस गग सम्पन्पदि जग्गादानस्सिया बिरोसाहिया विसेसो पुग अभवसिद्धिरहि अर्ण तगुणो सिद्धाणमण तभागमेत्तो होतो वि आहारउत्सदनवग्गणाए अनंतिमभागो । उक्क्स्स आहारदव्ववग्गणाए उपरि एगरूवे पक्षित्ते पढमअगण दव्ववग्गणाएसव्वजहण्णवग्गणा होदित रमेश अगसिद्विहि अनंतगुण-सिद्वाणमणत भागमेतद्वाण गतूण उक्कस्सिया अग्रहणदव्त्रत्रगणा होदि । जहण्णादो उतिया अणतगुणा को गुणगारो अभवसिद्धिएहि अवगुणों सिद्धाणमणं तभागो । भ. १४/५.६.१७/ १-१४/११० अ सखा सगुणा परिवरगणम|गुणगारो पचण अग्गणाण अभव्त्रणतगुणो || आहारतेजभासा मणेण कम्मेण वग्गगाण भवे । उक्कस्स विसेसो हि थियो |१०| वसतिराणं पुत्रमुग्णस्स य येन गुना जीहि अगुगो जहणियादी द्रु उकस्से |११| पचास खेज्जदिमाग पत्ते पहजारो गुणेोग Jain Education International स २. वर्गणा निर्देश दु १२ सेडिमो भागो मुण्यस्स अंगुलस्य पत्तिदोयमस्स हुमे पदस्स गुणो दु सुग्णस्स |१३| देसि गुणगारो जहणियादो दु जाण उकस्से । साहिअम्हि महत्व धेदियो ११४- उत्कृष्ट अनन्तरदेशी इम्पवर्गणा एक अंकके मिलानेपर जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा होती है। फिर एक अधिकने क्रमसे अभय्यो अनन्तगुणे और सिद्धोके अनन्त भागप्रमाण भेदोके जाननेपर अन्तिम ( उत्कृष्ट ) आहार द्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है विशेषका प्रमाण अव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण होता हुआ भी उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा के अनन्तवे भाग प्रमाण है । उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा में एक अक मिलानेपर प्रथम अग्रहण द्रव्यवर्गणासम्बन्धी सर्वजणा होती है। फिर एक-एक बढाते हुए अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसे उत्कृष्ट अनन्तगुणी होती है। मकार अभय अनन्तगुणा और सिद्धो अनन्तवे भाग प्रमाण है । [ इसी प्रकार पूर्वकी उत्कृष्ट वर्गणा में एक प्रदेश अधिक करनेपर उत्तरवर्ती जन्य वर्गणा तथा अपनी ही जमश्य में क्रममे एक-एक प्रदेश अधिक करते जानेपर, अनन्तस्थान आगे जाकर उसकी उत्कृष्ट वर्गणा प्राप्त होती है । यहाँ अनन्तका प्रमाण सर्वत्र अभव्योका अनन्तगुणा तथा सिद्धोका अनन्तवाँ भाग जानना । प्रत्येक वर्गणाके उत्कृष्ट प्रदेश अपने ही जघन्य प्रदेशो से कितने अधिक होते है, इसका संकेत निम्न प्रकार है ] - वर्गाका नाम एक १ अणुवा २ सख्यातावणा संख्यातगुणा १३ असख्याताणुवर्गणा असंख्यगुणा ४ अनन्ताणुवर्गणा अनन्तगुणा ५ आहारपणा ६ प्र० अग्राह्य ७ तेजस् वर्गणा ८ द्वि० अग्राह्य ६ भाषा वर्गणा ११० ११ १२ १३ तृ० अग्राह्य मनो व० चतु० अग्राह्य कार्मण वर्गणा १४ ९४ २६ १७ ११८ द्वि० शून्य० E बा० निगोद० २० १२१ २२ २३ ध्रुवस्कन्ध १० साम्बर निरन्तर० प्र० श्रवशून्य प्रत्येक शरीर० तृ० ध्रुव शून्य० सूक्ष्म निगोद० चतु ध ुवशून्य महा स्कन्ध जवन्य व उत्कृष्ट वर्गणाओका अल्प बहुव कितना अधिक गुणकार व विशेषका प्रमाण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only विकि अनन्तगुणा विशेषाधिक अनन्तगुणा विशेषाधिक अनन्तगुणा विशेषाधिक अनन्तगुणा विशेषाधिक अनन्तगुणा 19 असंख्य गुणा अनन्तगुणा असख्य गुगा विशेषाधिक X संख्यात असख्यात ( अभव्य x अनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त) 53 11 - 19 अभव्य X अनन्त, सिद्ध / अनन्त सर्व जो अनन्त पल्य- अस ख्यात अनन्तलोकप्रदेश जगश्रेणी - अमख्यात अगुन - अमख्यात पत्य असख्यात जगलत अ संख्यात पल्य असख्यात www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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